ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 30/ मन्त्र 20
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः
देवता - उषाः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
कस्त॑ उषः कधप्रिये भु॒जे मर्तो॑ अमर्त्ये। कं न॑क्षसे विभावरि॥
स्वर सहित पद पाठकः । ते॒ । उ॒षः॒ । क॒ध॒ऽप्रि॒ये॒ । भु॒जे । मर्तः॑ । अ॒म॒र्त्ये॒ । कम् । न॒क्ष॒से॒ । वि॒भा॒ऽव॒रि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कस्त उषः कधप्रिये भुजे मर्तो अमर्त्ये। कं नक्षसे विभावरि॥
स्वर रहित पद पाठकः। ते। उषः। कधऽप्रिये। भुजे। मर्तः। अमर्त्ये। कम्। नक्षसे। विभाऽवरि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 30; मन्त्र » 20
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 31; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 31; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथैतद्विद्योपयोग्योषसः काल उपदिश्यते॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! येयममर्त्ये कधप्रिये विभावर्युषरुषा भुजे सुखभोगाय प्रत्यहं प्राप्नोति, तां प्राप्य त्वं कं मनुष्यं न नक्षसे प्राप्नोसि, को मर्तो भुजे ते तव सनीडं न प्राप्नोति॥२०॥
पदार्थः
(कः) वक्ष्यमाणः (ते) तव विदुषः (उषः) उषाः (कधप्रिये) कथनं कथा प्रिया यस्यां सा। अत्र वर्णव्यत्ययेन थकारस्य स्थाने धकारः। (भुजे) भुज्यते यः स भुक् तस्मै। अत्र कृतो बहुलम् इति कर्मणि क्विप्। (मर्तः) मनुष्यः (अमर्त्यः) कारणप्रवाहरूपेण नाशरहिता (कम्) मनुष्यम् (नक्षसे) प्राप्नोषि (विभावरि) विविधं जगत् भाति दीपयति सा विभावरि। अत्र वनो र च। (अष्टा०४.१.७) अनेन ङीप् रेफादेशश्च॥२०॥
भावार्थः
अत्र काक्वर्थः। को मनुष्यः कालस्य सूक्ष्मां व्यर्थगमनानर्हां गतिं वेद, नहि सर्वो मनुष्यः पुरुषार्थारम्भस्य सुखाख्यामुषसं यथावज्जानाति, तस्मात्सर्वे मनुष्याः प्रातरुत्थाय यावन्नसुषुपुस्तावदेकं क्षणमपि कालस्य व्यर्थं न नयेयुः, एवं जानन्तो जनाः सर्वकालं सुखं भोक्तुं शक्नुवन्ति नेतरेऽलसाः॥२०॥
हिन्दी (4)
विषय
अब इस विद्या के उपयोग करनेवाले प्रातःकाल का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे विद्याप्रियजन ! जो यह (अमर्त्ये) कारण प्रवाह रूप से नाशरहित (कधप्रिये) कथनप्रिय (विभावरि) और विविध जगत् को प्रकाश करनेवाली (उषा) प्रातःकाल की वेला (भुजे) सुख भोग कराने के लिये प्राप्त होती है, उसको प्राप्त होकर तू (कम्) किस मनुष्य को (नक्षसे) प्राप्त नहीं होता और (कः) कौन (मर्त्तः) मनुष्य (भुजे) सुख भोगने के लिये (ते) तेरे आश्रय को नहीं प्राप्त होता॥२०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में काक्वर्थ है। कौन मनुष्य इस काल की सूक्ष्म गति जो व्यर्थ खोने के अयोग्य है, उसको जाने जो पुरुषार्थ के आरम्भ का आदि समय प्रातःकाल है, उसके निश्चय से प्रातःकाल उठ कर जब तक सोने का समय न हो, एक भी क्षण व्यर्थ न खोवे। इस प्रकार समय के सार्थपन को जानते हुए मनुष्य सब काल सुख भोग सकते हैं, किन्तु आलस्य करनेवाले नहीं॥२०॥
विषय
अब इस विद्या के उपयोग करनेवाले प्रातःकाल का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे विद्वन् ! या इयम् अमर्त्ये कधप्रिये विभावयुरि उषः उषा भुजे सुखभोगाय प्रत्यहं प्राप्नोति तां प्राप्य त्वं कं मनुष्यं न नक्षसे प्राप्नोसि, कः मर्तः भुजे ते तव सनीडं न प्राप्नोति॥२०॥
पदार्थ
हे (विद्वन्)=विद्वान् ! (या)=जो, (इयम्)=यह, (अमर्त्यः) कारणप्रवाहरूपेण नाशरहिता=कारण प्रवाह रूप से नाशरहित, (कधप्रिये) कथनं कथा प्रिया यस्यां सा=कथनप्रिय, (विभावरि) विविधं जगत् भाति दीपयति सा विभावरि= और विविध जगत् को प्रकाश करनेवाली, (उषः) उषाः=प्रातःकाल की वेला, (भुजे) सुखभोगाय=सुख भोग कराने के लिये, (प्राप्नोति)=प्राप्त होती है, (ताम्)=उसको, (प्राप्य)=प्राप्त होकर, (त्वम्)=तुम, (कम्)=किसी, (मनुष्यम्)=मनुष्य को, (न)=नहीं, (नक्षसे) प्राप्नोषि=प्राप्त करते हो, (कः) वक्ष्यमाणः=कौन, (मर्तः) मनुष्यः=मनुष्य, (भुजे) भुज्यते यः स भुक् तस्मै=भोग करने वाला भोक्ता, (ते) तव विदुषः=आप विद्वान् के, (सनीडम्)=समीप में या आश्रय में, (न)=नहीं, (प्राप्नोति)=प्राप्त होता है॥२०॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में “कौन” शब्द के अर्थ में प्रयोग है। कौन मनुष्य इस काल की सूक्ष्म गति जो व्यर्थ जाने के योग्य नहीं है को जानता है? सब मनुष्य पुरुषार्थ के आरम्भ के समय उषा नाम की बेला को ठीक-ठीक जानते हैं। इसलिए सब मनुष्यों को प्रातःकाल उठ कर प्रगाढ़ निद्रा में जाने तक क्षण मात्र के लिए भी समय नहीं गंवाना चाहिये। ऐसा जानते हुए लोग सब काल सुख भोग सकते हैं, किन्तु आलस्य करनेवाले नहीं॥२०॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (विद्वन्) विद्वान् ! (या) जो (इयम्) यह (अमर्त्यः) कारण प्रवाह रूप से नाशरहित (कधप्रिये) कथनप्रिय, (विभावरि) और विविध जगत् को प्रकाश करनेवाली (उषः) प्रातःकाल की वेला (भुजे) सुख भोग कराने के लिये (प्राप्नोति) प्राप्त होती है। (ताम्) उसको (प्राप्य) प्राप्त करके (त्वम्) तुम (कम्) किसी (मनुष्यम्) मनुष्य को (न) नहीं (नक्षसे) प्राप्त करते हो। (कः) कौन (भुजे) भोग करने वाला भोक्ता (मर्तः) मनुष्य (ते) आप विद्वान् के (सनीडम्) समीप में या आश्रय में (प्राप्नोति) प्राप्त (न) नहीं होता है॥२०॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (कः) वक्ष्यमाणः (ते) तव विदुषः (उषः) उषाः (कधप्रिये) कथनं कथा प्रिया यस्यां सा। अत्र वर्णव्यत्ययेन थकारस्य स्थाने धकारः। (भुजे) भुज्यते यः स भुक् तस्मै। अत्र कृतो बहुलम् इति कर्मणि क्विप्। (मर्तः) मनुष्यः (अमर्त्यः) कारणप्रवाहरूपेण नाशरहिता (कम्) मनुष्यम् (नक्षसे) प्राप्नोषि (विभावरि) विविधं जगत् भाति दीपयति सा विभावरि। अत्र वनो र च। (अष्टा०४.१.७) अनेन ङीप् रेफादेशश्च॥२०॥
विषयः- अथैतद्विद्योपयोग्योषसः काल उपदिश्यते॥
अन्वयः- हे विद्वन् ! येयममर्त्ये कधप्रिये विभावर्युषरुषा भुजे सुखभोगाय प्रत्यहं प्राप्नोति, तां प्राप्य त्वं कं मनुष्यं न नक्षसे प्राप्नोसि, को मर्तो भुजे ते तव सनीडं न प्राप्नोति॥२०॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र काक्वर्थः। को मनुष्यः कालस्य सूक्ष्मां व्यर्थगमनानर्हां गतिं वेद, नहि सर्वो मनुष्यः पुरुषार्थारम्भस्य सुखाख्यामुषसं यथावज्जानाति, तस्मात्सर्वे मनुष्याः प्रातरुत्थाय यावन्नसुषुपुस्तावदेकं क्षणमपि कालस्य व्यर्थं न नयेयुः, एवं जानन्तो जनाः सर्वकालं सुखं भोक्तुं शक्नुवन्ति नेतरेऽलसाः॥२०॥
विषय
उषः - जागरण
पदार्थ
१. हे (उषः) - [उष दाहे] अन्धकार का दहन करनेवाले उषः काल ! भक्त के दोषों को दग्ध करनेवाले । (कः) - वे अनिर्वचनीय आनन्दमय प्रभु तो (ते) - तेरा ही है , अर्थात् उस प्रभु से मेल तुझमें ही होता है , - तेरा नाम ही 'ब्राह्ममुहूर्त' हो गया है ।
२. हे (कधप्रिये) - [क+ध+प्रिये] उस प्रभु को धारण करना ही जिसे प्रिय है , ऐसे (अमर्त्ये) - अपने उपासक को रोगादि से न मरने देनेवाले उषः काल ! (मर्त्यः) - तेरा उपासक मनुष्य (भुजे) - पालन के लिए होता है । जो भी व्यक्ति उषः जागरण को जीवन का नियम बनाकर इस उषः काल में प्रभु का स्मरण करता है [कः ते] और प्रभु को अपने में धारण करने का प्रयत्न करता है - [क+ध+प्रिये] वह व्यक्ति नीरोग जीवन बिताता हुआ [अमर्त्ये] अपना सुन्दरता से पालन करनेवाला होता है [भुजे] ।
३. हे (विभावरि) - ज्योतिर्मय उषः काल ! तू (कम्) - उस अनिर्वचनीय , आनन्दस्वरूप प्रभु को (नक्षसे) - [नक्ष गतौ] प्राप्त होती है - तू प्रभु की ओर जाती है । उषः काल में जागनेवाला पुरुष उस प्रभु के मार्ग पर चलने की प्रवृत्तिवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - उषः काल में जागने के निम्न लाभ हैं -
[क] यह दोषों को दग्ध करता है [उषः] ,
[ख] नीरोगता प्रदान करता है [अमर्त्ये] ,
[ग] पालन व रक्षण करता है - बुराइयों से बचाता है , [भुजे]
[घ] ज्ञान - ज्योति को बढ़ाता है [विभावरि] ,
[ङ] प्रभु की ओर ले - जाता है [कम्] ।
विषय
विभावरी, ईश्वरीय शक्ति ।
भावार्थ
हे (उषः) पापों के नाशक करनेवाली उषा के समान ज्योतिर्मयि परमेश्वरी शक्ते! हे (कधप्रिये) स्तुति एवं ज्ञान कथा से अतिप्रिय! हे (अमर्त्ये) कभी न मरनेवाली अविनाशिनि! नित्ये! (ते भुजे) तेरे परमानन्द के भोग या सुख को प्राप्त करने के लिए (कः मार्त्तः) कौन मरणधर्मा प्राणी समर्थ है? कोई भी नहीं। हे (विभावरि) विशेष तेजोयुक्त ! तेजस्विनि! तू (कं नक्षसे) किस मनुष्य को प्राप्त हो सकती है? अर्थात्, तू किसी को प्राप्त नहीं हो सकती? अथवा (कं) सर्व सृष्टि के कर्त्ता, सुखमय परमेश्वर को ही प्राप्त है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः ॥ देवता—१—१६ इन्द्रः । १७–१९ अश्विनौ । २०–२२ उषाः॥ छन्दः—१—१०, १२—१५, १७—२२ गायत्री। ११ पादनिचृद् गायत्री । १६ त्रिष्टुप् । द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात काक्वर्थ आहे. कोण माणूस आहे जो काळाच्या सूक्ष्म गतीला व्यर्थ न जाऊ देता हे जाणतो की पुरुषार्थाचा आरंभ करण्याची सुरुवात प्रातःकाळ आहे. या निश्चयाने प्रातःकाळी उठून झोपण्याच्या वेळेपर्यंत एक क्षणही व्यर्थ घालवता कामा नये. त्यासाठी वेळेचे सार्थक जाणून माणसे सर्व काळी सुख भोगू शकतात; परंतु आळशी सुख भोगू शकत नाहीत. ॥ २० ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O Dawn, immortal light of the divine sun, lover of divine songs and stories, darling of the singers and celebrants, which mortal man is able to comprehend your beauty and bliss? Lady of Light, who do you see as such?
Subject of the mantra
Now, the user of this knowledge, morning’s preaching has been done in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vidvan)=scholar, (yā)=that, (iyam)=this, (amartyaḥ)=imperishable by causal influx, (kadhapriye)=loved in narrations, [aur]=and, (vibhāvayuḥ)=one illuminating the various worlds, (uṣaḥ)=in the early dawn hours, (bhuje)=to enjoy happiness, (prāpnoti)=is obtained, (tām)=to that, (prāpya)=having obtained, (tvam)=you, (kam)=any, (manuṣyam)=to man, (na)=not, (nakṣase)=get obtained, (kaḥ)=which, (bhuje) =consumer who enjoys, (martaḥ)=man, (te)= of you scholar, (sanīḍam)=near or in shelter (prāpnoti)=get obtained, (na)=not.
English Translation (K.K.V.)
O Scholar! Which of this imperishable by causal influx, loved in narrations and the early dawn hours, which illuminate the various worlds, is obtained to enjoy happiness. By attaining that you do not attain any man. Which enjoyer you do not get near the scholar or in his shelter?
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
In this mantra, the meaning of the word " kwa=who" has been used. Who knows the subtle movement of this time which is not worth going in vain? All human beings know exactly the down, named Uṣā at the time of the beginning of daily routine efforts. That is why all human beings should not waste time even for a moment until they wake up in the morning and go into deep sleep. Knowing this, people can enjoy happiness all the time, but not those who are lazy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Now the time for this knowledge (Dawn) is taught in the 20th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned man, the immortal (by the Pravaaha or Cycle) charming dawn which illuminates the world and in which the recitation of the Mantras and their exposition is pleasant, comes every day for giving you the enjoyment of happiness. Who is the person that does not approach you for getting true happiness by receiving proper instruction from you ?
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(कधप्रिये ) कथनं कथा प्रिया यस्यां सा । अत्न वर्णव्यत्ययेन थकारस्य स्थाने धकारः ॥ = The dawn in which the recitation of the Mantras and their exposition is particularly pleasant. (अमर्त्ये) कारणप्रवाहरूपेण नाशरहिता । = Imperishable in the form of the Cycle. ( नक्षसे) प्राप्नोषि नक्षति व्याप्तिकर्मा ( निघ० २.१८ ) = Pervades or approaches. ( विभावरी ) विविधं जगत् भाति दीपयति सा विभावरिं अत्र वनोरच् ( अष्टा० ४.१.९ ) अनेन ङीप् रेफादेशश्च । = That illuminates the various articles of the world.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Who is the person that can know the subtle and un-wastable movement of the time ? All men do not know the dawn which consists of the commencement of exertion? It is only the wise enlightened persons that know it thoroughly. Therefore men should not waste a single moment from the time of their rising up in the morning till they go to bed. It is only such persons who know the value of time that can always enjoy happiness and not lazy men.
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