अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 13
अ॒ग्नेष्टे॑ प्रा॒णम॒मृता॒दायु॑ष्मतो वन्वे जा॒तवे॑दसः। यथा॒ न रिष्या॑ अ॒मृतः॑ स॒जूरस॒स्तत्ते॑ कृणोमि॒ तदु॑ ते॒ समृ॑ध्यताम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्ने: । ते॒ । प्रा॒णम् । अ॒मृता॑त् । आयु॑ष्मत: । व॒न्वे॒ । जा॒तऽवे॑दस: । यथा॑ । न । रिष्या॑: । अ॒मृत॑: । स॒ऽजू: । अस॑: । तत् । ते॒ । कृ॒णो॒मि॒ । तत् । ऊं॒ इति॑ । ते॒ । सम् । ऋ॒ध्य॒ता॒म् ॥२.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नेष्टे प्राणममृतादायुष्मतो वन्वे जातवेदसः। यथा न रिष्या अमृतः सजूरसस्तत्ते कृणोमि तदु ते समृध्यताम् ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने: । ते । प्राणम् । अमृतात् । आयुष्मत: । वन्वे । जातऽवेदस: । यथा । न । रिष्या: । अमृत: । सऽजू: । अस: । तत् । ते । कृणोमि । तत् । ऊं इति । ते । सम् । ऋध्यताम् ॥२.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 13
विषय - अमृत सजू: असः
पदार्थ -
१. पुरोहित यजमान से कहता है कि हे पुरुष ! मैं (ते) = तेरे लिए (अग्नेः) = उस अग्रणी प्रभु से (प्राणं वन्वे) = प्राणशक्ति की याचना करता हूँ। उन प्रभु से जो (अमृतात्) = अमृत हैं, जिनकी उपासना में मृत्यु है ही नहीं, (आयुष्मतः) = जो प्रशस्त आयुष्य को प्राप्त करानेवाले हैं, जातवेदसः जो सर्वज्ञ हैं। २. मैं (ते) = तेरे लिए (तत् कृणोमि) = उन कर्तव्य-कर्मों को-प्राणसाधनादि नित्य कर्मों को उपदिष्ट करता हूँ, (यथा न रिष्या:) = जिससे तू हिंसित न हो-रोगादि तुझपर आक्रमण न कर पाएँ। (अ-मृत:) = तेरा जीवन नीरोग हो। (सजू: अस:) = तू उस परमात्मा के साथ होनेवाला हो, तू प्रभुस्मरणपूर्वक कर्त्तव्य-कर्मों को करनेवाला हो, (उ) = और (ते) = तेरे लिए (तत्) = ये सब कर्(समृध्यताम्) = समृद्धि का कारण बनें।
भावार्थ -
हम प्राणसाधनों द्वारा नौरोग दीर्घजीवन प्राप्त करें। रोगादि से हिंसित न होते हुए 'अमृत' हों, असमय में ही मृत्यु का शिकार न हो जाएँ। प्रभु की उपासना में चलते हुए हम समृद्ध जीवनवाले बनें।
इस भाष्य को एडिट करें