ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 30/ मन्त्र 4
अ॒यमु॑ ते॒ सम॑तसि क॒पोत॑इव गर्भ॒धिम्। वच॒स्तच्चि॑न्न ओहसे॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । ऊँम् इति॑ । ते॒ । सम् । अ॒त॒सि॒ । क॒पोतः॑ऽइव । ग॒र्भ॒ऽधिम् । वचः॑ । तत् । चि॒त् । नः॒ । ओ॒ह॒से॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमु ते समतसि कपोतइव गर्भधिम्। वचस्तच्चिन्न ओहसे॥
स्वर रहित पद पाठअयम्। ऊँम् इति। ते। सम्। अतसि। कपोतःऽइव। गर्भऽधिम्। वचः। तत्। चित्। नः। ओहसे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 30; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स एवोपदिश्यते।
अन्वयः
अयमिन्द्राख्योऽग्निरु गर्भधिं कपोत इव नो वचः समोहसे चिन्नस्तत् अतसि॥४॥
पदार्थः
(अयम्) इन्द्राख्योऽग्निः (उ) वितर्के (ते) तव (सम्) सम्यगर्थे (अतसि) निरन्तरं गच्छति प्रापयति। अत्र व्यत्ययः (कपोत इव) पारावत इव (गर्भधिम्) गर्भो धीयतेऽस्यां ताम् (वचः) वर्त्तनम् (तत्) तस्मै पूर्वोक्ताय बलादिगुणवर्द्धकायानन्दाय (चित्) पुनरर्थे (नः) अस्माकम् (ओहसे) आप्नोति॥४॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा कपोतो वेगेन कपोतीमनुगच्छति, तथैव शिल्पविद्यया साधितोऽग्निरनुकूलां गतिं गच्छति, मनुष्या एनां विद्यामुपदेशश्रवणाभ्यां प्राप्तुं शक्नुवन्तीति॥४॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर भी उसी विषय का अगले मन्त्र में प्रकाश किया है॥
पदार्थ
(अयम्) यह इन्द्र अग्नि जो कि परमेश्वर का रचा है (उ) हम जानते हैं कि जैसे (गर्भधिम्) कबूतरी को (कपोत इव) कबूतर प्राप्त हो, वैसे (नः) हमारी (वचः) वाणी को (समोहसे) अच्छे प्रकार प्राप्त होता है और (चित्) वही सिद्ध किया हुआ (नः) हम लोगों को (तत्) पूर्व कहे हुए बल आदि गुण बढ़ानेवाले आनन्द के लिये (अतसि) निरन्तर प्राप्त करता है॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे कबूतर अपने वेग से कबूतरी को प्राप्त होता है, वैसे ही शिल्पविद्या से सिद्ध किया हुआ अग्नि अनुकूल अर्थात् जैसे चाहिये वैसे गति को प्राप्त होता है। मनुष्य इस विद्या को उपदेश वा श्रवण से पा सकते हैं॥४॥
विषय
फिर भी उसी विषय का इस मन्त्र में प्रकाश किया है॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
अयम् इन्द्राख्यः अग्निः उ गर्भधिं कपोतः इव नः वचः सम् ओहसे चित् नः तत् अतसि॥४॥
पदार्थ
(अयम्)=यह, (इन्द्राख्यः)=इन्द्र नामक (अग्निः) अग्नि [जो कि परमेश्वर का रचा है], (उ) वितर्के=अथवा, (गर्भधिम्) गर्भो धीयतेऽस्यां ताम्=जिस में गर्भ स्थित है, उस कबूतरी को, (कपोत इव) पारावत इव=कबूतर के समान, (नः) अस्माकम्=हमारी, (वचः) वर्त्तनम्=वाणी को (सम्) सम्यगर्थे=अच्छे प्रकार से, (ओहसे) आप्नोति=प्राप्त होता है, (चित्) पुनरर्थे=और फिर, (नः) अस्माकम्=हमारे, (तत्) तस्मै पूर्वोक्ताय बलादिगुणवर्द्धकायानन्दाय=पूर्व में कहे हुए बल आदि गुण बढ़ानेवाले आनन्द के लिये, (अतसि) निरन्तरं गच्छति प्रापयति=निरन्तर प्राप्त करता है॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे कबूतर वेग से कबूतरी के पीछे जाता है, वैसे ही शिल्पविद्या से सिद्ध किया हुआ अग्नि अनुकूल गति से जाता है। मनुष्य इस विद्या का उपदेश और श्रवण प्राप्त कर सकते हैं॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(अयम्) यह, (इन्द्राख्यः) इन्द्र नामक (अग्निः) अग्नि [जो कि परमेश्वर का रचा है] (उ) अथवा (गर्भधिम्) गर्भिणी कबूतरी को (कपोत इव) कबूतर के समान प्राप्त करता है। (नः) हमारी (वचः) वाणी को (सम्) अच्छे प्रकार से (ओहसे) प्राप्त होता है (चित्) और फिर (नः) हमारे (तत्) पूर्व में कहे हुए बल आदि गुण बढ़ाने वाले आनन्द के लिये (अतसि) निरन्तर प्राप्त करता है॥४॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अयम्) इन्द्राख्योऽग्निः (उ) वितर्के (ते) तव (सम्) सम्यगर्थे (अतसि) निरन्तरं गच्छति प्रापयति। अत्र व्यत्ययः (कपोत इव) पारावत इव (गर्भधिम्) गर्भो धीयतेऽस्यां ताम् (वचः) वर्त्तनम् (तत्) तस्मै पूर्वोक्ताय बलादिगुणवर्द्धकायानन्दाय (चित्) पुनरर्थे (नः) अस्माकम् (ओहसे) आप्नोति॥४॥
विषयः- पुनः स एवोपदिश्यते।
अन्वयः- अयमिन्द्राख्योऽग्निरु गर्भधिं कपोत इव नो वचः समोहसे चिन्नस्तत् अतसि॥४॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा कपोतो वेगेन कपोतीमनुगच्छति, तथैव शिल्पविद्यया साधितोऽग्निरनुकूलां गतिं गच्छति, मनुष्या एनां विद्यामुपदेशश्रवणाभ्यां प्राप्तुं शक्नुवन्तीति॥४॥
विषय
सुख व ज्ञान
पदार्थ
१. हे जीव ! (अयम्) - यह सोम (उ) - निश्चय से (ते) - तेरा है , तू (सम् अतसि) - सम्यक् इसकी ओर जाता है , अर्थात् इसे प्राप्त व सुरक्षित रखने के लिए तेरे सतत प्रयत्न होते हैं ।
२. (कपोतः) - [क+पोत] यह तेरे लिए आनन्द की नौका के समान है [पोत - boat] | तेरे सब उल्लास इसपर निर्भर करते हैं । शरीर में इसका रक्षण ही सब आनन्दों का मूल है ।
३. इसका रक्षण होने पर (नः) - हमारे (तत्) - उस (गर्भधिम्) - अपने अन्दर सम्पूर्ण ज्ञान को धारण करनेवाले (वचः) - वेदस्थ वाक्यों को (चित्) - निश्चय से (ओहसे) - प्राप्त होता है , (आ ऊहसे) - सम्यक्तया समझनेवाला होता है । इस सोम के रक्षण से ही हमारी ज्ञानाग्नि समिद्ध होती है , बुद्धि तीन होती है और हम अर्थ गौरव से पूर्ण वेदवाक्यों को समझ पाते हैं । ये वेद वाक्य 'गर्भधि' हैं - अपने गर्भ में सम्पूर्ण ज्ञान को धारण करनेवाले हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - हम सोमरस के लिए सतत प्रयत्नशील हों , ये हमें सुखी व ज्ञान से परिपूर्ण करनेवाले होते हैं ।
विषय
वीर पुरुषों का सेनापति या नायक से सम्बन्ध ।
भावार्थ
(कपोतः) कबूतर (इव) जिस प्रकार (गर्भधिम्) गर्भ धारण करनेवाली कबूतरी के पास आता और संगत होता है। उसी प्रकार हे राजन्! तू भी (कपोतः) नाना वर्णों का आश्रय होकर (गर्भधिम्) अपने गर्भ में, अपने बीच में तुझे धारण करने में समर्थ राष्ट्र की प्रजा को तू (सम् अतसि) आपसे आप प्राप्त होता है। (अयम्) यह समस्त लोक (ते ऊँ) तेरे ही भोग और शासन के लिए, तेरे ही वश है। (तत् चित्) उसी प्रकार (नः) हमारे तू (वचः) वचन को भी (ओहसे) प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः ॥ देवता—१—१६ इन्द्रः । १७–१९ अश्विनौ । २०–२२ उषाः॥ छन्दः—१—१०, १२—१५, १७—२२ गायत्री। ११ पादनिचृद् गायत्री । १६ त्रिष्टुप् । द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे कबूतर आपल्या वेगाने कबुतरीला प्राप्त करते तसेच शिल्पविद्येने सिद्ध केलेला अग्नी अनुकूल अर्थात हवे त्या गतीला प्राप्त करतो. माणूस ही विद्या उपदेश व श्रवणाद्वारे प्राप्त करू शकतो. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, light and power of existence, this creation is yours for sure. Just as a pigeon flies into the nest to meet its mate so do you pervade and impregnate nature to create the world of forms, and listen to our words of praise and prayer.
Subject of the mantra
Again, the same subject has been elucidated in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(ayam)=This, (indrākhyaḥ)=named as Indra (agniḥ)=fire,[jo ki parameśvara kā racā hai]= that is God's creation, (u)=in other words, (garbhadhim)=pregnant pigeon, (kapota iva) Gets like a pigeon, (naḥ)=our, (vacaḥ)=to speech, (sam)=well, (ohase)=gets obtained, (cit)=and then, (naḥ)=our,(tat)=for the joy that increases the strength etc. said earlier, (atasi)=obtains continuously.
English Translation (K.K.V.)
This fire called Indra, which is the creation of the God, in other words, the pregnant pigeon receives the pigeon like baby-pigeon. Our speech is received well and then we receive it continuously for the pleasure of increasing the strength et cetera.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. Just as a pigeon follows a she-pigeon with speed, similarly the fire, which has been accomplished by craftsmanship, goes at a favourable speed. Human beings can receive preaching and listening of this vidya (knowledge).
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued in the next Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person, we know this Agni (fire ) is the cause of great prosperity. As a pigeon approaches his mate, so this fire approaches our speech i. e. it is known to us and is manifested by us well. When properly utilized, it is attained by us constantly. We can take benefit out of it.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अतसि) निरन्तरं गच्छति प्रापयति अत्र व्यत्ययः ॥ = Approaches or causes to attain. (तस्मै ) तस्मै पूर्वोक्ताय बलादिगुणवर्द्धकाय आनन्दाय । = For the delight that increases or develops strength. (ओहसे) आप्नोति = Attains.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankar or simile used here in this Mantra. As a pigeon approaches or follows his mate speedily, in the same manner, Agni (fire) when used scientifically, suitably benefits people. Men can learn this science of fire by listening to the teachings given by great scientists.
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