अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 21
श॒तं ते॒ऽयुतं॑ हाय॒नान्द्वे यु॒गे त्रीणि॑ च॒त्वारि॑ कृण्मः। इ॑न्द्रा॒ग्नी विश्वे॑ दे॒वास्तेऽनु॑ मन्यन्ता॒महृ॑णीयमानाः ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तम् । ते॒ । अ॒युत॑म् । हा॒य॒नान् । द्वे इति॑ । यु॒गे इति॑ । त्रीणि॑ । च॒त्वारि॑ । कृ॒ण्म॒: । इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । विश्वे॑ । दे॒वा: । ते । अनु॑ । म॒न्य॒न्ता॒म् । अहृ॑णीयमाना: ॥२.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
शतं तेऽयुतं हायनान्द्वे युगे त्रीणि चत्वारि कृण्मः। इन्द्राग्नी विश्वे देवास्तेऽनु मन्यन्तामहृणीयमानाः ॥
स्वर रहित पद पाठशतम् । ते । अयुतम् । हायनान् । द्वे इति । युगे इति । त्रीणि । चत्वारि । कृण्म: । इन्द्राग्नी इति । विश्वे । देवा: । ते । अनु । मन्यन्ताम् । अहृणीयमाना: ॥२.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 21
विषय - शतं, अयुतं, द्वे युगे [कृण्मः ]
पदार्थ -
१. हे युवक! (ते शतं हायनान् कृण्म:) = तेरे जीवन को सौ वर्षों का बनाते हैं। इन वर्षों को (अ-युतं) [कृण्मः ] = अपृथक् रूप से करते हैं, अर्थात् तुम इन वर्षों में परस्पर एक-दूसरे से पृथक् न होओ। इसप्रकार पति-पत्नी का एक युग [जोड़ा] बनता है। अब सन्तानों के होने पर (द्वे युगे) = लड़की-लड़के का दूसरा युग होता है। हम तेरे इस दूसरे युग को करते हैं। इसीप्रकार (त्रीणि) = तीन (वचत्वारि) = चार युगों को करते हैं। पुत्र-पौत्रादि के द्वारा अनेक युगलों को करते हैं। २. (इन्द्राग्नी) = इन्द्र और अग्नि तथा (विश्वेदेवा:) = सब देव (अहृणीयमानाः) = किसी प्रकार का क्रोध न करते हुए (अनुमन्यन्ताम्) = तेरे दीर्घजीवन, पत्नी से अवियुक्त जीवन तथा सन्तान-युगलों से सम्पन्न जीवन को अनुमत करें, अर्थात् तू 'इन्द्र'-जितेन्द्रिय बनता हुआ, "अग्नि'-आगे बढ़ने की भावनावाला होता हुआ तथा (विश्वेदेवा:) = सब दिव्य गुणोंवाला होता हुआ इस दीर्घ व सन्तति-समृद्ध जीवनवाला बन।
भावार्थ -
प्रभु कहते हैं कि हम तेरे लिए 'सौ वर्ष का साथी से अवियुक्त, सन्तति से सम्पन्न जीवन देते हैं। तू जितेन्द्रिय, प्रगति की भावनावाला व दिव्यगुण सम्पन्न' बनकर उल्लिखित जीवन को प्राप्त कर।
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