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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 30/ मन्त्र 13
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    रे॒वती॑र्नः सध॒माद॒ इन्द्रे॑ सन्तु तु॒विवा॑जाः। क्षु॒मन्तो॒ याभि॒र्मदे॑म॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रे॒वतीः॑ । नः॒ । स॒ध॒ऽमादे॑ । इन्द्रे॑ । स॒न्तु॒ । तु॒विऽवा॑जाः । क्षु॒ऽमन्तः॑ । याभिः॑ । मदे॑म ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रेवतीर्नः सधमाद इन्द्रे सन्तु तुविवाजाः। क्षुमन्तो याभिर्मदेम॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रेवतीः। नः। सधऽमादे। इन्द्रे। सन्तु। तुविऽवाजाः। क्षुऽमन्तः। याभिः। मदेम॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 30; मन्त्र » 13
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तस्मिन्किं किं स्थापयित्वा सर्वैः सुखयितव्यमित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    यथा क्षुमन्तो वयं याभिः प्रजाभिः सधमादे मदेम तुविवाजा रेवतीः रेवत्यः प्रजा इन्द्रे परमैश्वर्ये नियुक्ताः सन्तु॥१३॥

    पदार्थः

    (रेवतीः) रयिः शोभा धनं प्रशस्तं विद्यते यासु ताः (प्रजाः)। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। रयेर्मतौ बहुलम्। (अष्टा०वा०६.१.३७) अनेन सम्प्रसारणम्। छन्दसीर इति मस्य वत्वम्। सुपां सुलुग्० इति पूर्वसवर्णादेशश्च। (नः) अस्माकम् (सधमादे) मादेनानन्देन सह वर्त्तमाने। अत्र सधमादस्थयोश्छन्दसि। (अष्टा०६.३.९६) इति सहस्य सधादेशः। (इन्द्रे) परमैश्वर्ये (सन्तु) भवन्तु (तुविवाजाः) तुवि बहुविधो वाजो विद्याबोधो यासां ताः (क्षुमन्तः) बहुविधं क्ष्वन्नं विद्यते येषां ते। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। क्ष्वित्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (याभिः) प्रजाभिः (मदेम) आनन्दं प्राप्नुयाम॥१३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः ससभासेनाध्यक्षेषु सभासत्सु सर्वाणि राज्यविद्याधर्मप्रचारकराणि कार्य्याणि संस्थाप्य प्रशस्तं सुखं भोज्यं भोजयतिव्यं च वेदाज्ञया समानविद्यारूपस्वभावानां युवावस्थानां स्त्रीपुरुषाणां परस्परानुमत्या स्वयंवरो विवाहो भवितुं योग्यस्ते खलु गृहकृत्ये परस्परसत्कारे नित्यं प्रयतेरन् सर्व एते परमेश्वरस्योपासने तदाज्ञायां सत्पुरुषसभाज्ञायां च सदा वर्त्तेरन् नैतद्भिन्ने व्यवहारे कदाचित् केनचित्पुरुषेण कयाचित् स्त्रिया च क्षणमपि स्थातुं योग्यमस्तीति॥१३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    उसमें क्या-क्या स्थापन करके सब मनुष्यों को सुखयुक्त होना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    (क्षुमन्तः) जिनके अनेक प्रकार के अन्न विद्यमान हैं, वे हम लोग (याभिः) जिन प्रजाओं के साथ (सधमादे) आनन्दयुक्त एक स्थान में जैसे आनन्दित होवें, वैसे (तुविवाजाः) बहुत प्रकार के विद्याबोधवाली (रेवतीः) जिनके प्रशंसनीय धन हैं, वे प्रजा (इन्द्रे) परमैश्वर्य के निमित्त (सन्तु) हों॥१३॥

    भावार्थ

    यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को सभाध्यक्ष सेनाध्यक्ष सहित सभाओं में सब राज्य विद्या और धर्म के प्रचार करनेवाले कार्य स्थापन करके सब सुख भोगना वा भोगाना चाहिये और वेद की आज्ञा से एक से रूप स्वभाव और एकसी विद्या तथा युवा अवस्थावाले स्त्री और पुरुषों की परस्पर इच्छा से स्वयंवर विधान से विवाह होने योग्य हैं और वे अपने घर के कामों में तथा एक-दूसरे के सत्कार में नित्य यत्न करें और वे ईश्वर की उपासना वा उस की आज्ञा तथा सत्पुरुषों की आज्ञा में सदा चित्त देवें, किन्तु उक्त व्यवहार से विरुद्ध व्यवहार में कभी किसी पुरुष वा स्त्री को क्षणभर भी रहना न चाहिये॥१३॥

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    विषय

    उसमें क्या-क्या स्थापन करके सब मनुष्यों को सुखयुक्त होना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यथा क्षुमन्तः वयं याभिः प्रजाभिः सधमादे मदेम तुविवाजा रेवतीः रेवत्यः प्रजा इन्द्रे परमैश्वर्ये नियुक्ताः सन्तु॥१३॥ 

    पदार्थ

    (यथा) येन प्रकारेण=जिस प्रकार से, (क्षुमन्तः) बहुविधं क्ष्वन्नं विद्यते येषां ते=जिनके अनेक प्रकार के अन्न विद्यमान हैं, वे (वयम्)=हम लोग,  (याभिः) प्रजाभिः=जिन प्रजाओं के साथ, (सधमादे) मादेनानन्देन सह वर्त्तमाने=आनन्दयुक्त एक स्थान में जैसे आनन्दित होवें, वैसे  (मदेम) आनन्दं प्राप्नुयाम=आनन्द प्राप्त करें,  (तुविवाजाः) तुवि बहुविधो वाजो विद्याबोधो यासां ताः=बहुत प्रकार के विद्याबोधवाली,  (रेवतीः) रयिः शोभा धनं प्रशस्तं विद्यते यासु ताः=जिनके प्रशंसनीय धन हैं (प्रजाः)=वे प्रजायें, (इन्द्रे) परमैश्वर्ये=परमैश्वर्य के निमित्त, (नियुक्ताः)=नियुक्त, (सन्तु) भवन्तु =होवें॥१३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को सभाध्यक्ष सेनाध्यक्ष सहित सभाओं में सब राज्य विद्या और धर्म के प्रचार करनेवाले कार्य स्थापित करके अतिश्रेष्ठ सुख भोग करके अन्यों को भोग करवाना चाहिये और वेद की आज्ञा से एक से समान विद्यारूपी स्वभाव के और युवा अवस्थावाले स्त्री और पुरुषों की परस्पर अनुमति से स्वयंवर विवाह होने योग्य निश्चय ही  घर के कामों में सदा यत्न करना चाहिए। इससे भिन्न व्यवहार से कभी किसी पुरुष द्वारा और  किसी स्त्री द्वारा क्षण के लिए भी निर्भर रहने योग्य नहीं है ॥१३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यथा) जिस प्रकार से (क्षुमन्तः) जिनके अनेक प्रकार के अन्न विद्यमान हैं, वे (वयम्) हम लोग  (याभिः) जिन प्रजाओं [सन्तानों] के साथ (सधमादे) आनन्दयुक्त एक स्थान में जैसे आनन्दित होवें, वैसे ही (मदेम) आनन्द प्राप्त करें  (तुविवाजाः) बहुत प्रकार के विद्या बोध वाली  (रेवतीः) जिनके प्रशंसनीय धन हैं (प्रजाः) वे प्रजायें [सन्तानें]  (इन्द्रे) परमैश्वर्य के निमित्त (नियुक्ताः) नियुक्त (सन्तु) होवें॥१३॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (रेवतीः) रयिः शोभा धनं प्रशस्तं विद्यते यासु ताः (प्रजाः)। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। रयेर्मतौ बहुलम्। (अष्टा०वा०६.१.३७) अनेन सम्प्रसारणम्। छन्दसीर इति मस्य वत्वम्। सुपां सुलुग्० इति पूर्वसवर्णादेशश्च। (नः) अस्माकम् (सधमादे) मादेनानन्देन सह वर्त्तमाने। अत्र सधमादस्थयोश्छन्दसि। (अष्टा०६.३.९६) इति सहस्य सधादेशः। (इन्द्रे) परमैश्वर्ये (सन्तु) भवन्तु (तुविवाजाः) तुवि बहुविधो वाजो विद्याबोधो यासां ताः (क्षुमन्तः) बहुविधं क्ष्वन्नं विद्यते येषां ते। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। क्ष्वित्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (याभिः) प्रजाभिः (मदेम) आनन्दं प्राप्नुयाम॥१३॥
    विषयः- तस्मिन्किं किं स्थापयित्वा सर्वैः सुखयितव्यमित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः-यथा क्षुमन्तो वयं याभिः प्रजाभिः सधमादे मदेम तुविवाजा रेवतीः रेवत्यः प्रजा इन्द्रे परमैश्वर्ये नियुक्ताः सन्तु॥१३॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः ससभासेनाध्यक्षेषु सभासत्सु सर्वाणि राज्यविद्याधर्मप्रचारकराणि कार्य्याणि संस्थाप्य प्रशस्तं सुखं भोज्यं भोजयतिव्यं च वेदाज्ञया समानविद्यारूपस्वभावानां युवावस्थानां स्त्रीपुरुषाणां परस्परानुमत्या स्वयंवरो विवाहो भवितुं योग्यस्ते खलु गृहकृत्ये परस्परसत्कारे नित्यं प्रयतेरन् सर्व एते परमेश्वरस्योपासने तदाज्ञायां सत्पुरुषसभाज्ञायां च सदा वर्त्तेरन् नैतद्भिन्ने व्यवहारे कदाचित् केनचित्पुरुषेण कयाचित् स्त्रिया च क्षणमपि स्थातुं योग्यमस्तीति ॥१३॥

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    विषय

    सधमाद अन्न व धन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार (इन्द्रे) - उस प्रभु के हमारे होने पर , जब प्रभु की ही कामना करेंगे और प्रभु को अपनाएँगे तब (रेवतीः) - प्रशस्त धनोंवाले (तुविवाजः) - प्रभूत अन्न (नः) - हमारे (सन्तु) - हों , जो अन्न कि (सधमादः) - साथ मिलकर हमें आनन्द देनेवाले हों , अर्थात् जिन अन्नों व धनों को हम स्वयं ही सारा - का - सारा खा न जाएँ , औरों के साथ बाँटकर ही उसका उपभोग करें । 

    २. ये अन्न (क्षुमन्तः) - भूखवाले हों अर्थात् इन अन्नों का हम इस रूप में सेवन करें कि इनके अतियोग से हमारी भूख ही न समाप्त हो जाए । ये अन्न ऐसे हों कि (याभिः) - जिनसे नीरोग रहते हुए हम (मदेम) - हर्ष का अनुभव करें । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - प्रवण व्यक्ति को वे अन्न व धन प्राप्त होते हैं जिनका वह औरों के साथ मिलकर उपभोग करता है और जो अन्न व धन उसे अपने में आसक्त कर अतियोग से रुग्ण नहीं कर देते , परिणामतः उनसे वह आनन्द को ही प्राप्त करता है । 

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    विषय

    प्रजाओं की आशाएं ।

    भावार्थ

    (क्षुमन्तः) अन्न आदि भोग्य पदार्थों से समृद्धिमान् होकर हम (याभिः) जिन प्रजाओं से और जिन सहधर्मचारिणी स्त्रियों के साथ (मदेम) तृप्त, सन्तुष्ट, पूर्ण सफल हो सकें वे (तुविवाजाः) अति ऐश्वर्य और अन्नों से युक्त होकर (रेवतीः) धनैश्वर्य वाली स्त्रियें (इन्द्रम्) ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र में, या राजा के या परमेश्वर के आश्रय रहकर (नः) हमारे (सधमादः) साथ सुख और आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करने वाली (सन्तु) हों। परमेश्वर के विश्वास और उत्तम राजा के उत्तम राज्य में, उत्तम स्त्रियों सहित हम ऐश्वर्यवान् होकर सुख से रहे, मनोऽनुकूल स्त्रियें और प्रजाएं प्राप्त हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः ॥ देवता—१—१६ इन्द्रः । १७–१९ अश्विनौ । २०–२२ उषाः॥ छन्दः—१—१०, १२—१५, १७—२२ गायत्री। ११ पादनिचृद् गायत्री । १६ त्रिष्टुप् । द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    येथे वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी सभाध्यक्ष सेनाध्यक्षासहित सभेमध्ये सर्व राज्य विद्या व धर्माचा प्रचार करणारे कार्य करून सर्व सुख भोगावे व भोगवावे. वेदाच्या आज्ञेप्रमाणे एकसारखे रूप, स्वभाव, विद्या असणाऱ्या तरुण स्त्री-पुरुषांनी परस्पर इच्छेने स्वयंवर विधान करून विवाह करणे योग्य आहे. त्यांनी आपल्या घराच्या कामात साह्य करून एकमेकांचा सत्कार करण्याचा प्रयत्न करावा. ईश्वराची उपासना व आज्ञा पाळण्यात तसेच सत्पुरुषांच्या आज्ञा पाळण्यात तत्पर असावे. वरील व्यवहाराविरुद्ध कोणत्याही स्त्री-पुरुषाने कधी वागू नये. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May our people, wives and children be rich in wealth, knowledge and grace of culture, so that we, abundant and prosperous, may rejoice with them and live with them in happy homes in a state of honour and glory.

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    Subject of the mantra

    All men should be happy after establishing what in that (assembly), this has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yathā)=Just as, (kṣumantaḥ)=those who have many kinds of food, [ve]=they, (vayam)=we, (yābhiḥ)=the descendants with, (sadhamāde) =as the people rejoice in a place of joy with whom children, so, (madema)=have pleasure, (tuvivājāḥ)=making to understand knowkedge in many ways, (revatīḥ)=who have laudable wealth, (prajāḥ)=those descendants, (indre)=for the sake of the God, (niyuktāḥ)=assigned, (santu)=be.

    English Translation (K.K.V.)

    Just as the people with whom many kinds of foods are available, as we rejoice in a place full of joy, in the same way, those descendants with many disciplines of knowledge, who have laudable wealth, may those descendants be attached for the sake of God.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is latent vocal simile as a figurative in this mantra. Human beings, including the chief of the army, should establish works promoting all state knowledge and righteousness in the meetings and make others enjoy them by enjoying the highest pleasures and by the permission of the Vedas, with the mutual consent of women and men of similar nature and young age, having adopted marriage with self choice. Definitely one should always make efforts in household chores. Apart from this, it is never capable of being dependent even for a moment by a man and a woman.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May our people be rich in strength and knowledge obedient to the Lord, enjoying together, so that wealthy in food and full of devotion, we may rejoice.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (रेवती:) रयि: शोभा धनं प्रशस्तं विद्यते यासु ताः प्रजाः । अत प्रशंसार्थे मतुप् रयेर्मतौ बहुलम् (अष्टा० ६.१.३७) अनेन सम्पसारणम् । छन्दसीर इति मस्य वत्वम् । सुपां सुलुक् इति पूर्वसवर्णादेशश्च । = The subjects or people possessing good wealth.( सधमादे ) मदेन आनन्देन सह वर्तमाने । अत्र सघमा दस्थयोश्छन्दसि ( अष्टा० ६.३.९६ ) इति सहस्य सधादेशः । = In delightful dealing. (तुविवाजा:) तुवि बहु विधः वाजः-विद्याबोधो यासां ताः = Full of knowledge of various subjects. ( क्षुमन्तः) बहुविधं क्षु-अन्नं विद्यते येषां ते । अत्र भूम्त्यर्थे मतुप् क्षु इत्यन्ननामसु पठितम् ( निघ० २.७) = Full of or endowed with abundant food.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should appoint the members of the assembly along with the president and the Commander of the Army for the works connected with administration, dissemination of knowledge and propagation of Dharma and thus enjoy admirable happiness themselves and allow others to do so. According to the injunctions of the Vedas, young men and women should marry with mutual consent and of their own accord. After marriage, they should respect each other and should discharge Comes tic duties jointly. All of them should be engaged in meditation on God and acting according to His commandments, and according to the orders of good men and assemblies. It is not proper to behave in violation of these instructions on the part of any man or woman.

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