ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 30/ मन्त्र 15
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
आ यद्दुवः॑ शतक्रत॒वा कामं॑ जरितॄ॒णाम्। ऋ॒णोरक्षं॒ न शची॑भिः॥
स्वर सहित पद पाठआ । यत् । दुवः॑ । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । आ । काम॑म् । ज॒रि॒तॄ॒णाम् । ऋ॒णोः । अक्ष॑म् । न । शची॑भिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यद्दुवः शतक्रतवा कामं जरितॄणाम्। ऋणोरक्षं न शचीभिः॥
स्वर रहित पद पाठआ। यत्। दुवः। शतक्रतो इति शतऽक्रतो। आ। कामम्। जरितॄणाम्। ऋणोः। अक्षम्। न। शचीभिः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 30; मन्त्र » 15
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तत्सेवनात् किं फलमित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे शतक्रतो सभापते ! त्वं जरितृभिः यत्तव दुवः परिचरणं तत् प्राप्य शचीभिः शकटार्हकर्मभिरक्षं न इव तेषां जरितॄणां कामं आऋणोः तदनुकूलं प्रापयसि॥१५॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (यत्) वक्ष्यमाणम् (दुवः) परिचरणम् (शतक्रतो) शतविधप्रज्ञाकर्मयुक्त सभेश राजन् (आ) अभितः पूर्त्यर्थे (कामम्) काम्यते यस्तम्। (जरितॄणाम्) गुणकर्मस्तावकानाम् (ऋणोः) प्रापयसि। अस्यापि सिद्धिः पूर्ववत् (अक्षम्) अश्यन्ते व्याप्यन्ते प्रशस्ता व्यवहारा येन तम् (न) इव (शचीभिः) कर्मभिः॥१५॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा सभास्वामी राजा विद्वत्सेवनं विद्यार्थिनामभीष्टं पूरयति तथा परमेश्वरस्य सेवनं धार्मिकाणां जनानां सर्वमभीष्टं प्रापयति तस्मात्सर्वैर्मनुष्यैस्तत् सेवनीयमिति॥१५॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसके सेवन से क्या फल होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे (शतक्रतो) अनेकविध विद्या बुद्धि वा कर्मयुक्त राजसभा स्वामिन् ! आप स्तुति करनेवाले धार्मिक जनों से (तत्) जो आप का (दुवः) सेवन है, उस को प्राप्त होकर (शचीभिः) रथ के योग्य कर्मों से (अक्षम्) उसकी धुरी के (न) समान उन (जरितॄणाम्) स्तुति करनेवाले धार्मिक जनों की (कामम्) कामनाओं को (आ) (ऋणोः) अच्छी प्रकार पूरी करते हो॥१५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे विद्वानों का सेवन विद्यार्थियों का अभीष्ट अर्थात् उनकी इच्छा के अनुकूल कामों को पूरा करता है, वैसे परमेश्वर का सेवन धार्मिक सज्जन मनुष्यों का अभीष्ट पूरा करता है। इसलिये उनको चाहिये कि परमेश्वर की सेवा नित्य करें॥१५॥
विषय
फिर उसके सेवन से क्या फल होता है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे शतक्रतो सभापते ! त्वं जरितृभिः यत् तव दुवः परिचरणं तत् प्राप्य शचीभिः शकटाहः कर्मभिः अक्षं न इव तेषां जरितॄणां कामम् आ ऋणोः तदनुकूलं प्रापयसि॥१५॥
पदार्थ
हे (शतक्रतो) शतविधप्रज्ञाकर्मयुक्त सभेश राजन्=अनेकविध विद्या बुद्धि वा कर्मयुक्त, (सभापते)=राजसभा स्वामिन् ! (त्वम्)=आप, (जरितृभिः) गुणकर्मस्तावकानाभिः=गुण कर्मों की स्तुति करने वाले के द्वारा, (यत्) वक्ष्यमाणम्= जो कही जानी है, (तव)=उसके, (दुवः) परिचरणम्=सेवन के लिये, (तत्)=उसको, (प्राप्य)=प्राप्त किये जाने योग्य, (शचीभिः) कर्मभिः=कर्मों के द्वारा, (शकटाहः)=परिचरणम् =सेवन के लिये, (कर्मभिः)=कर्मों के द्वारा, (अक्षम्) अश्यन्ते व्याप्यन्ते प्रशस्ता व्यवहारा येन तम्=जिनसे प्रशंसनीय व्यवहार व्याप्त होते हैं, (न) इव=ऐसे, (तेषाम्)=उनको, (जरितॄणाम्) गुणकर्मस्तावकानाम्==गुण कर्मों की स्तुति करने वालों को, (कामम्) काम्यते यस्तम्= जो कामना करते हैं, उनको, (आ) अभितः पूर्त्यर्थे=हर ओर से पूर्ति के लिये, (ऋणोः) प्रापयसि= प्राप्त करते हो॥१५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सभा का स्वामी राजा विद्वानों का सेवन और विद्यार्थियों की अभीष्ट पूर्ति करता है, वैसे ही परमेश्वर का सेवन, धार्मिक लोगों के समस्त अभीष्ट पूरा करता है। इसलिये सब मनुष्योंके द्वारा उसकी नित्य सेवा की जानी चाहिए॥१५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (शतक्रतो) अनेकविध विद्या बुद्धि वा कर्मयुक्त (सभापते) राजसभा के स्वामिन् ! (त्वम्) आप (जरितृभिः) गुण कर्मों की स्तुति करने वाले के द्वारा (यत्) जो कही जानी है, (तव) उस वाणी के (दुवः) सेवन के लिये (तत्) उसको (प्राप्य) प्राप्त किये जाने योग्य (शचीभिः) कर्मों के द्वारा (शकटाहः) सेवन के लिये (कर्मभिः) कर्मों के द्वारा (अक्षम्) जिनसे प्रशंसनीय व्यवहार व्याप्त होते हैं, (न) उनके समान (तेषाम्) उन (जरितॄणाम्) गुण कर्मों की स्तुति करने वालों की (कामम्) जो कामना करते हो, उनको (आ) हर ओर से पूर्ति के लिये (ऋणोः) प्राप्त करते हो॥१५॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आ) समन्तात् (यत्) वक्ष्यमाणम् (दुवः) परिचरणम् (शतक्रतो) शतविधप्रज्ञाकर्मयुक्त सभेश राजन् (आ) अभितः पूर्त्यर्थे (कामम्) काम्यते यस्तम्। (जरितॄणाम्) गुणकर्मस्तावकानाम् (ऋणोः) प्रापयसि। अस्यापि सिद्धिः पूर्ववत् (अक्षम्) अश्यन्ते व्याप्यन्ते प्रशस्ता व्यवहारा येन तम् (न) इव (शचीभिः) कर्मभिः॥१५॥
विषयः- पुनस्तत्सेवनात् किं फलमित्युपदिश्यते॥
अन्वयः- हे शतक्रतो सभापते ! त्वं जरितृभिः यत्तव दुवः परिचरणं तत् प्राप्य शचीभिः शकटार्हकर्मभिरक्षं न इव तेषां जरितॄणां कामं आऋणोः तदनुकूलं प्रापयसि॥१५॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा सभास्वामी राजा विद्वत्सेवनं विद्यार्थिनामभीष्टं पूरयति तथा परमेश्वरस्य सेवनं धार्मिकाणां जनानां सर्वमभीष्टं प्रापयति तस्मात्सर्वैर्मनुष्यैस्तत् सेवनीयमिति॥१५॥
विषय
प्रज्ञा , वाणी व कर्म
पदार्थ
१. हे (शतक्रतो) - सैकड़ों प्रज्ञाओं व कर्मोंवाले प्रभो ! आप (जरितॄणाम्) - स्तोताओं को (यत्) - जो (दुवः) - धन [दुवस् - wealth] (कामम्) - चाहने योग्य पदार्थों को (आ ऋणोः) - सर्वथा प्राप्त कराते हैं , यह सब (शचीभिः) - [कर्मनाम नि० २/१ , वाङ्नाम १/११ , प्रज्ञानाम ३/९] कर्म , वाणी व प्रज्ञा के हेतु से (अक्षं न) - दो पहियों के बीच में वर्तमान अक्ष के समान है ।
२. जैसे दो पहियों के बीच में अक्ष होता है , उसी प्रकार यहाँ प्रज्ञा और कर्म के बीच में वाणी है । दोनों पहिये तथा अक्ष साथ - साथ ही घूमते हैं , उसी प्रकार प्रज्ञा , वाणी और कर्म साथ - साथ चलते हैं । प्रत्येक कर्म पहले विचार के रूप में होता है [प्रज्ञा] , फिर उच्चारण [वाङ्] के रूप में आता है और अन्ततः आचरण [कर्म] का रूप धारण करता है ।
३. प्रभु हमें जो भी धन प्राप्त कराते हैं या काम्य पदार्थों को देते हैं , वह सब इसलिए कि हम 'प्रज्ञा , वाणी व कर्मों' को सुन्दर बना सकें । इन सब धनों व काम्य पदार्थों का अतियोग व अयोग न करते हुए हम यथायोग्य सेवन करेंगे तो हम इन सभी को अनन्त कर सकेंगे ।
भावार्थ
भावार्थ - हम प्रभु के स्तोता बनें , प्रभु हमें धनों व इष्ट पदार्थों को इसलिए प्राप्त कराएँ कि हमारी 'प्रज्ञा , वाणी व कर्म' पवित्र बनें ।
विषय
अक्ष या धुरे के दृष्टान्त से मुख्य पुरुष का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
(अक्षं न) जिस प्रकार चक्रों का धुरा (शचीभिः) क्रियाओं द्वारा गति करता हुआ (कामं) इष्ट देश को प्राप्त कराता है उसी प्रकार हे (शतक्रतो) सैकड़ों प्रजाओं और कर्मों में कुशल ईश्वर! राजन्! विद्वन्! सभापते! तेरी (यत्) जो (दुवः) परिचर्या, सेवा है वह भी (जरितृणाम्) स्तोता विद्वान् पुरुषों को (शचीभिः) अपनी बुद्धियों और कर्मों से (कामं) अभीष्ट फल को (ऋणोः) प्राप्त कराता है। इति त्रिंशद् वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः ॥ देवता—१—१६ इन्द्रः । १७–१९ अश्विनौ । २०–२२ उषाः॥ छन्दः—१—१०, १२—१५, १७—२२ गायत्री। ११ पादनिचृद् गायत्री । १६ त्रिष्टुप् । द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा विद्वानांचा स्वीकार केल्यामुळे विद्यार्थ्यांचे अभीष्ट अर्थात त्यांच्या इच्छेच्या अनुकूल काम पूर्ण होते, तसा परमेश्वराचा स्वीकार केल्यामुळे धार्मिक सज्जन माणसांचे अभीष्ट पूर्ण होते. त्यासाठी त्यांनी परमेश्वराची नित्य भक्ती करावी. ॥ १५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Lord of a hundred blissful acts of the yajna of creation, who by the prayers and pious actions of the celebrants come into their vision and experience like the axis of a wheel, you fulfill their love and desire wholly and entirely.
Subject of the mantra
Then, what result is deduced by serving that, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (śatakrato)=diverse scholarship, intellect or karmic, (sabhāpate)=lord of the royal Assembly, (tvam)=you, (jaritṛbhiḥ)=by one who praises virtues and deeds, (yat)=what has to be said, (tava)=of that speech, (duvaḥ)=for the use of, (tat)=for him, (prāpya)=attainable, (śacībhiḥ)=by the deeds, (śakaṭāhaḥ)=for the use, (karmabhiḥ)=by the deeds, (akṣam)=from whom admirable conduct prevails, (na)=like them, (teṣām)=those, (jaritṝṇām)=who praise virtues and deeds, (kāmam) =those who desire, to them, (ā)=for all round fulfillment, (ṛṇoḥ) =you get obtained.
English Translation (K.K.V.)
O Lord of the royal assembly with diverse scholarship, intelligence and deeds! For the use of that speech which is to be spoken by the one who praises you, for the use of it by the deeds that are attainable, by the deeds that pervade praiseworthy conduct, similar to those virtuous deeds Whatever you wish for those who praise you, you get them fulfilled from all sides.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. Just as the master king of the Assembly serves the scholars and fulfills the wishes of the students, so the intake of the God fulfills all the wishes of the righteous people. Therefore He should be served regularly by all human beings.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What is the result of serving Indra is taught in the fifteenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
(1) O President of the Assembly, performer of numberless acts and endowed with sharp intellect, being served by your admirers, your fulfil their noble desires, with the constancy that all the movements of the cart tend to the axle.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(दुव:) परिचरणम् = Service or worship. (ॠणो:) प्रापयसि = Causest to attain. (अक्षम् ) अश्यन्ते व्याप्यन्ते प्रशस्ता व्यवहारा येन तम् = Pervading noble works.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara or simile used in the Mantra. As a King who is president of the council of ministers serves learned men and fulfils the desires of the students, in the same manner, the worship of God fulfils all the desires of righteous persons. Therefore all men should adore God.
Translator's Notes
दुव: has been explained by Rishi Dayananda as परिचरणम् It is derived from दुवस् परिताप परिचरणयो: (कण्ड्वादिगणीयः) so the second meaning of the verb has been taken by the commentator. In the Vedic Lexicon Nighantu 3.5 also it is stated दुवस्यति परिचरण कर्मा ( निघ० ३.५) So Rishi Dayananda's interpretation is well-authenticated.
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