अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 22
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - आयुः
छन्दः - पुरस्ताद्बृहती
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
श॒रदे॑ त्वा हेम॒न्ताय॑ वस॒न्ताय॑ ग्री॒ष्माय॒ परि॑ दद्मसि। व॒र्षाणि॒ तुभ्यं॑ स्यो॒नानि॒ येषु॒ वर्ध॑न्त॒ ओष॑धीः ॥
स्वर सहित पद पाठश॒रदे॑ । त्वा॒ । हे॒म॒न्ताय॑ । व॒स॒न्ताय॑ । ग्री॒ष्माय॑ । परि॑ । द॒द्म॒सि॒ । व॒र्षाणि॑ । तुभ्य॑म् । स्यो॒नानि॑ । येषु॑ । वर्ध॑न्ते । ओष॑धी: ॥२.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
शरदे त्वा हेमन्ताय वसन्ताय ग्रीष्माय परि दद्मसि। वर्षाणि तुभ्यं स्योनानि येषु वर्धन्त ओषधीः ॥
स्वर रहित पद पाठशरदे । त्वा । हेमन्ताय । वसन्ताय । ग्रीष्माय । परि । दद्मसि । वर्षाणि । तुभ्यम् । स्योनानि । येषु । वर्धन्ते । ओषधी: ॥२.२२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 22
विषय - ऋतुओं की अनुकूलता
पदार्थ -
१. हे बालक! हम (त्वा) = तुझे (शरदे) = शरद ऋतु के लिए, इसी प्रकार (हेमन्ताय) = हेमन्त के लिए, (वसन्ताय) = वसन्त के लिए तथा (ग्रीष्माय) = ग्रीष्म के लिए (परिदासि) = देते हैं-सौंपते हैं। ये सब ऋतुएँ तेरे जीवन का रक्षण करनेवाली हों। २. (वर्षाणि) = वर्षाऋतु के दिन भी (तुभ्यं स्योनानि) = तेरे लिए सुखकर हों। वे वर्षा ऋतु के दिन, (येषु) = जिनमें कि (ओषधी: वर्धन्ते) = ओषधियाँ वृद्धि को प्राप्त होती हैं। वे वृष्टि के दिन अपनी बढ़ी हुई ओषधियों से तेरे लिए सुखकर हों।
भावार्थ -
हमें सब ऋतुओं की अनुकूलता प्राप्त हो, जिससे हम स्वस्थ शरीर, मन व बुद्धि'-वाले बने रहें।
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