अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
अ॒यं जी॑वतु॒ मा मृ॑ते॒मं समी॑रयामसि। कृ॒णोम्य॑स्मै भेष॒जं मृत्यो॒ मा पुरु॑षं वधीः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । जी॒व॒तु॒ । मा । मृ॒त॒ । इ॒मम् । सम् । ई॒र॒या॒म॒सि॒ । कृ॒णोमि॑ । अ॒स्मै॒ । भे॒ष॒जम् । मृत्यो॒ इति॑ । मा । पुरु॑षम् । व॒धी॒: ॥२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं जीवतु मा मृतेमं समीरयामसि। कृणोम्यस्मै भेषजं मृत्यो मा पुरुषं वधीः ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । जीवतु । मा । मृत । इमम् । सम् । ईरयामसि । कृणोमि । अस्मै । भेषजम् । मृत्यो इति । मा । पुरुषम् । वधी: ॥२.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
विषय - रोग का प्रारम्भ में ही प्रतीकार
पदार्थ -
(अयं जीवतु) = यह रुग्ण पुरुष जीये, (मा मृत) = मरे नहीं। हम (इमं समीरयामसि) = इसे प्राणशक्ति से प्रेरित करते हैं। प्राणशक्ति-सम्पन्न होकर यह सब चेष्टाएँ ठीक प्रकार से करे, ऐसी व्यवस्था करते हैं। (अस्मै भेषजं कृणोमि) = इसके लिए औषध करता हूँ। हे (मृत्यो) = मृत्यु! तू (पुरुषं मा वधी:) = इस पुरुष को मत मार । 'वस्तुत:' रोग को आरम्भ में ही औषधोपचार से दूर कर दिया जाए' तभी ठीक है।
भावार्थ -
रोग को आरम्भ में ही औषधोपचार से ठीक कर दिया जाए तो उत्तम है, जिससे रोगवृद्धि होकर मृत्यु का भय न रहे।
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