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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 60
    ऋषिः - विश्वकर्मर्षिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    ए॒तं जा॑नाथ पर॒मे व्यो॑म॒न् देवाः॑ सधस्था वि॒द रू॒पम॑स्य। यदा॑गच्छा॑त् प॒थिभि॑र्देव॒यानै॑रिष्टापू॒र्त्ते कृ॑णवाथा॒विर॑स्मै॥६०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒तम्। जा॒ना॒थ॒। प॒र॒मे। व्यो॑म॒न्निति॑ विऽओ॑मन्। देवाः॑। स॒ध॒स्था॒ इति॑ सधऽस्थाः। वि॒द॒। रू॒पम्। अ॒स्य॒। यत्। आ॒गच्छा॒दित्या॒ऽगच्छा॑त्। प॒थिभि॒रिति॒ प॒थिभिः॑। दे॒व॒यानै॒रिति॑ देव॒ऽयानैः॑। इ॒ष्टा॒पू॒र्त्त इती॑ष्टाऽपू॒र्त्ते। कृ॒ण॒वा॒थ॒। आ॒विः। अ॒स्मै॒ ॥६० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतञ्जानाथ परमे व्योमन्देवाः सधस्था विद रूपमस्य । यदागच्छात्पथिभिर्देवयानैरिष्टापूर्ते कृणवाथाविरस्मै ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एतम्। जानाथ। परमे। व्योमन्निति विऽओमन्। देवाः। सधस्था इति सधऽस्थाः। विद। रूपम्। अस्य। यत्। आगच्छादित्याऽगच्छात्। पथिभिरिति पथिभिः। देवयानैरिति देवऽयानैः। इष्टापूर्त्त इतीष्टाऽपूर्त्ते। कृणवाथ। आविः। अस्मै॥६०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 60
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    भावार्थ -
    हे ( देवा: ) विद्वान् विजिगीषु, राजा लोगो ! आप लोग ( एतम् ) इस अभिषिक्त सम्राट को ही ( परमे व्योमन् ) परम, सर्वोच्च, अधिकार व रक्षक के अध्यक्ष पद पर (जानाथ ) जानो । हे ( सध- स्थाः ) साथ ही एक सभाभवन में विराजने वाले राजसभासद् पुरुषो ! (अस्य) इस ( रूपम् ) सबके प्रति प्रिय लगने वाले स्वरूप, अधिकार और कर्त्तव्य को ( विद ) जानो और उसको जनाओ । ( यद् ) जब भी ( देवयानैः ) विद्वानों और राजाओं द्वारा गमन करने योग्य (पथिभिः ) मार्गों से ( आगच्छात् ) यह प्राप्त हो, तब ( इष्टापूर्ते ) अपने इष्ट, यज्ञ, दान आदि परोपकार के कार्य और 'आपूर्त' कूप तड़ाग आदि प्रजा के हितकारी कार्यों को (अस्मै ) इसके निमित्त ( आविः कृणवाथ ) प्रकट करो । शत० ९ । ५ । १ । ४७ ॥ ईश्वर का ज्ञान योगाभ्यास आदि देवयान मार्गों से करें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रजापतिर्देवता । निचृदार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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