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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 30/ मन्त्र 8
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ घा॑ गम॒द्यदि॒ श्रव॑त्सह॒स्रिणी॑भिरू॒तिभिः॑। वाजे॑भि॒रुप॑ नो॒ हव॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । घ॒ । ग॒म॒त् । यदि॑ । श्रव॑त् । स॒ह॒स्रिणी॑भिः । ऊ॒तिऽभिः॑ । वाजे॑भिः । उप॑ । नः॒ । हव॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ घा गमद्यदि श्रवत्सहस्रिणीभिरूतिभिः। वाजेभिरुप नो हवम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। घ। गमत्। यदि। श्रवत्। सहस्रिणीभिः। ऊतिऽभिः। वाजेभिः। उप। नः। हवम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 30; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    स केन सहागच्छदित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    यदि स इन्द्रः सभासेनाध्यक्षो नोऽस्माकमाहवमाह्वानं श्रवत् शृणुयात्तर्हि सद्य स एव सहस्रिणीभिरूतिभिर्वाजेभिः सह नोऽस्माकं हवमाह्वानमुपागमदुपागच्छेत्॥८॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (घ) एव। ऋचि तुनुघ० इति दीर्घः। (गमत्) प्राप्नुयात्। अत्र लिङर्थे लुङडभावश्च। (यदि) चेत् (श्रवत्) शृणुयात्। अत्र श्रुधातोर्लेट् बहुलं छन्दसि इति श्नोर्लुक्। (सहस्रिणीभिः) सहस्राणि प्रशस्तानि पदार्थप्रापणानि विद्यन्ते यासु ताभिः। अत्र प्रशंसार्थ इनिः। (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः सह (वाजेभिः) अन्नज्ञानयुद्धादिभिः सह। अत्र बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस् न (उप) सामीप्ये (नः) अस्माकम् (हवम्) प्रार्थनादिकं कर्म॥८॥

    भावार्थः

    यत्र मनुष्यैः सत्यभावेन यस्य सभासेनाध्यक्षस्य सेवनं क्रियते, तत्र संरक्षणाय ससेनाङ्गै रत्नादिभिस्सह तानुपतिष्ठते नैतस्य सहायेन विना कस्यचित्सत्यौ सुखविजयौ सम्भवत इति॥८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    वह किसके साथ प्राप्त हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    (यदि) जो वह सभा वा सेना का स्वामी (नः) हम लोगों की (आ) (हवम्) प्रार्थना को (श्रवत्) श्रवण करे (घ) वही (सहस्रिणीभिः) हजारों प्रशंसनीय पदार्थ प्राप्त होते हैं जिनमें, उन (ऊतिभिः) रक्षा आदि व्यवहार वा (वाजेभिः) अन्न ज्ञान और युद्धनिमित्तक विजय के साथ प्रार्थना को (उपागमत्) अच्छे प्रकार प्राप्त हो॥८॥

    भावार्थ

    जहाँ मनुष्य सभा वा सेना के स्वामी का सेवन करते हैं, वहाँ वह सभाध्यक्ष अपनी सेना के अङ्ग वा अन्नादि पदार्थों के साथ उनके समीप स्थिर होता है। इस की सहायता के विना किसी को सत्य-सत्य सुख वा विजय नहीं होते हैं॥८॥

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    विषय

    वह किसके साथ प्राप्त हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यदि स इन्द्रः सभासेनाध्यक्षः नःअस्माकम् आ हवम् आह्वानं श्रवत् शृणुयात्त तर्हि सद्यः स एव सहस्रिणीभिः ऊतिभिः वाजेभिः सह नःअस्माकं हवम् आह्वानम् उप आ गमत् उप आगच्छेत्॥८॥

    पदार्थ

    (यदि) चेत्=यदि, (सः)=वह, (इन्द्रः)=सभा वा सेना का स्वामी, (नः) अस्माकम्=हमारे लिये, (आ) समन्तात्=हर ओर से,  (हवम्) प्रार्थनादिकं कर्म=प्रार्थना आदि कर्म के, (आह्वानम्)=आह्वान के लिये, (श्रवत्) शृणुयात्= श्रवण करें, (तर्हि)=तो, (सद्यः)=आज ही, (सः)=वह, (एव)=ही, (सहस्रिणीभिः) सहस्राणि प्रशस्तानि पदार्थप्रापणानि विद्यन्ते यासु ताभिः=हजारों प्रशंसनीय पदार्थ प्राप्त होते हैं जिनमें, उन,  (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः सह=रक्षा आदि व्यवहार के साथ, (वाजेभिः) अन्नज्ञानयुद्धादिभिः सह=अन्न ज्ञान और युद्ध के साधनरूप विजय के लिये प्रार्थना के, (सह)=साथ, (नः) अस्माकम्=हमारे, (हवम्) प्रार्थनादिकं कर्म=प्रार्थना आदि कर्म के, (आह्वानम्) = आह्वान के लिये, (उप) सामीप्ये=निकटता से, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (गमत्) प्राप्नुयात्=प्राप्त हों॥८॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जहाँ मनुष्य सत्य भाव से जिस सभा या सेना के स्वामी की सेवा करते हैं, वहाँ वह सभाध्यक्ष अपनी सेना के अङ्ग और रत्न आदि के साथ रक्षा के लिए उनके समीप स्थित रहता है, इस की सहायता के विना किसी को सत्य, सुख और विजय सम्भव नहीं होते हैं॥८॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यदि)  यदि (सः) वह (इन्द्रः) सभा या सेना का स्वामी  (नः) हमारे लिये (आ)  हर ओर से  (हवम्)  प्रार्थना आदि कर्म के (आह्वानम्) आह्वान के लिये (श्रवत्)  श्रवण करे (तर्हि) तो (सद्यः) आज ही (सः) वह (एव) ही (सहस्रिणीभिः)  हजारों प्रशंसनीय पदार्थ प्राप्त होते हैं जिनमें, उन  (ऊतिभिः)  रक्षा आदि व्यवहार, (वाजेभिः) अन्न ज्ञान और युद्ध के साधनरूप विजय के लिये प्रार्थना के (सह) साथ (उप) निकटता से (आ) हर ओर से (गमत्) प्राप्त हों॥८॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आ) समन्तात् (घ) एव। ऋचि तुनुघ० इति दीर्घः। (गमत्) प्राप्नुयात्। अत्र लिङर्थे लुङडभावश्च। (यदि) चेत् (श्रवत्) शृणुयात्। अत्र श्रुधातोर्लेट् बहुलं छन्दसि इति श्नोर्लुक्। (सहस्रिणीभिः) सहस्राणि प्रशस्तानि पदार्थप्रापणानि विद्यन्ते यासु ताभिः। अत्र प्रशंसार्थ इनिः। (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः सह (वाजेभिः) अन्नज्ञानयुद्धादिभिः सह। अत्र बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस् न (उप) सामीप्ये (नः) अस्माकम् (हवम्) प्रार्थनादिकं कर्म॥८॥
    विषयः- स केन सहागच्छदित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः- यदि स इन्द्रः सभासेनाध्यक्षो नोऽस्माकमाहवमाह्वानं श्रवत् शृणुयात्तर्हि सद्य स एव सहस्रिणीभिरूतिभिर्वाजेभिः सह नोऽस्माकं हवमाह्वानमुपागमदुपागच्छेत्॥८॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- यत्र मनुष्यैः सत्यभावेन यस्य सभासेनाध्यक्षस्य सेवनं क्रियते, तत्र संरक्षणाय ससेनाङ्गै रत्नादिभिस्सह तानुपतिष्ठते नैतस्य सहायेन विना कस्यचित्सत्यौ सुखविजयौ सम्भवत इति॥८॥

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    विषय

    रक्षण व शक्ति की प्राप्ति

    पदार्थ

    १. यदि (श्रवत्) - यदि प्रभु हमारी पुकार को सुनते हैं , अर्थात् यदि हमारी प्रवृत्ति प्रभु - प्रार्थनाप्रवण होती है तो वे प्रभु (सहस्रिणीभिः ऊतिभिः) - हजारों रक्षणों के साथ तथा (वाजेभिः) - रक्षण योग्य बनानेवाली शक्तियों के साथ (नः) - हमारी (हवम्) - पुकार के (उप) - समीप (घा) - निश्चय से (आगमत्) - आते हैं । प्रभु के रक्षण में कमी नहीं है , हमारी प्रार्थना में ही कमी है । प्रभु हमारी प्रार्थना न सुनें सो बात नहीं , हम प्रार्थना - प्रवण होते ही नहीं । प्रभु के रक्षण के प्रकार तो हजारों हैं । विविध घटनाओं से हमारा रक्षण प्रभु द्वारा हो रहा है । 

    ३. प्रभु मुख्य रूप से शक्ति देकर ही हमारा रक्षण करते हैं [वाजेभिः] । प्रभु शक्ति देते हैं , उस शक्ति का प्रयोग हमें स्वयं करना होता है । इसी से जीवों की योग्यता बढ़ती है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रार्थना करें , प्रभु अवश्य सुनते हैं और शतशः प्रकारों से हमारा रक्षण करते हैं । वे प्रभु शक्तियों के देनेवाले हैं । 

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    विषय

    संग्रामार्थ सेनापति की प्रधान पद पर प्रतिष्ठा ।

    भावार्थ

    (यदि) यदि वह परमेश्वर या सेनापति (नः) हमारे (हवम्) स्तुति-वचनों और बुलावे को (उप श्रवत्) सुन ले, तब अवश्य ही वह (सहस्रिणीभिः) सहस्रों पुरुषों से बनी, या सहस्रों ऐश्वर्यों के देनेवाली सेना रूप (ऊतिभिः) रक्षाओं और (वाजेभिः) अन्न, ज्ञान, उपाय, युद्धादि सामग्री और अश्वकादि वेगवान् साधनों से (आ गमद् घ) निश्चय से आजावे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः ॥ देवता—१—१६ इन्द्रः । १७–१९ अश्विनौ । २०–२२ उषाः॥ छन्दः—१—१०, १२—१५, १७—२२ गायत्री। ११ पादनिचृद् गायत्री । १६ त्रिष्टुप् । द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसे जिथे सभा सेनाध्यक्ष यांचा स्वीकार करतात तिथे तो संरक्षणासाठी सेनेच्या सर्व अंगांगांसह व अन्न इत्यादी पदार्थांसह उपस्थित असतो. त्याच्या साह्याखेरीज कुणालाही खरे सुख व विजय मिळू शकत नाही. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    If Indra hears our call, let Him come, we pray, with a thousand ways of protection and progress of prosperity and well-being.

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    Subject of the mantra

    Then, with whom he should be obtained, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yadi)=If (saḥ)=that, (indraḥ)=lord of the assembly or Army, (naḥ)=for us, (ā)=from every side, (havam)= of prayer etc. deeds, (āhvānam)=to invoke, (śravat)=must listen, (tarhi)=then, (sadyaḥ)=today itself, (saḥ)=that,(eva)=only, (sahasriṇībhiḥ)=Thousands of admirable substances are obtained in which, those (ūtibhiḥ)= defense, etc. practices, (vājebhiḥ) of prayer for food, knowledge and victory as a means of war, (saha)=with, (upa)=by proximity, (ā)=from all sides, (gamat)=get obtained.

    English Translation (K.K.V.)

    If that head of the assembly or army, listens for us from all sides for the call of prayer etc., then those thousands of praiseworthy items are received today itself. Those protections etc., with food, knowledge and prayer for victory as a means of war are closely obtained from all sides.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Where human beings serve the head of the assembly or army with true spirit, that chairman, along with his army's parts and gems, etc., is situated near him for protection. Without its help, truth, happiness and victory are not possible for anyone.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    With whom may Indra approach us is taught in the 8th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    If Indra (The President of the Assembly or the Commander of the army) listens to our call or prayer, he may come immediately with protection accompanied by innumerable good articles, wisdom and food.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (घ) एव, ऋचि तुनुघ इति दीर्घः = Only ( सहस्रणीभिः ) सहस्राणि प्रशस्तानि पदार्थप्रापणानि विद्यन्ते यासु ताभिः । अत्र प्रशंसार्थ इनिः । = Protection with a thousands of good articles. ( वाजेभिः) अन्नज्ञानयुद्धादिभिः सह = With food, wisdom and battles etc.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Where men earnestly serve the President of the Assembly or the commander of an army, he comes to them for their protection with the various parts or components of the army and with gems and jewels. Without his help, it is not possible for any one to get true happiness and victory.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda has interpreted वाजेभिः as अन्नज्ञानयुद्धादिभि: for which meanings we may quote वाज इति अन्ननाम (२. ७ ) वाजेभिः अने: (निरुक्ते० ११.२६) वाज इति बलनाम ( निघ० २.९ ) The word वाज is derived from वज-गतौ गतेस्त्रयोऽर्था: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च । Here Rishi Dayananda has taken the first meaning of ज्ञान knowledge or wisdom. Spiritually, the Mantra is applicable to God also, Who helps us immediately with His innumerable, ways of protection and with 'wisdom when we approach Him sincerely and earnestly.

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