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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 30/ मन्त्र 3
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    सं यन्मदा॑य शु॒ष्मिण॑ ए॒ना ह्य॑स्यो॒दरे॑। स॒मु॒द्रो न व्यचो॑ द॒धे॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । यत् । मदा॑य । शु॒ष्मिणे॑ । ए॒ना । हि । अ॒स्य॒ । उ॒दरे॑ । स॒मु॒द्रः । न । व्यचः॑ । द॒धे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं यन्मदाय शुष्मिण एना ह्यस्योदरे। समुद्रो न व्यचो दधे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। यत्। मदाय। शुष्मिणे। एना। हि। अस्य। उदरे। समुद्रः। न। व्यचः। दधे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 30; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    अहं हि खलु मदाय शुष्मिणे समुद्रो व्यचो नो वाऽस्येन्द्राख्यस्याग्नेरुदर एना एनेन शतेन सहस्रेण च गुणैः सह वर्त्तमाना यत् याः क्रियाः सन्ति ताः सन्दधे॥३॥

    पदार्थः

    (सम्) सम्यगर्थे (यत्) याः (मदाय) हर्षाय (शुष्मिणे) शुष्मं प्रशस्तं बलं विद्यते यस्मिन् व्यवहारे तस्मै। शुष्ममिति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) अत्र प्रशंसार्थ इनिः। (एना) एनेन शतेन सहस्रेण वा। अत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (हि) खलु (अस्य) इन्द्राख्यस्याग्नेः (उदरे) मध्ये (समुद्रः) जलाधिकरणः (न) इव (व्यचः) विविधं जलादिवस्त्वञ्चन्ति ताः। अत्र व्युपपदादञ्चेः क्विन् ततो जस्। (दधे) धरेयम्॥३॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा समुद्रस्योदरेऽनेके गुणा रत्नानि सन्त्यगाधं जलं वास्ति तथैवाग्नेर्मध्येऽनेके गुणा अनेकाः क्रिया वसन्ति। तस्मान्मनुष्यैरग्निजलयोः सकाशात् प्रयत्नेन बहुविध उपकारो ग्रहीतुं शक्य इति॥३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    मैं (हि) अपने निश्चय से (मदाय) आनन्द और (शुष्मिणे) प्रशंसनीय बल और ऊर्जा जिस व्यवहार में हो, उसके लिये (समुद्रः) (न) जैसे समुद्र (व्यचः) अनेक व्यवहार (न) सैकड़ों हजार गुणों सहित (यत्) जो क्रिया हैं, उन क्रियाओं को (सन्दधे) अच्छे प्रकार धारण करूं॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे समुद्र के मध्य में अनेक गुण, रत्न और जीव-जन्तु और अगाध जल है, वैसे ही अग्नि और जल के सकाश से प्रयत्न के साथ बहुत प्रकार का उपकार लेना चाहिये॥३॥

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    विषय

    फिर वह किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    अहं हि खलु मदाय शुष्मिणे समुद्रः व्यचः नः वा अस्य इन्द्राख्यस्य अग्नेः उदरे एना एनेन शतेन सहस्रेण च गुणैः सह वर्त्तमाना यत् याः क्रियाः सन्ति ताः सन्दधे॥३॥

    पदार्थ

    (अहम्)=मैं, (हि) खलु=निश्चय से ही, (मदाय) हर्षाय=आनन्द और, (शुष्मिणे) शुष्मं प्रशस्तं बलं विद्यते यस्मिन् व्यवहारे तस्मै=प्रशंसनीय बल और ऊर्जा जिस व्यवहार में हो, उसके लिये, (समुद्रः) जलाधिकरणः=समुद्र, (व्यचः) विविधं जलादिवस्त्वञ्चन्ति ताः=जिसमें विविध जलादि वस्तुएँ दीखती हों, वह, (नः)=हम लोगों को, (वा)=अथवा, (अस्य) इन्द्राख्यस्याग्नेः=इन्द्र नामक अग्नि के,  (उदरे) मध्ये=मध्य में,  (एना) एनेन शतेन सहस्रेण वा=सैकड़ों अथवा हजारों, (गुणैः)=गुणों के द्वारा, (सह)=साथ में, (वर्त्तमाना)=उपस्थित, (यत्)=जो, (क्रियाः)=क्रियायें, (सन्ति)=हैं, (ताः)=उनको, (सम्) सम्यगर्थे= अच्छे प्रकार से,  (दधे) धरेयम्=धारण करूँ॥३॥ 

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे समुद्र के मध्य में अनेक प्रकार के रत्न हैं और अगाध जल है, वैसे ही अग्नि के मध्य में अनेक प्रकार की  अनेक क्रियाएं होती रहती हैं। इसलिये मनुष्यों के द्वारा अग्नि और जल के  निकट के प्रयत्न से बहुत प्रकार के उपकार ग्रहण किये जा सकते हैं॥३॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (अहम्) मैं (हि) अपने निश्चय से ही (मदाय) आनन्द और (शुष्मिणे) प्रशंसनीय बल और ऊर्जा जिस व्यवहार में हो, उसके लिये (समुद्रः) समुद्र (व्यचः)  जिसमें विविध जलादि वस्तु दीखती हों, वह (नः) हम लोगों को  (वा) अथवा (अस्य) इन्द्र नामक अग्नि के  (उदरे) मध्य में (एना) सैकड़ों अथवा हजारों (गुणैः)  गुणों के द्वारा,  (सह) साथ मंष (वर्त्तमाना) उपस्थित (यत्) जो (क्रियाः) क्रियायें (सन्ति) हैं, (ताः) उनको, (सम्)  अच्छे प्रकार से  (दधे) धारण करूँ॥३॥  

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सम्) सम्यगर्थे (यत्) याः (मदाय) हर्षाय (शुष्मिणे) शुष्मं प्रशस्तं बलं विद्यते यस्मिन् व्यवहारे तस्मै। शुष्ममिति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) अत्र प्रशंसार्थ इनिः। (एना) एनेन शतेन सहस्रेण वा। अत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (हि) खलु (अस्य) इन्द्राख्यस्याग्नेः (उदरे) मध्ये (समुद्रः) जलाधिकरणः (न) इव (व्यचः) विविधं जलादिवस्त्वञ्चन्ति ताः। अत्र व्युपपदादञ्चेः क्विन् ततो जस्। (दधे) धरेयम्॥३॥
    विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः- अहं हि खलु मदाय शुष्मिणे समुद्रो व्यचो नो वाऽस्येन्द्राख्यस्याग्नेरुदर एना एनेन शतेन सहस्रेण च गुणैः सह वर्त्तमाना यत् याः क्रियाः सन्ति ताः सन्दधे॥३॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा समुद्रस्योदरेऽनेके गुणा रत्नानि सन्त्यगाधं जलं वास्ति तथैवाग्नेर्मध्येऽनेके गुणा अनेकाः क्रिया वसन्ति। तस्मान्मनुष्यैरग्निजलयोः सकाशात् प्रयत्नेन बहुविध उपकारो ग्रहीतुं शक्य इति॥३॥ 

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    विषय

    शक्ति , हर्ष व विशालता

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में वर्णित 'सोम' वह है (यत्) - जो कि (शुष्मिणे) - शत्रुशोषक बलवाले पुरुष के लिए (सं मदाय) - उत्कृष्ट हर्ष के लिए होता है , अर्थात् यह सोम उसे बलवान् बनाता है और हर्ष प्राप्त कराता है । इस सोम के रक्षण के अभाव में , भोग - विलास के कारण इसकी अधोगति होने पर न तो हममें शक्ति रहती है , न उल्लास ; जीवन का सब आनन्द समाप्त हो जाता है । 

    २. (एना हि) - इस सोम के द्वारा ही (अस्य उदरे) - इसके मध्यदेश में , अर्थात् हृदयान्तरिक्ष में (समद्रो न) - समुद्र के समान (व्यचः) - विस्तार (दधे) - धारण किया जाता है । जैसे समद्र विशाल है , उसी प्रकार इसका हृदय विशाल होता है । 

     

     

    भावार्थ

    भावार्थ - सोम के सुरक्षित होने पर हम बल , हर्ष व विशालता को अपने में धारण करते हैं । 

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    विषय

    वीर पुरुषों का सेनापति या नायक से सम्बन्ध ।

    भावार्थ

    (समुद्रः न) जिस प्रकार समुद्र (व्यचः) विविध पदार्थों को धारण करनेवाले, नाना विस्तृत अवकाश को धारण करता है उसी प्रकार (शुष्मिणे मदाय) बलवान्, अति तृप्त (अस्य) इस विद्वान् पुरुष के (उदरे) पेट या वश में (एना) नाना सहस्त्रों पदार्थ (संदधे) धारण कराता हूं, उसके भोगने के निमित्त प्रदान करता हूं। भौतिक अग्नि के पक्ष में—जैसे समुद्र में बहुत से पदार्थ समा जाते हैं उसी प्रकार अग्नि के प्रचण्ड ताप में भी सहस्रों पदार्थ, पेट में अन्न के समान भस्म हो जाते हैं। अग्नि के पक्ष में—नाना उज्वल वर्णों से युक्त होने से अग्नि 'कपोत' है अग्नि को भूगर्भ में धारण करने से पृथ्वी ‘गर्भधि’ है। यह लोक उसीका है। चह पृथ्वी से संगत है। वही हमारे वचनों को भी ग्रहण करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः ॥ देवता—१—१६ इन्द्रः । १७–१९ अश्विनौ । २०–२२ उषाः॥ छन्दः—१—१०, १२—१५, १७—२२ गायत्री। ११ पादनिचृद् गायत्री । १६ त्रिष्टुप् । द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे समुद्रात अनेक गुण असतात तसेच रत्ने, जीवजंतू आणि अगाध जल असते. अग्नीतही अनेक गुण व क्रिया असतात, त्यासाठी माणसांनी अग्नी व जलाच्या साह्याने प्रयत्नपूर्वक त्यांचा अनेक प्रकारे उपयोग करून घ्यावा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    For the creation of life’s joy and for the development of food and energy for life, I take on these hundreds of powers of Indra implicit in the potentials of fire, water and electricity just like the jewels hidden in the depths of the wide wide sea.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of he is, this has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (aham)=I, (hi)=by determination only, (madāya)=for pleasure, [aura]=and, (śuṣmiṇe)=appreciable force and energy for the activity in which, (samudraḥ)= ocean, (vyacaḥ) =In which various water objects are seen, [vaha]=that, (naḥ)=to us, (vā)=or, (asya)=fire named Indra, (udare)=in the midst, (enā)=hundreds or thousands, (guṇaiḥ)= by virtues, (saha)=together, (varttamānā)=are present, (yat)=which, (kriyāḥ)=actions, (santi)=are, (tāḥ)=to them, (sam)=well, (dadhe)=possess.

    English Translation (K.K.V.)

    I rejoice by determination only for pleasure and commendable force and energy in the activity in which I am. For him the ocean in which various water objects are visible. The actions which are present together for hundreds or thousands by the virtues in us or the fire, named ‘Indra’. Possess them well.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. Just as in the ocean there are many types of gems and there is infinite water, in the same way, in the fire, there are many different kinds of activities. That is why, many kinds of helps can be obtained by human beings by their efforts near fire and water.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    For mighty delight, I unite many water-creating processes which are there in this Agni (fire) which is also called Indra, within which there are hundreds or even thousands of attributes as there are hundreds of jewels within the ocean.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( मदाय ) हर्षाय = For delight. (शुष्मिणे) शुष्मं प्रशस्तं बलं विद्यते यस्मिन् व्यवहारे तस्मै । शुष्ममिति बलनामसु पठितम् ( निघ० २.९ ) अत्र प्रशंसार्थ इनिः ॥ = For mighty dealing. ( अस्य) इन्द्राख्यस्य अग्नेः = Of the fire known as Indra also. (व्यच:) विविधं जलादि वस्तु अंचन्ति ताः । अत्र व्युपपदादंचे: क्विन् ततो जस् । = Pervading water and various other things.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Upamalankar or simile in this Mantra. As in the ocean, there is deep infinite water and there are many jewels and attributes, in the same way, in the fire, there are many attributes and there are many processes. Therefore by the conjunction of the fire and water, men can take various benefits with laboure.

    Translator's Notes

    Here Rishi Dayananda has taken Indra which is the devata or subject matter of the Mantra to mean Agni (fire) for which the following is the clear authority. अथ यत्रैतत् प्रदीप्तो भवति उच्चैधूमः परमया जूत्या बल्बलीति तर्हि हैष: ( अग्निः ) भवति इन्द्रः ॥ ( शतपथ ब्राह्मणे २.३.२.११ ) । = Which clearly denotes that bright Agni (fire) is called Indra.

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