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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 59
    ऋषिः - विश्वकर्मा ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    ए॒तꣳ स॑धस्थ॒ परि॑ ते ददामि॒ यमा॒वहा॑च्छेव॒धिं जा॒तवे॑दाः। अ॒न्वा॒ग॒न्ता य॒ज्ञप॑तिर्वो॒ऽअत्र॒ तꣳ स्म॑ जानीत पर॒मे व्यो॑मन्॥५९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒तम्। स॒ध॒स्थेति॑ सधऽस्थ। परि॑। ते॒। द॒दा॒मि॒। यम्। आ॒वहादित्या॒ऽवहा॑त्। शे॒व॒धिमिति॑ शेव॒ऽधिम्। जा॒तवे॑दा॒ इति॑ जा॒तऽवे॑दाः। अ॒न्वा॒ग॒न्तेत्य॑नुऽआऽग॒न्ता। य॒ज्ञप॑ति॒रिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिः। वः॒। अत्र॑। तम्। स्म॒। जा॒नी॒त॒। प॒र॒मे। व्यो॑म॒न्निति॒ विऽओ॑मन् ॥५९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतँ सधस्थ परि ते ददामि यमावहाच्छेवधिञ्जातवेदाः । अन्वागन्ता यज्ञपतिर्वो अत्र तँ स्म जानीत परमे व्योमन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एतम्। सधस्थेति सधऽस्थ। परि। ते। ददामि। यम्। आवहादित्याऽवहात्। शेवधिमिति शेवऽधिम्। जातवेदा इति जातऽवेदाः। अन्वागन्तेत्यनुऽआऽगन्ता। यज्ञपतिरिति यज्ञऽपतिः। वः। अत्र। तम्। स्म। जानीत। परमे! व्योमन्निति विऽओमन्॥५९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 59
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    भावार्थ -
    हे ( सधस्थ ) एकत्र बैठने के स्थान, सभाभवन, एवं सभा में विराजमानं विद्वान्, शासक जनो ! ( जातवेदाः ) ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाले समृद्ध पुरुष, ( यम ) जिस ( शेवधिम् ) धन-कोश को ( आव- हात्) राष्ट्र से या व्यापारादि से प्राप्त करके राजकोष में जमा कराते हैं ( एतम् ) उसको (ते) तेरे अधीन (परिददामि ) प्रदान करता हूँ । ( यज्ञपतिः ) यज्ञरूप राष्ट्रव्यवस्था का पालन करने वाला राजा ( वः अनु आगन्ता ) आप लोगों के अनुकूल ही चलेगा । ( अत्र ) यहां, अब (तम् ) उसको ही ( परमे व्योमन् ) परम, सर्वोत्कृष्ट विविध राष्ट्र कार्यों के रक्षक पद पर स्थित हुआ ( जानीत स्म ) जानो । शत० ९ ।५।१।४६॥ अध्यात्म में - जिस ज्ञान के खजाने को परमेश्वर या विद्वान् धारण करता है वह मैं जिज्ञासु जन को प्राप्त करता हूँ । यज्ञपतिः निष्ठ पुरुष तुमको परमात्मा के विषय में उचित उपदेश करे उसका ज्ञान करो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रजापतिर्देवता । निचृदार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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