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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 66
    ऋषिः - देवश्रवदेववातावृषी देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अ॒ग्निर॑स्मि॒ जन्म॑ना जा॒तवे॑दा घृ॒तं मे॒ चक्षु॑र॒मृतं॑ मऽआ॒सन्। अ॒र्कस्त्रि॒धातू॒ रज॑सो वि॒मानोऽज॑स्रो घ॒र्मो ह॒विर॑स्मि॒ नाम॑॥६६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः। अ॒स्मि॒। जन्म॑ना। जा॒तवे॑दा इति॑ जा॒तऽवे॑दाः। घृ॒तम्। में॒। चक्षुः॑। अ॒मृत॑म्। मे॒। आ॒सन्। अ॒र्कः। त्रि॒धातु॒रिति॑ त्रि॒ऽधातुः॑। रज॑सः। वि॒मान॒ इति॑ वि॒ऽमानः॑। अज॑स्रः। घ॒र्मः। ह॒विः। अ॒स्मि॒। नाम॑ ॥६६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निरस्मि जन्मना जातवेदा घृतम्मे चक्षुरमृतम्म आसन् । अर्कस्त्रिधातू रजसो विमानो जस्रो घर्मा हविरस्मि नाम ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः। अस्मि। जन्मना। जातवेदा इति जातऽवेदाः। घृतम्। में। चक्षुः। अमृतम्। मे। आसन्। अर्कः। त्रिधातुरिति त्रिऽधातुः। रजसः। विमान इति विऽमानः। अजस्रः। घर्मः। हविः। अस्मि। नाम॥६६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 66
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    भावार्थ -
    मैं सम्राट् ( जन्मना ) जन्म अर्थात् स्वयं अपने आप प्रकट हुए स्वरूप से एवं स्वभाव से ही (अग्निः अस्मि ) अग्नि के समान तीव्र, दुष्टों का संतापजनक और ( जातवेदाः ) प्रत्येक उत्पन्न पदार्थ पर अधिकारी रूप से विद्यमान, एवं ऐश्वर्यवान् और ( अग्निः ) समस्त पदार्थों को जानने हारा ( अस्मि ) होऊं । ( घृतम् ) जिस प्रकार अग्नि में घी पढ़ते ही वह प्रकट होकर प्रदीप्त होता है उसी प्रकार ( घृतम् ) तेज ही ( मे ) मेरा ( चक्षुः ) चक्षु के समान स्वरूप को प्रकट रूप से दिखाने वाला हो । ( अमृतम् ) अन्न आदि हवि जिस प्रकार अग्नि के मुख में दिया जाता है उसी प्रकार ( मे आसन्) मेरे मुख में, मेरे मुख्य पद के निमित्त ( अमृतम् ) अखण्ड अविनाशी, ऐश्वर्य या अमृत, अन्न आदि भोग्य पदार्थ हो । मैं ( अर्कः ) सूर्य के समान तेजस्वी, (त्रिधातुः ) प्रज्ञा, शक्ति, उत्साह तीनों से राष्ट्र को धारण करने से समर्थ, ( रजसः विमानः ) लोकों का विविध रूपों से परिमाण और आदर करने वाला, ( अजस्र: ) शत्रुओं से न पराजित होने वाला ( धर्मः ) सूर्य के समान अति तेजस्वी, ( हविः ) राष्ट्र को अपने वश में लेने में समर्थ ( नाम ) सबको नमाने वाला (अस्मि) होकर रहूँ ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - देवश्रवा देववाश्र्व भारतावृषी । अग्निर्देवता । निचृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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