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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 30/ मन्त्र 17
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    आश्वि॑ना॒वश्वा॑वत्ये॒षा या॑तं॒ शवी॑रया। गोम॑द्दस्रा॒ हिर॑ण्यवत्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । अ॒श्वि॒नौ॒ । अश्व॑ऽवत्या । इ॒षा । या॒त॒म् । शवी॑रया । गोऽम॑त् । द॒स्रा॒ । हिर॑ण्यऽवत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आश्विनावश्वावत्येषा यातं शवीरया। गोमद्दस्रा हिरण्यवत्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। अश्विनौ। अश्वऽवत्या। इषा। यातम्। शवीरया। गोऽमत्। दस्रा। हिरण्यऽवत्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 30; मन्त्र » 17
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 31; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशौ स्त इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे विद्याक्रियाकुशलौ विद्वांसौ शिल्पिनौ दस्रावश्विनौ सभासेनास्वामिनौ द्यावापृथिव्याविवेषाभीष्टयाऽश्ववत्या शवीरया गत्या हिरण्यवद् गोमद् यानमायातं समन्ताद्देशान्तरं प्रापयतम्॥१७॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (अश्विनौ) यथा द्यावापृथिव्यादिकद्वन्द्वं तथा विद्याक्रियाकुशलौ (अश्वावत्या) वेगादिगुणसहितया। अत्र मन्त्रे सोमाश्वेन्द्रियविश्व० (अष्टा०६.३.१३१) अनेन पूर्वपदस्य दीर्घः। (इषाः) इष्यते यया। अत्र कृतो बहुलम् इति करणे क्विप्। (यातम्) प्रापयतम् (शवीरया) देशान्तरप्रापिकया गत्या शु गतावित्यस्माद्धातोर्बाहुलकादौणादिक ईरन् प्रत्ययः। (गोमत्) गावः सुखप्रापिका बह्व्यो विद्यन्ते यस्मिंस्तत्। गौरिति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.५) अनेन प्राप्त्यर्थो गृह्यते। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। (दस्रा) दारिद्र्योपक्षयहेतू। अत्र सुपां सुलुग्० इति आकारादेशः (हिरण्यवत्) हिरण्यं सुवर्णादिकं बहुविधं साधने यस्य तत्। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्॥१७॥

    भावार्थः

    पूर्वोक्ताभ्यामश्विभ्यां चालितं यानं शीघ्रगत्या भूमौ जलेऽन्तरिक्षे च गच्छति तस्मादेतत्सद्यः साध्यम्॥१७॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे कैसे हों, इसका अगले मन्त्र में प्रकाश किया है॥

    पदार्थ

    हे (दस्रा) दारिद्र्यविनाश करानेवाले (अश्विनौ) बिजली और पृथिवी के समान विद्या और क्रियाकुशल शिल्पी लोगो ! तुम (इषा) चाही हुई (अश्वावत्या) वेग आदि गुणयुक्त (शवीरया) देशान्तर को प्राप्त करानेवाली गति के साथ (हिरण्यवत्) जिसके सुवर्ण आदि साधन हैं और (गोमत्) जिसमें सिद्ध किये हुए धन से सुख प्राप्त करानेवाली बहुत सी क्रिया हैं, उस रथ को (आयातम्) अच्छे प्रकार देशान्तर को पहुँचाइये॥१७॥

    भावार्थ

    पूर्वोक्त अश्वि अर्थात् सूर्य्य और पृथिवी के गुणों से चलाया हुआ रथ शीघ्र गमन से भूमि, जल और अन्तरिक्ष में पदार्थों को प्राप्त करता है, इसलिये इसको शीघ्र साधना चाहिये॥१७॥

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    विषय

    फिर वे कैसे हों, इसका इस मन्त्र में प्रकाश किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे विद्याक्रियाकुशलौ विद्वांसौ शिल्पिनौ दस्रौ अवश्विनौ सभासेनास्वामिनौ द्यावापृथिवी आव इव इषा अभीष्टया अश्ववत्या शवीरया गत्या हिरण्यवत् गोमत् यानम् आयातं समन्तात् देशान्तरं प्रापयतम्॥१७॥

    पदार्थ

    हे (विद्याक्रियाकुशलौ)=विद्या और क्रिया में कुशल, (विद्वांसौ)= विद्वानों, (शिल्पिनौ)=शिल्पी लोगो ! तुम (दस्रा) दारिद्र्योपक्षयहेतू=दारिद्र्य का विनाश करानेवाले (अश्विनौ) यथा द्यावापृथिव्यादिकद्वन्द्वं तथा विद्याक्रियाकुशलौ=जैसै  द्यावा और पृथिवी आदि के द्वन्द्व हैं, वैसे ही विद्या और क्रिया में कुशल, (सभासेनास्वामिनौ)= सभा और सेना के स्वामियों, (द्यावापृथिवी)=द्यावा और पृथिवी,  (आव) सर्वतो रक्ष=हर ओर से रक्षा करें, (इव)=जैसे, (इषाः) इष्यते यया=चाही हुई, (अश्वावत्या) वेगादिगुणसहितया=वेग आदि गुण से युक्त, (शवीरया) देशान्तरप्रापिकया गत्या=देशान्तर करते हुए जाकर, (हिरण्यवत्) हिरण्यं सुवर्णादिकं बहुविधं साधने यस्य तत्=जिसके सुवर्ण आदि अनेक प्रकार के साधन हैं, उसकी (गोमत्) गावः सुखप्रापिका बह्व्यो विद्यन्ते यस्मिंस्तत्=जिसमें सुख प्राप्त करानेवाली बहुत  सी गायें हैं, उसके (यानम्)=रथ को, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (यातम्) प्रापयतम्=प्राप्त करके,  (समन्तात्)=हर ओर, (देशान्तरम्)=देशान्तर, (प्रापयतम्) करके पहुँचाइये॥१७॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    पूर्व में कहे गए वेग आदि गुण के द्वारा चलाया हुआ रथ शीघ्र गमन से भूमि, जल और अन्तरिक्ष में जाता है, इसलिये इसकी विद्या शीघ्र सिद्ध करना चाहिये॥१७॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (विद्याक्रियाकुशलौ) विद्या और क्रिया में कुशल (विद्वांसौ) विद्वानों, [और] (शिल्पिनौ) शिल्पी लोगो ! [तुम] (दस्रा) दारिद्र्य का विनाश करानेवाले (अश्विनौ) जैसै  द्यावा और पृथिवी आदि के द्वन्द्व हैं, वैसे ही विद्या और क्रिया में कुशल, (सभासेनास्वामिनौ) सभा और सेना के स्वामियों। (द्यावापृथिवी)=द्यावा और पृथिवी  (आव) हर ओर से रक्षा करें। (इव) जैसे (इषाः) चाही हुई, (अश्वावत्या) वेग आदि गुण से युक्त (शवीरया) देशान्तर करते हुए जाकर (हिरण्यवत्) जिसके सुवर्ण आदि अनेक प्रकार के साधन हैं, [उसकी] (गोमत्) सुख प्राप्त करानेवाली बहुत  सी गायें हैं, [उसके] (यानम्) रथ को (आ) हर ओर से (यातम्) प्राप्त करके  (समन्तात्) हर ओर (देशान्तरम्) विभन्न स्थानों को (प्रापयतम्) पहुँचाइये॥१७॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आ) समन्तात् (अश्विनौ) यथा द्यावापृथिव्यादिकद्वन्द्वं तथा विद्याक्रियाकुशलौ (अश्वावत्या) वेगादिगुणसहितया। अत्र मन्त्रे सोमाश्वेन्द्रियविश्व० (अष्टा०६.३.१३१) अनेन पूर्वपदस्य दीर्घः। (इषाः) इष्यते यया। अत्र कृतो बहुलम् इति करणे क्विप्। (यातम्) प्रापयतम् (शवीरया) देशान्तरप्रापिकया गत्या शु गतावित्यस्माद्धातोर्बाहुलकादौणादिक ईरन् प्रत्ययः। (गोमत्) गावः सुखप्रापिका बह्व्यो विद्यन्ते यस्मिंस्तत्। गौरिति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.५) अनेन प्राप्त्यर्थो गृह्यते। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। (दस्रा) दारिद्र्योपक्षयहेतू। अत्र सुपां सुलुग्० इति आकारादेशः (हिरण्यवत्) हिरण्यं सुवर्णादिकं बहुविधं साधने यस्य तत्। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्॥१७॥
    विषयः- पुनस्तौ कीदृशौ स्त इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः- हे विद्याक्रियाकुशलौ विद्वांसौ शिल्पिनौ दस्रावश्विनौ सभासेनास्वामिनौ द्यावापृथिव्याविवेषाभीष्टयाऽश्ववत्या शवीरया गत्या हिरण्यवद् गोमद् यानमायातं समन्ताद्देशान्तरं प्रापयतम्॥१७॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- पूर्वोक्ताभ्यामश्विभ्यां चालितं यानं शीघ्रगत्या भूमौ जलेऽन्तरिक्षे च गच्छति तस्मादेतत्सद्यः साध्यम्॥१७॥

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    विषय

    'अश्वावती शवीरा इष'

    पदार्थ

    १. हे (आश्विनौ) - प्राणापानो ! आप (अश्वावत्या) उत्तम इन्द्रियरूप अश्वोंवाली , (शवीरया) - [शव गतौ] प्रकृष्ट गतिवाली (इषा) - प्रेरणा के साथ (आयातम्) - हमें प्राप्त होओ , अर्थात् प्राणापान की साधना से हमारी इन्द्रियाँ निर्दोष हों , हमारे जीवन में आलस्य - शून्यता होकर प्रकृष्ट गति का संचार हो । हमें सदा प्रभु की प्रेरणा प्राप्त होती रहे । प्राणसाधना के अभाव में इन्द्रियों की मलिनता बढ़ती है , तमोगुण की वृद्धि के साथ आलस्य भी अधिक आ जाता है , प्रभु - प्रेरणा के सुनने का प्रश्न ही नहीं रहता । 

    २. हे (दस्रा) - सब बुराइयों का क्षय करनेवाले [दसु क्षये] प्राणापानौ! आपकी कृपा से हमारा जीवन (गोमत्) - प्रशस्त इन्द्रियोंवाला हो [गमयन्ति अर्थान् इति गावः] तथा (हिरण्यवत्) - ज्योतिर्मय हो । प्राणों की साधना से बुद्धि की तीव्रता होकर हमारी ज्ञानज्योति चमक उठती है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना का लाभ यह है कि 

    [क] इन्द्रियाँ प्रशस्त बनती हैं , 

    [ख] जीवन में क्रियाशीलता आती है , 

    [ग] प्रभु - प्रेरणा प्राप्त होती है , 

    [घ] ज्ञानेन्द्रियों उत्तम होकर ज्ञान की ज्योति बढ़ती है । 

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    विषय

    अश्वावती शवीरा का रहस्य । सेना द्वारा शत्रु पर आक्रमण ।

    भावार्थ

    हे (अश्विनौ) सूर्य और पृथिवी, आकाश और पृथिवी, दिन रात्रि और शरीर में प्राण और अपान के समान राष्ट्र में व्यापक शक्ति और अधिकार वाले! (दस्रौ) राष्ट्र के दुःखों और दरिद्रता आदि दोषों के नाश करने वाले आप दोनों (अश्वावत्या) अश्वों वाली, अश्वारोहियों से बनी, (शवीरया) सैकड़ों वीर पुरुषों से पूर्ण, (इषा) इच्छानुकूल प्रेरित सेना से (आ यातम्) सर्वत्र प्रयाण करो, जिससे हमारा राष्ट्र (गोमत्) गवादि पशु और उत्तम भूमि वाला और (हिरण्यवत्) सुवर्ण आदि धनों से समृद्ध हो। अथवा—तुम दोनों (इषा शवीरया यातम्) इच्छानुकूल गति से जाओ। (गोमद् हिरण्यवत्) बैलों से जुते और सोने के बने यान को प्राप्त करो।

    टिप्पणी

    'शवीरया'—'शु गतौ' इत्यस्मात् बाहुलकात् उणादिरीरन् प्रत्ययः अथवा—शवसा बलेन ईर्यते प्रेरयते तया। अथवा शतं वीरा अस्याम् इति तकाराकारलोपश्च्छान्दसः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः ॥ देवता—१—१६ इन्द्रः । १७–१९ अश्विनौ । २०–२२ उषाः॥ छन्दः—१—१०, १२—१५, १७—२२ गायत्री। ११ पादनिचृद् गायत्री । १६ त्रिष्टुप् । द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पूर्वोक्त अश्वि अर्थात सूर्य व पृथ्वीच्या गुणांनी चालविला जाणारा रथ तात्काळ गमन करून भूमी, जल व अंतरिक्षातील पदार्थ प्राप्त करतो. त्यासाठी तो त्वरित तयार केला पाहिजे. ॥ १७ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Ashvins, scientist and technologist of eminence, president and commander, moving like the earth and light, create the chariot with golden materials and earthly comfortable provisions and take us to distant places at the wanted speed with chosen acceleration and reach distant places for our goals.

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    Subject of the mantra

    Then, how those chairpersons are? This subject has been elucidated in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (vidvāṃsau)=skillful in learning and action, [aura]=and, (śilpinau)=craftsmwn, [tuma]=you, (dasrā)=destroyer of poverty, (aśvinau)= Just as there are duel between heaven and earth, so are they skilled in learning and action, (sabhāsenāsvāminau)=The lords of the assembly and the army. (dyāvāpṛthivī)=heaven and earth, (āva)=protect from all sides (iva)=just as, (iṣāḥ)=desired, (aśvāvatyā)=speedy, (śavīrayā)=while traveling (hiraṇyavat)=who has many types of means as gold etc., [usakī]=his, (gomat)=There are many cows that bring happiness, [usake]=his, (yānam)=to the chariot, (ā)=from all side, (yātam)=by receiving, (samantāt)=from all sides, (deśāntaram)=to different places, (prāpayatam)=deliver.

    English Translation (K.K.V.)

    O Scholars and craftsmen skilled in learning and action! You are the destroyer of poverty. As are the duel of heaven and the earth etc., so are the masters of the assembly and the army, skilled in learning and action! Let the heaven and the earth protect from all sides. As desired, while traveling to different places with the qualities of velocity etc., which has means of many types like gold et cetera. He has many cows, who bring happiness for him. Take his chariot from all sides and take him to different places everywhere.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    A chariot driven by the qualities of velocity etc., as said earlier, moves quickly in land, water and space, so its knowledge should be accomplished soon.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are the Ashvinau is taught in the seventeenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    o learned persons, experts in knowledge and action, O great artists, O dispellers of poverty, the president of the Assembly and commander of army, you who are like the heaven and the earth, come to us speedily with the vehicles full of gold and activities, giving happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( अश्विनौ ) यथा द्यावापृथिव्यादिकद्वन्द्वं तथा विद्याक्रियाकुशलौ । = As there is the pair of the heaven and the carth, so experts in knowledge and action. ( अश्वावत्या ) वेगादिगुणसहितया अत्र मन्त्रे सोमाश्वेन्द्रिय विश्वे (अष्टा० ६.३.१३१) इति दीर्घः । = Endowed with speed. ( शवीरया ) देशान्तरमापिकया गत्या शु-गतौ इत्यस्माद् ; धातोर्बाहुलकादीरन् प्रत्ययः = Speed that conveys to distant places. (गोमत्) गाव:- सुखप्रापिका बह्रयो विद्यन्ते यस्मिन् तत् गौरिति पदनामसु पठितम् ( निघ० ५.५ ) अनेन प्राप्त्यर्थो गृह्यते । = Full of many activities leading to happiness. ( दस्रा) दारिद्रयोपक्षयहेतू अत्र सुपां सुलुक् इति आकारादेशः । = Dispellers of poverty.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A car or conveyance manufactured and driven by Ashvinau great artists and scientists can travel on the earth, the water and the sky. Therefore such a conveyance should be accomplished soon.

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