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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 30/ मन्त्र 14
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ घ॒ त्वावा॒न्त्मना॒प्तः स्तो॒तृभ्यो॑ धृष्णविया॒नः। ऋ॒णोरक्षं॒ न च॒क्र्योः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । घ॒ । त्वाऽवा॑न् । त्मना॑ । आ॒प्तः । स्तो॒तृऽभ्यः॑ । धृ॒ष्णो॒ इति॑ । इ॒या॒नः । ऋ॒णोः । अक्ष॑म् । न । च॒क्र्योः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ घ त्वावान्त्मनाप्तः स्तोतृभ्यो धृष्णवियानः। ऋणोरक्षं न चक्र्योः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। घ। त्वाऽवान्। त्मना। आप्तः। स्तोतृऽभ्यः। धृष्णो इति। इयानः। ऋणोः। अक्षम्। न। चक्र्योः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 30; मन्त्र » 14
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 30; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे धृष्णो अति प्रगल्भ सभाध्यक्ष ! त्मनाप्त इयानस्त्वावान् त्वं घ त्वमेवासि यस्त्वं चक्र्योरक्षं न इव स्तोतृभ्यः स्तावकेभ्य आऋणोः स्तावकान् आप्नोसीति यावत्॥१४॥

    पदार्थः

    (आ) अभ्यर्थे (घ) एव (त्वावान्) त्वादृशः। अत्र वतुप्प्रकरणे युष्मदस्मद्भ्यां छन्दसि सादृश्य उपसंख्यानम्। (अष्टा०वा०५.२.३९) इति सादृश्यार्थे वतुप्। (त्मना) आत्मना। मन्त्रेष्वाङ्यादेरात्मनः। (अष्टा०६.४.१४१) इत्याकारलोपः। (आप्तः) सर्वविद्यादिसद्गुणव्याप्तः सत्योपदेष्टा (स्तोतृभ्यः) स्तावकेभ्यो जनेभ्यः। गत्यर्थकर्म्मणि द्वितीयाचतुर्थ्यौ चेष्टायामनध्वनि। (अष्टा०२.३.१२) इति चतुर्थी (इयानः) सर्वाभीष्टाभिज्ञाता। अत्रेङ्गतावित्यस्मात्। छन्दसि लिट्। (अष्टा०३.२.१०५) इति लिट्। लिटः कानज्वा। (अष्टा०३.२.१०६) इति कानच्। (ऋणोः) प्राप्नोति। अत्र लडर्थे लङ्। बहुलं छन्दसि इत्यडभावश्च। (अक्षम्) धूः (न) इव (चक्र्योः) रथाङ्गयोः। अत्र कृञ् धातोः आदृगमहनजनः० (अष्टा०३.२.१७१) इति किप्रत्ययः॥१४॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः प्रतीपालङ्कारश्च। यथा चक्र्योर्धू रथधारिका सती परिभ्रमणेनापि स्वस्मिन्नैव स्थापनी रथस्य देशान्तरप्रापिका भवति, तथैव सकलगुणकर्मस्वभावाभिव्याप्त- स्त्वमेतत्सर्वन्नियच्छसीति॥१४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (धृष्णो) अति धृष्ट (त्मना) अपनी कुशलता से (आप्तः) सर्वविद्यायुक्त सत्य के उपदेश करने और (इयानः) राज्य को जाननेवाले राजन् ! (त्वावान्) आप से (घ) आप ही हो जो आप (चक्र्योः) रथ के पहियों की (अक्षम्) धुरी के (न) समान (स्तोतृभ्यः) स्तुति करने वालों को (आऋणोः) प्राप्त होते हो॥१४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार और प्रतीपालङ्कार हैं। जैसे पहियों की धुरी रथ को धारण करनेवाली घूमती भी अपने ही में ठहरी सी रहती है और रथ को देशान्तर में प्राप्त करनेवाली होती है, वैसे ही आप राज्य को व्याप्त होकर यथायोग्य नियम में रखते हो॥१४॥

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    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे धृष्णः अति प्रगल्भ सभाध्यक्ष ! त्मना आप्तः इयानः त्वावान् त्वं घ त्वम् एव असि यः त्वं चक्र्योः अक्षं न इव स्तोतृभ्यः स्तावकेभ्य आ ऋणोः स्तावकान् आप्नोसि इति यावत्॥१४॥

    पदार्थ

    हे (धृष्णः) अति प्रगल्भ=अति आत्मविश्वासी (सभाध्यक्ष)=सभाध्यक्ष !  (त्मना) आत्मना=अपनी कुशलता से, (आप्तः) सर्वविद्यादिसद्गुणव्याप्तः सत्योपदेष्टा=सर्वविद्यायुक्त सत्य के उपदेश करने और (इयानः) सर्वाभीष्टाभिज्ञाता= समस्त अभीष्ट को जाननेवाले (त्वावान्) त्वादृशः=आपके सदृश, (त्वम्)=आप, (घ) एव= ही, (असि)=हो, (यः)=जो, (त्वम्)=आप, (चक्र्योः) रथाङ्गयोः=रथ के पहियों की, (अक्षम्) धूः=धुरी के,  (न) इव=समान, (स्तोतृभ्यः) स्तावकेभ्यो जनेभ्यः=स्तुति करने वालों को, (आ) अभ्यर्थे=सब प्रकार से,  (ऋणोः) प्राप्नोति=प्राप्त होते हो॥१४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार और प्रतीपालङ्कार हैं। जैसे पहियों की धुरी रथ को धारण करते हुए घूमने पर भी अपने ही में ठहरी सी रहती है और रथ को भिन्न-भिन्न स्थानों  में पहुंचानेवाली  होती है, वैसे ही समस्त गुण, कर्म और स्वभाव से चारों ओर से व्याप्त तुम इसे  यथायोग्य नियम में रखते हो॥१४॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (धृष्णः) अति आत्मविश्वासी (सभाध्यक्ष) सभाध्यक्ष! (त्मना)  अपने (आप्तः)  सर्व विद्या युक्त सत्य के उपदेश करने और (इयानः) समस्त अभीष्ट को जाननेवाले (त्वावान्) आपके सदृश (त्वम्) आप (घ)  ही (असि) हो, (यः) जो (त्वम्) आप  (चक्र्योः) रथ के पहियों की (अक्षम्)  धुरी के  (न) समान (स्तोतृभ्यः) स्तुति करने वालों को, (आ)  सब प्रकार से  (ऋणोः) प्राप्त होते हो॥१४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आ) अभ्यर्थे (घ) एव (त्वावान्) त्वादृशः। अत्र वतुप्प्रकरणे युष्मदस्मद्भ्यां छन्दसि सादृश्य उपसंख्यानम्। (अष्टा०वा०५.२.३९) इति सादृश्यार्थे वतुप्। (त्मना) आत्मना। मन्त्रेष्वाङ्यादेरात्मनः। (अष्टा०६.४.१४१) इत्याकारलोपः। (आप्तः) सर्वविद्यादिसद्गुणव्याप्तः सत्योपदेष्टा (स्तोतृभ्यः) स्तावकेभ्यो जनेभ्यः। गत्यर्थकर्म्मणि द्वितीयाचतुर्थ्यौ चेष्टायामनध्वनि। (अष्टा०२.३.१२) इति चतुर्थी (इयानः) सर्वाभीष्टाभिज्ञाता। अत्रेङ्गतावित्यस्मात्। छन्दसि लिट्। (अष्टा०३.२.१०५) इति लिट्। लिटः कानज्वा। (अष्टा०३.२.१०६) इति कानच्। (ऋणोः) प्राप्नोति। अत्र लडर्थे लङ्। बहुलं छन्दसि इत्यडभावश्च। (अक्षम्) धूः (न) इव (चक्र्योः) रथाङ्गयोः। अत्र कृञ् धातोः आदृगमहनजनः० (अष्टा०३.२.१७१) इति किप्रत्ययः॥१४॥
    विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः- हे धृष्णो अति प्रगल्भ सभाध्यक्ष ! त्मनाप्त इयानस्त्वावान् त्वं घ त्वमेवासि यस्त्वं चक्र्योरक्षं न इव स्तोतृभ्यः स्तावकेभ्य आऋणोः स्तावकान् आप्नोसीति यावत्॥१४॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः प्रतीपालङ्कारश्च। यथा चक्र्योर्धू रथधारिका सती परिभ्रमणेनापि स्वस्मिन्नैव स्थापनी रथस्य देशान्तरप्रापिका भवति, तथैव सकलगुणकर्मस्वभावाभिव्याप्त- स्त्वमेतत्सर्वन्नियच्छसीति॥१४॥

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    विषय

    त्रिविध उन्नति

    पदार्थ

    १. हे (स्तोतृभ्यः धृष्णो) - स्तोताओं के लिए उनके शत्रुओं का धर्षण करनेवाले प्रभो ! जो व्यक्ति (त्वावान्) - आप - जैसा बनने का प्रयत्न करता है और (त्मना आप्तः) - आत्मतत्त्व की प्राप्ति से सब - कुछ प्राप्त मानता है , यह (इयानः) - [ईङ् गतौ] सदा गतिशील होता हुआ (घ) - निश्चय से (चक्र्योः) - [चक्रयोः] चक्रों में (अक्षं न) - अक्ष की भांति मस्तिष्क व शरीर [द्युलोक व पृथिवीलोक] के बीच में हृदय [अन्तरिक्ष] को (आ ऋणोः) - प्राप्त करता है [आ ऋणोति] । जैसे चक्र व अक्ष सब साथ - साथ चलते हैं उसी प्रकार यह स्तोता मस्तिष्क , शरीर व हृदय सबकी साथ - साथ उन्नति करता है । 

    ३. उन्नति कर वही पाता है जोकि क्रियाशील होता है [इयानः] । यह ठीक है कि यह व्यक्ति प्रभु का स्तवन करता है और प्रभु ही मार्ग में आनेवाले शत्रुओं का संहार करते हैं । स्तोताओं के लिए शत्रुधर्षण का काम प्रभु का ही है । 

    ४. स्तोता वह है जो प्रभु - जैसा बनने का प्रयत्न करता है [त्वावान्] तथा आत्मा से ही तृप्ति का अनुभव करता है , उसी से अपने को कृतकृत्य मानता है [त्मनाप्तः] । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु के स्तोता बनें , प्रभु हमारे वासनारूप शत्रुओं का संहार करेंगे और हम मस्तिष्क , शरीर व हृदय - सभी की उन्नति कर पाएंगे । 

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    विषय

    अक्ष या धुरे के दृष्टान्त से मुख्य पुरुष का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    (चक्रयोः) चक्रों के बीच लगा (अक्षं न) धुरा जिस प्रकार (इयानः) गति करता हुआ स्वयं भी चलता है और अन्यों को भी अभिलषित स्थान तक पहुंचाता है और वह स्वयं (त्मना आप्तः) अपने ही आश्रय पर स्थित रह कर दोनों चक्रों को भी सम्भालता है उसी प्रकार हे (धृष्णो) बलवन्! शत्रुओं को पराजय करने हारे! (इन्द्र) ऐश्वर्यवन्! परमेश्वर! राजन्! तू भी (त्वावान्) अपने ही समान, अपने जोड़ का अकेला, ( त्मना आप्तः ) अपने ही सामर्थ्य से अपने में स्थित होकर (स्तोतृभ्यः) विद्वान् गुण स्तुति करने वाले पुरुषों को (ऋणोः) स्वयं प्राप्त होता और उनको अभिलषित फल मोक्ष और सुख प्राप्त कराता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः ॥ देवता—१—१६ इन्द्रः । १७–१९ अश्विनौ । २०–२२ उषाः॥ छन्दः—१—१०, १२—१५, १७—२२ गायत्री। ११ पादनिचृद् गायत्री । १६ त्रिष्टुप् । द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार व प्रतीपालंकार आहेत. जशी चाकाची आरी एके ठिकाणी स्थित असल्यासारखी वाटते ती रथाला निरनिराळ्या स्थानी घेऊन जाते तसे तू (राजा) राज्य यथायोग्य नियमाने चालवतोस. ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Lord of inviolable might, yourself your own definition, omniscient, instantly comprehending all that moves, you manifest your presence to the vision of your celebrants just as the one axle of two chariot wheels (moving, caring yet unmoved).

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of that (chairman of the assembly) is? This has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (dhṛṣṇaḥ)=overconfident, (sabhādhyakṣa)=chairman of the assembly, (tmanā)=own, (āptaḥ)=to preach the truth with all knowledge, [aur]=and, (iyānaḥ)=knowing all the desired things, (tvāvān)=like you, (tvam)=you, (gha) =only, (asi)=are, (yaḥ)=that, (tvam)=you, (cakryoḥ)=of chariot wheels, (akṣam)=of the axle of wheels, (na)=like, (stotṛbhyaḥ)=to those who praise, (ā) =in all respects, (ṛṇoḥ)=attain.

    English Translation (K.K.V.)

    O Overconfident chairman of the assembly! You are like one, who preach the truth with all your knowledge and know all the desired things. Which you, attain all respects of those who praise you like the axle of the wheels of a chariot.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There are simile and pratīpa as figurative in this mantra. Just as the axle of the wheels while holding the chariot, remains fixed in itself and is supposed to take the chariot to different places, in the same way, you keep it in the law as it is pervading all around your all virtues, deeds and nature.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is that Indra is further taught in the 14th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O President of the Assembly, mighty and expert in various sciences, endowed with truth and other noble virtues, when We can indeed lay hold of one (or take shelter in one ) like you, to whom we can present our petitions, you fulfil our noble desires, knowing them well and approach your admirers as the spokes of a wheel tend to the axle.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (त्वावान्) त्वादृशः । अत्र वतुप् प्रकरणे युष्मदस्मद्भ्यां छन्दसि सादृश्य उपसंख्यानम् ( अष्टा० ५.२.३९ ) इति सादृश्यार्थे वतुप् । = Like you. (आप्तः सर्वविद्यादिसद्गुणव्याप्तः सत्योपदेष्टा । = Learned and virtuous teacher of truth. ( इयानं: ) सर्वाभीष्टाभिज्ञाता अत्र इङ् गतौ इत्यस्मात् छन्दसि लिट् ( अष्टा० ३.२.१०५ इति लिट् ) लिट् कानज् वा (अष्टा० ३.२.१०६ ) इतिकानच् । = Knower of all desires.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the axle of the spokes even while moving stays in its own limit but takes the chariot far away, in the same way, you, O President of the Assembly, firm in your noble virtues, rules and regulations, control all.

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