ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 30/ मन्त्र 12
तथा॒ तद॑स्तु सोमपाः॒ सखे॑ वज्रि॒न्तथा॑ कृणु। यथा॑ त उ॒श्मसी॒ष्टये॑॥
स्वर सहित पद पाठतथा॑ । तत् । अ॒स्तु॒ । सो॒म॒ऽपाः॒ । सखे॑ । व॒ज्रि॒न् । तथा॑ । कृ॒णु॒ । यथा॑ । ते॒ । उ॒श्मसि॑ । इ॒ष्टये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तथा तदस्तु सोमपाः सखे वज्रिन्तथा कृणु। यथा त उश्मसीष्टये॥
स्वर रहित पद पाठतथा। तत्। अस्तु। सोमऽपाः। सखे। वज्रिन्। तथा। कृणु। यथा। ते। उश्मसि। इष्टये॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 30; मन्त्र » 12
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सभाध्यक्षाय किं किमुपदेशनीयमित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे सोमपा वज्रिन्सखे सभाध्यक्ष ! यथा वयमिष्टये ते तवाऽनुकूलं यन्मित्राचरणं कर्त्तुमुश्मसि कामयामहे कुर्म्मश्च तथा तदस्तु तथा तत् त्वमपि कृणु कुरु॥१२॥
पदार्थः
(तथा) तेन प्रकारेण (तत्) मित्राचरणम् (अस्तु) भवतु (सोमपाः) यः सोमैर्जगत्युत्पन्नैः पदार्थैः सर्वान् पाति रक्षति तत्संबुद्धौ (सखे) सर्वेषां सुखदातः (वज्रिन्) वज्रः सर्वदुःखनाशनो बहुविधो दृढो बोधो यस्यास्तीति तत्संबुद्धौ। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। (तथा) प्रकारार्थे (कृणु) कुरु (यथा) येन प्रकारेण (ते) तव (उश्मसि) कामयामहे। अत्र इदन्तो मसि इति मसिरादेशः। (इष्टये) इष्टसुखसिद्धये॥१२॥
भावार्थः
यथा सर्वेषां हितैषी सकलविद्यान्वितः सभासेनाध्यक्षः प्रजाः सततं रक्षेत्, तथैव प्रजासेनास्थैरपि मनुष्यैस्तदवनं सदा सम्भावनीयमिति॥१२॥
हिन्दी (4)
विषय
अब उस सभाध्यक्ष को क्या-क्या उपदेश करने के योग्य है, यह अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (सोमपाः) सांसारिक पदार्थों से जीवों की रक्षा करनेवाले (वज्रिन्) सभाध्यक्ष ! जैसे हम लोग (इष्टये) अपने सुख के लिये (ते) आप शस्त्रास्त्रवित् (सखे) मित्र की मित्रता के अनुकूल जिस मित्राचरण के करने को (उश्मसि) चाहते और करते हैं (तथा) उसी प्रकार से आपकी (तत्) मित्रता हमारे में (अस्तु) हो, आप (तथा) वैसे (कृणु) कीजिये॥१२॥
भावार्थ
जैसे सब का हित चाहनेवाला और सकल विद्यायुक्त सभा सेनाध्यक्ष निरन्तर प्रजा की रक्षा करे, वैसे ही प्रजा सेना के मनुष्यों को भी उसकी रक्षा की सम्भावना करनी चाहिये॥१२॥
विषय
अब उस सभाध्यक्ष को क्या-क्या उपदेश करने के योग्य है, यह इस मन्त्र में कहा है॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे सोमपा वज्रिन् सखे सभाध्यक्ष ! यथा वयम् इष्टये ते तव अनुकूलं यत् मित्राचरणं कर्त्तुम् उश्मसि कामयामहे कुर्म्मः च तथा तत् अस्तु तथा तत् त्वमपि कृणु कुरु॥१२॥
पदार्थ
हे (सोमपाः) यः सोमैर्जगत्युत्पन्नैः पदार्थैः सर्वान् पाति रक्षति तत्संबुद्धौ=सोम से सांसारिक पदार्थों से जीवों की रक्षा करनेवाले, (वज्रिन्) वज्रः सर्वदुःखनाशनो बहुविधो दृढो बोधो यस्यास्तीति तत्संबुद्धौ=सब दुःखों का नाश करनेवाले और बहुत प्रकार से दृढ़ ज्ञानवाले सभा व सेना के अध्यक्ष राजा, (सखे) सर्वेषां सुखदातः=सबको सुख देने वाले, (सभाध्यक्ष)=सभाध्यक्ष ! (यथा) येन प्रकारेण=जिस प्रकार से, (वयम्)=हम, (इष्टये) इष्टसुखसिद्धये=इच्छित सुख की सिद्धि लिये (ते) तव=आपकी, (अनुकूलम्)= अनुकूलता के लिये, (यत्)=जो, (मित्राचरणम्)=मित्राचरण के, (कर्त्तुम्)= करने को, (उश्मसि) कामयामहे=चाहते हो (च)=और, (कुर्म्मः)=करते हो, (तथा) तेन प्रकारेण=उसी प्रकार से, (तत्) मित्राचरणम् =मित्राचरण वाले, (त्वमपि)=तुम भी, (अस्तु) भवतु=होओ॥१२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जैसे सब का हित चाहनेवाला और सकल विद्यायुक्त सभा सेनाध्यक्ष निरन्तर प्रजा की रक्षा करे, वैसे ही प्रजा और सेना के मनुष्यों को भी उसकी रक्षा की सम्भावना करनी चाहिये॥१२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (सोमपाः) सोम से सांसारिक पदार्थों से जीवों की रक्षा करनेवाले, (वज्रिन्) सब दुःखों का नाश करनेवाले, बहुत प्रकार से दृढ़ ज्ञानवाले सभा व सेना के अध्यक्ष राजा, (सखे) सबको सुख देने वाले (सभाध्यक्ष) [और] सभा व सेना के अध्यक्ष! (यथा) जिस प्रकार से (वयम्) हम (इष्टये) इच्छित सुख की सिद्धि लिये और (ते) आपकी (अनुकूलम्) अनुकूलता के लिये (यत्) जो (मित्राचरणम्) मित्राचरण (कर्त्तुम्) करना (उश्मसि) चाहते हैं (च) और (कुर्म्मः) करते हैं, (तथा) उसी प्रकार से (तत्) उस मित्राचरण को करने वाले (त्वमपि) तुम भी (अस्तु) होओ॥१२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (तथा) तेन प्रकारेण (तत्) मित्राचरणम् (अस्तु) भवतु (सोमपाः) यः सोमैर्जगत्युत्पन्नैः पदार्थैः सर्वान् पाति रक्षति तत्संबुद्धौ (सखे) सर्वेषां सुखदातः (वज्रिन्) वज्रः सर्वदुःखनाशनो बहुविधो दृढो बोधो यस्यास्तीति तत्संबुद्धौ। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। (तथा) प्रकारार्थे (कृणु) कुरु (यथा) येन प्रकारेण (ते) तव (उश्मसि) कामयामहे। अत्र इदन्तो मसि इति मसिरादेशः। (इष्टये) इष्टसुखसिद्धये॥१२॥
विषयः- अथ सभाध्यक्षाय किं किमुपदेशनीयमित्युपदिश्यते॥
अन्वयः- हे सोमपा वज्रिन्सखे सभाध्यक्ष ! यथा वयमिष्टये ते तवाऽनुकूलं यन्मित्राचरणं कर्त्तुमुश्मसि कामयामहे कुर्म्मश्च तथा तदस्तु तथा तत् त्वमपि कृणु कुरु॥१२॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- यथा सर्वेषां हितैषी सकलविद्यान्वितः सभासेनाध्यक्षः प्रजाः सततं रक्षेत्, तथैव प्रजासेनास्थैरपि मनुष्यैस्तदवनं सदा सम्भावनीयमिति॥१२॥
विषय
प्रभु की ही कामना
पदार्थ
२. हे (सखे) - हम सबके निःस्वार्थ व सच्चे मित्र प्रभो ! हे (वज्रिन्) - हमारे शत्रुओं के नाश के लिए हाथ में वज्र लिये हुए प्रभो ! (सोमपाः) - आप ही हमारे सोम का रक्षण करनेवाले हैं , आपकी कृपा से ही सोम का रक्षण होता है । आपकी कृपा से (तत्) - वह बात तथा (अस्तु) - उस प्रकार से पूर्ण हो , उस प्रकार से हो क्या? तथा (कृणु) - आप ऐसा कर ही दीजिए कि (यथा) - जिससे (ते) - आपकी ही (उश्मसि) - कामना करते हैं ताकि (इष्टये) - सब इष्टों की प्राप्ति हो सके ।
२. कहा जाता है कि प्रभु - कृपा से सब वातावरण ठीक बन जाता है । यहाँ मन्त्र में आराधक प्रभु से कहता है कि 'सारा वातावरण ठीक बन जाए' , इतना ही नहीं , आप बस ऐसा कर ही दीजिए कि हम प्रकृति के सुखों से विमुख हो आपकी ओर झुकें ।
३. आपकी ओर झुकते ही हमारी सब इष्ट कामनाएँ पूर्ण हो जाएँगी । आपको पाया तो सब - कुछ पा लिया । आपको पा लेने पर कुछ भी अप्राप्त नहीं रह जाता । 'विष्णु' प्रसन्न हुए तो 'लक्ष्मी' तो प्रसन्न हो ही गई ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु - कृपा हो और ऐसा वातावरण बने कि हमारा झुकाव प्रभु की ओर हो जाए ।
विषय
संग्रामार्थ सेनापति की प्रधान पद पर प्रतिष्ठा ।
भावार्थ
हे (सोमपाः) राष्ट्रपालक, ऐश्वर्यमय जगत् के पालक! हे (सखे) सखे! मित्र! हे (वज्रिन्) बलवन्! दुःखों के निवारक! (यथा) जिस प्रकार से भी हम (ते) तुझे अपने (इष्टये) इष्ट, अभिलषित फल प्राप्ति के लिए (उष्मसि) चाहते हैं तू (तथा कृणु) उसी प्रकार हमारा मनोरथ पूर्ण कर। और (तत्) वह हमारा अभिलषित कार्य भी (तथा अस्तु) वैसे ही सिद्ध हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः ॥ देवता—१—१६ इन्द्रः । १७–१९ अश्विनौ । २०–२२ उषाः॥ छन्दः—१—१०, १२—१५, १७—२२ गायत्री। ११ पादनिचृद् गायत्री । १६ त्रिष्टुप् । द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसे सर्वांचा हितेच्छू व संपूर्ण विद्यायुक्त सभेच्या सेनाध्यक्षाने प्रजेचे रक्षण करावे, तसेच प्रजेने व सेनेनेही त्याचे रक्षण करावे. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Protector of soma, peace and happiness, friend, lord of light and destroyer of suffering, as we love and pray to you for our good, so may you be and so may you do for us.
Subject of the mantra
Now, what that chairperson is supposed to preach, this has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (somapāḥ)=One who protects living beings from worldly things with Soma, (vajrin)=the king who destroys all sorrows and has strong knowledge in many ways, the leader of the Assembly and army, (sakhe)=all-pleaser, (sabhādhyakṣa)= chairman, [aura]=and, (sabhādhyakṣa)=chairman! (yathā)=in the manner, (vayam)=we, (iṣṭaye)=to achieve desired happiness, [aura]=and, (te)=your, (anukūlam)=for compatibility, (yat)=which, (mitrācaraṇam)=friendly conduct, (karttum)=doing, (uśmasi)=want, (ca)=and,(kurmmaḥ)=do, (tathā)=in the same way, (tat)=doer of that friendly act, (tvamapi)=you also, (astu)=be.
English Translation (K.K.V.)
O king, who protects living beings from worldly things with Soma, destroys all sorrows, has strong knowledge in many ways, gives happiness to all, king of assembly and army! Just as we have attained the desired happiness and do what we want to do and do friendly conduct for your help, in the same way you are also follow that friendly conduct.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Just as the chief of the army and having knowledge of all disciplines the chairman of the army constantly protect the subjects, similarly the subjects and the men of the army should also have the possibility of protecting him.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What teaching should be given to the president of the Assembly is taught in the 12th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the Assembly, protector of all created objects, friend and therefore giver of delight, possessing knowledge dispeller of all miseries, as we desire to behave with you in a friendly manner, so you should also do.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( वञ्चिन् ) वज्रः सर्वदुःखनाशनो बहुविधः दृढो बोधः यस्यास्तीति तत् सम्बुद्धौ । अत्र भूम्न्यर्थे मतुप् | = Possessing knowledge of various kinds that destroys miseries of all kinds.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the president of the Assembly or the Commander-in chief of an army who possesses the knowledge of all sciences and is the well-wisher of all, protects all his subjects, in the same manner, the people and soldiers of the army should always guard him.
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