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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 30/ मन्त्र 10
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    तं त्वा॑ व॒यं वि॑श्ववा॒रा शा॑स्महे पुरुहूत। सखे॑ वसो जरि॒तृभ्यः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । त्वा॒ । व॒यम् । वि॒श्व॒ऽवा॒र॒ । आ । शा॒स्म॒हे॒ । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । सखे॑ । व॒सो॒ इति॑ । ज॒रि॒तृऽभ्यः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं त्वा वयं विश्ववारा शास्महे पुरुहूत। सखे वसो जरितृभ्यः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। त्वा। वयम्। विश्वऽवार। आ। शास्महे। पुरुऽहूत। सखे। वसो इति। जरितृऽभ्यः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 30; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथोक्तस्येश्वरस्य प्रार्थनाविषय उपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे विश्ववार पुरुहूत वसो सखे जगदीश्वर ! पूर्वप्रतिपादितं त्वां वयं जरितृभ्य आशास्महे भवद्विज्ञानप्रकाशमिच्छाम इति यावत्॥१०॥

    पदार्थः

    (तम्) पूर्वोक्तं परमेश्वरम् (त्वा) त्वाम् (यम्) उपासनामभीप्सवः (विश्ववार) विश्वं वृणीते सम्भाजयति तत्सम्बुद्धौ (आ) समन्तात् (शास्महे) इच्छामः (पुरुहूत) पुरुभिर्बहुभिराहूयते स्तूयते यस्तत् सम्बुद्धौ (सखे) मित्र (वसो) वसन्ति सर्वाणि भूतानि यस्मिन् यो वा सर्वेषु भूतेषु वसति तत्सम्बुद्धौ (जरितृभ्यः) स्तावकेभ्यो धार्मिकेभ्यो विद्वद्भ्यो मनुष्येभ्यः॥१०॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्विदुषां सङ्गमेनैवास्य सर्वरचकस्य सर्वपूज्यस्य सर्वमित्रस्य सर्वाधारस्य पूर्वमन्त्रप्रतिपादितस्य परमेश्वरस्य विज्ञानमुपासनं नित्यमन्वेष्टव्यम्, कुतो नैव विदुषामुपदेशेन विना कस्यापि यथार्थतया विज्ञानं भवितुमर्हति॥१०॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब ईश्वर की प्रार्थना के विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (विश्ववार) संसार को अनेक प्रकार सिद्ध करने (पुरुहूत) सब से स्तुति को प्राप्त होने (वसो) सब में रहने वा सबको अपने में बसानेवाले (सखे) सबके मित्र जगदीश्वर ! (तम्) पूर्वोक्त (त्वा) आपकी (वयम्) हम लोग (जरितृभ्यः) स्तुति करनेवाले धार्मिक विद्वानों से (आ) सब प्रकार से (शास्महे) आशा करते हैं अर्थात् आपके विशेष ज्ञान प्रकाश की इच्छा करते हैं॥१०॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को विद्वानों के समागम ही से सब जगत् के रचने, सबके पूजने योग्य, सबके मित्र, सबके आधार, पिछले मन्त्र से प्रतिपादित किये हुए परमेश्वर के विज्ञान वा उपासना की नित्य इच्छा करनी चाहिये, क्योंकि विद्वानों के उपदेश के विना किसी को यथायोग्य विशेष ज्ञान नहीं हो सकता है॥१०॥

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    विषय

    अब ईश्वर की प्रार्थना के विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे विश्ववार पुरुहूत वसो सखे जगदीश्वर ! पूर्वप्रतिपादितं त्वां वयं जरितृभ्यः आ शास्महे (भवत् विज्ञानप्रकाशं इच्छाम इति यावत्)॥१०॥

    पदार्थ

    हे  (विश्ववार) विश्वं वृणीते सम्भाजयति तत्सम्बुद्धौ=संसार का वरण करके अच्छी तरह से निर्माण करनेवाले, (पुरुहूत) पुरुभिर्बहुभिराहूयते स्तूयते यस्तत् सम्बुद्धौ=जिसकी सब पहले से बहुत प्रकार से स्तुति करते हैं, (वसो) वसन्ति सर्वाणि भूतानि यस्मिन् यो वा सर्वेषु भूतेषु वसति तत्सम्बुद्धौ=सब में रहने वा सबको अपने में बसानेवाले, (सखे) मित्र= सबके मित्र, (जगदीश्वर)=परमेश्वर! (पूर्वप्रतिपादितम्)=पूर्वोक्त, (त्वाम्)=आपकी, (वयम्)=हम, (जरितृभ्यः) स्तावकेभ्यो धार्मिकेभ्यो विद्वद्भ्यो मनुष्येभ्यः=स्तुति करनेवाले धार्मिक विद्वानों से, (आ) समन्तात्=सब प्रकार से,  (शास्महे) इच्छामः=इच्छा करते हुए  (भवत्)= आपके (विज्ञानप्रकाशम्)=विशेष ज्ञान की, (इच्छाम)=इच्छा करते हैं ॥१०॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों के द्वारा विद्वानों की संगति से ही से सब जगत् के रचनेवाले, सबके पूजने योग्य, सबके मित्र, सबके आधार, पिछले मन्त्र से प्रतिपादित किये हुए परमेश्वर के विशेष ज्ञान की उपासना की नित्य इच्छा करनी चाहिये, क्योंकि विद्वानों के उपदेश के विना किसी को यथायोग्य विशेष ज्ञान नहीं हो सकता है॥१०॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे  (विश्ववार) संसार का वरण करके अच्छी तरह से निर्माण करनेवाले, (पुरुहूत) जिसकी सब पहले से ही बहुत प्रकार से स्तुति करते हैं, (वसो) सब में बसनेवाले और सबको अपने में बसानेवाले, (सखे) सबके मित्र (जगदीश्वर) परमेश्वर! (पूर्वप्रतिपादितम्) पूर्वोक्त (त्वाम्) आपकी (वयम्) हम (जरितृभ्यः) स्तुति करनेवाले धार्मिक विद्वानों से, (आ) सब प्रकार से  (शास्महे) इच्छा करते हुए,  (भवत्) आपके (विज्ञानप्रकाशम्) विशेष ज्ञान की (इच्छाम) हम इच्छा करते हैं ॥१०॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (तम्) पूर्वोक्तं परमेश्वरम् (त्वा) त्वाम् (यम्) उपासनामभीप्सवः (विश्ववार) विश्वं वृणीते सम्भाजयति तत्सम्बुद्धौ (आ) समन्तात् (शास्महे) इच्छामः (पुरुहूत) पुरुभिर्बहुभिराहूयते स्तूयते यस्तत् सम्बुद्धौ (सखे) मित्र (वसो) वसन्ति सर्वाणि भूतानि यस्मिन् यो वा सर्वेषु भूतेषु वसति तत्सम्बुद्धौ (जरितृभ्यः) स्तावकेभ्यो धार्मिकेभ्यो विद्वद्भ्यो मनुष्येभ्यः॥१०॥
    विषयः- अथोक्तस्येश्वरस्य प्रार्थनाविषय उपदिश्यते॥

    अन्वयः- हे विश्ववार पुरुहूत वसो सखे जगदीश्वर ! पूर्वप्रतिपादितं त्वां वयं जरितृभ्य आ शास्महे भवद्विज्ञानप्रकाशमिच्छाम इति यावत्॥१०॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्विदुषां सङ्गमेनैवास्य सर्वरचकस्य सर्वपूज्यस्य सर्वमित्रस्य सर्वाधारस्य पूर्वमन्त्रप्रतिपादितस्य परमेश्वरस्य विज्ञानमुपासनं नित्यमन्वेष्टव्यम्, कुतो नैव विदुषामुपदेशेन विना कस्यापि यथार्थतया विज्ञानं भवितुमर्हति॥१०॥

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    विषय

    घर की याद

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार घर का स्मरण आने पर जीव प्रार्थना करता है कि (वयम्) - हम (तम् त्वा) - उन आपको ही (आशास्महे) चाहते हैं , जो आप (जरितृभ्यः) - स्तोताओं के लिए आपको न भूल जानेवालों के लिए (विश्ववार) - सब रमणीय वस्तुओं को प्राप्त करानेवाले (पुरुहूत) - बहुतों से पुकारने योग्य हैं अथवा जिन आपका पुकारना पालन व पूरण करनेवाला है [पृ पालनपूरणयोः] , (सखे) - जो आप सच्चे मित्र हैं तथा (वसो) - निवास के लिए सब आवश्यक तत्त्वों को प्राप्त करानेवाले हैं । 
    २. प्रभु की प्राप्ति ही हमें 'आप्तकाम' बनानेवाली है , वही तृप्ति है । इन सांसारिक विषयों में 'अनुतृषुलता' है , ये तृप्ति देनेवाले नहीं हैं । इनसे उत्तरोत्तर प्यास बढ़ती है , तृप्त नहीं होती । हम उस 'विश्ववार' प्रभु की ही कामना करें । उनकी प्राप्ति ही हमारी पालन व पूरण करेगी , वे ही पुरुहूत हैं । प्रभु ही हमारे सच्चे मित्र [सखा] हैं और हमें उत्तम निवासवाला बनाते हैं [वसो] । 


     

    भावार्थ

    भावार्थ - हे विश्ववार , पुरुहूत , सखे , वसो ! हम आपको ही पुकारते हैं । 

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    विषय

    संग्रामार्थ सेनापति की प्रधान पद पर प्रतिष्ठा ।

    भावार्थ

    हे (विश्ववार) सबसे वरण करने योग्य, सबको धनैश्वर्य का समान रूप से न्यायपूर्ण विभाग करनेहारे! हे (पुरुहूत) बहुत से जनों से स्तुति किये, रक्षा, क्षेमादि के निमित्त बुलाये, एवं स्मरण किये गये! हे (सखे) मित्र! हे (वसो) सबमें बसने और सबके बसानेवाले परमेश्वर! राजन्! (वयम्) हम (तं) उस (त्वा) तुझको (जरितृभ्यः) स्तुति करनेवाले विद्वान् पुरुषों के हितकारी रूप से चाहते और कामना करते हैं। इत्येकोनत्रिंशद् वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः ॥ देवता—१—१६ इन्द्रः । १७–१९ अश्विनौ । २०–२२ उषाः॥ छन्दः—१—१०, १२—१५, १७—२२ गायत्री। ११ पादनिचृद् गायत्री । १६ त्रिष्टुप् । द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी विद्वानांच्या सहवासानेच सर्व जगाचा निर्माता, सर्वांचा पूजनीय, सर्वांचा मित्र, सर्वाधार, मागच्या मंत्रात प्रतिपादित केलेल्या परमेश्वराचे विज्ञान व उपासनेची सदैव इच्छा धरावी. कारण विद्वानांच्या उपदेशाशिवाय कुणालाही यथार्थ ज्ञान होऊ शकत नाही. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Lord of universal love and choice, all benefactor, invoked and worshipped by all, friend, immanent and universal home, we invoke and worship you and pray for light from the celebrants of Divinity.

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    Subject of the mantra

    Now, the subject matter of God’s prayer has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (viśvavāra= the one who builds the world well by choosing, (puruhūta)=whom everyone praises in many ways from the earliest time, (vaso)=the one who resides in all and the one who settles all in himself, (sakhe)=friend of all, (jagadīśvara)=God, (pūrvapratipāditam)=aforesaid, (tvām)=your, (vayam)=we, (jaritṛbhyaḥ)=from praising religious scholars, (ā)=in all respects, (śāsmahe)=desiring, (bhavat)=your, (vijñānaprakāśam)=of special knowkdge, (icchāma)=we desire.

    English Translation (K.K.V.)

    O one who builds the world well by choosing, whom all have already praised in many ways, dwelling in all and all dwell in Him, such God, the friend of all! Desiring in every way from the righteous scholars who praise you aforesaid, we desire your special knowledge.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    From the company of scholars one should always desire to worship the special knowledge of God, the creator of all the worlds, worthy of worship of all, friend of all, the foundation of all, as enunciated by the previous mantra, because without the preaching of the scholars one may not have appropriate special knowledge.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now the subject of the prayer to God is taught.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    We desirous of Thy communion, long for thee O God, invoked by many, present in all beings and things and their Support, Chosen by all as Dispenser of Justice and our Friend. Be gracious to Thy righteous learned praises or devotees.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (विश्ववार ) विश्वं वृणीते संभाजयति तलम्बुद्धौ (आशास्महे) इच्छामः Desire. ( वसो ) वसन्ति सर्वाणि भूतानि यस्मिन् यो वा सर्वेषु भूतेषु वसति तत्सम्बुद्धौ । = Omnipresent and Support of all beings. ( जरितृभ्यः) स्तावकेभ्यः धार्मिकेभ्यः विद्वद्भ्यः मनुष्येभ्यः = For righteous, learned devotees. ( पुरुहूत ) पुरुभिः बहुभिः आहूयते स्तूयते यः तत्सम्बुद्धौ = Praised by all.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should desire to get the knowledge of and communion with this God Who is the Creator of the world, Adorable and Friend of all, the Support of the Universe, for no one can attain true knowledge without the teachings or sermons given by enlightened persons.

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