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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 24
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त

    सोरि॑ष्ट॒ न म॑रिष्यसि॒ न म॑रिष्यसि॒ मा बि॑भेः। न वै तत्र॑ म्रियन्ते॒ नो य॑न्ति अध॒मं तमः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । अ॒रि॒ष्ट॒ । न । म॒रि॒ष्य॒सि॒ । न । म॒रि॒ष्य॒सि॒ । मा । ब‍ि॒भे॒: । न । वै । तत्र॑ । म्रि॒य॒न्ते॒ । नो इति॑ । य॒न्ति॒ । अ॒ध॒मम् । तम॑: ॥२.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोरिष्ट न मरिष्यसि न मरिष्यसि मा बिभेः। न वै तत्र म्रियन्ते नो यन्ति अधमं तमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । अरिष्ट । न । मरिष्यसि । न । मरिष्यसि । मा । ब‍िभे: । न । वै । तत्र । म्रियन्ते । नो इति । यन्ति । अधमम् । तम: ॥२.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 24

    पदार्थ -

    १. हे (अरिष्ट) = रोगादि से की जानेवाली हिंसा से रहित पुरुष ! (सः) = वह तू (न मरिष्यसि) = मृत्यु को प्राप्त नहीं होगा, (न मरिष्यसि) = निश्चय ही तु मरने नहीं लगा, इसलिए (मा बिभे:) = डर मत। २. (तत्र) = वहाँ जहाँ कि 'ब्रह्म' को परिधि [रक्षक] बनाया जाता है, (वै) = निश्चय से लोग (न म्रियन्ते) = असमय में मृत्यु का शिकार नहीं होते और (अधमं तमः) = मरणकालीन दु:सह मुर्छा को भी (नो यन्ति) = नहीं प्राप्त होते अथवा मृत्यु के बाद अन्धतमस् से आवृत असुर्य लोकों को प्राप्त नहीं होते।

    भावार्थ -

    हम रोगादि से हिंसित न होने पर असमय में मृत्यु का शिकार न होंगे। 'ब्रह्म' को अपनी परिधि बनाने पर न असमय में मरेंगे, न ही अन्धकारमय लोकों को प्राप्त होंगे।

     

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