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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 30/ मन्त्र 11
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒स्माकं॑ शि॒प्रिणी॑नां॒ सोम॑पाः सोम॒पाव्ना॑म्। सखे॑ वज्रि॒न्त्सखी॑नाम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्माक॑म् । शि॒प्रिणी॑नाम् । सोम॑ऽपाः । सो॒म॒ऽपाव्ना॑म् । सखे॑ । व॒ज्रि॒न् । सखी॑नाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्माकं शिप्रिणीनां सोमपाः सोमपाव्नाम्। सखे वज्रिन्त्सखीनाम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्माकम्। शिप्रिणीनाम्। सोमऽपाः। सोमऽपाव्नाम्। सखे। वज्रिन्। सखीनाम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 30; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सभासेनाध्यक्षप्राप्तीच्छाकरणमुपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे सोमपा वज्रिन् ! सोमपाव्नां सखीनामस्माकं सखीनां शिप्रिणीनां स्त्रीणां च सर्वप्रधानं त्वा त्वां वयमाशास्महे प्राप्तुमिच्छामः॥११॥

    पदार्थः

    (अस्माकम्) विदुषां सकाशाद् गृहीतोपदेशानाम् (शिप्रिणीनाम्) शिप्रे ऐहिकपारमार्थिकव्यवहारज्ञाने विद्येते यासां ता विदुष्यः स्त्रियस्तासाम्। शिप्रे इति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.३)। अनेनात्र ज्ञानार्थो गृह्यते। (सोमपाः) सोमान् उत्पादितान् कार्याख्यान् पदार्थान् पाति रक्षति तत्संबुद्धौ (सोमपाव्नाम्) सोमानां पावनो रक्षकास्तेषाम् (सखे) सर्वसुखप्रद (वज्रिन्) वज्रोऽविद्यानिवारकः प्रशस्तो बोधो विद्यते यस्य तत्संबुद्धौ। अत्र व्रजेर्गत्यर्थाज्ज्ञानार्थे प्रशंसायां मतुप्। (सखीनाम्) सर्वमित्राणां पुरुषाणां सखीनां स्त्रीणां वा॥११॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। पूर्वस्मान्मन्त्रात् (त्वा) (वयम्) (आ) (शास्महे) इति पदचतुष्टयाऽनुवृत्तिः। सर्वैः पुरुषैः सर्वाभिः स्त्रीभिश्च परस्परं मित्रतामासाद्य परमेश्वरोपासनाऽऽर्यराजविद्या धर्मसभा सर्वव्यवहारसिद्धिश्च प्रयत्नेन सदैव सम्पादनीया॥११॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर सभा सेनाध्यक्ष के प्राप्त होने की इच्छा करने का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (सोमपाः) उत्पन्न किये हुए पदार्थ की रक्षा करनेवाले (वज्रिन्) सब अविद्यारूपी अन्धकार के विनाशक उत्तम ज्ञानयुक्त (सखे) समस्त सुख देने और (सोमपाव्नाम्) सांसारिक पदार्थों की रक्षा करनेवाले (सखीनाम्) सबके मित्र हम लोगों के तथा (सखीनाम्) सबका हित चाहनेहारी वा (शिप्रिणीनाम्) इस लोक और परलोक के व्यवहार ज्ञानवाली हमारी स्त्रियों को सब प्रकार से प्रधान (त्वा) आप को (वयम्) करनेवाले हम लोग (आशास्महे) प्राप्त होने की इच्छा करते हैं॥११॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है और पूर्व मन्त्र से (त्वा) (वयम्) (आ) (शास्महे) इन चार पदों की अनुवृत्ति है। सब पुरुष वा सब स्त्रियों को परस्पर मित्रभाव का वर्त्ताव कर व्यवहार की सिद्धि के लिये परमेश्वर की प्रार्थना वा आर्य्य राजविद्या और धर्म सभा प्रयत्न के साथ सदा सम्पादन करनी चाहिये॥११॥

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    विषय

    फिर सभा सेनाध्यक्ष के प्राप्त होने की इच्छा करने का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे सोमपा वज्रिन् ! सोमपाव्नां सखीनां अस्माकं सखीनां शिप्रिणीनां स्त्रीणां च सर्वप्रधानं त्वा त्वां वयम् आ शास्महे प्राप्तुम् इच्छामः॥११॥

    पदार्थ

    हे (सोमपाः) सोमान् उत्पादितान् कार्याख्यान् पदार्थान् पाति रक्षति तत्संबुद्धौ=सोम से उत्पन्न किये हुए पदार्थ की रक्षा करनेवाले, (वज्रिन्) वज्रोऽविद्यानिवारकः प्रशस्तो बोधो विद्यते यस्य तत्संबुद्धौ=अविद्या, अन्धकार के निवारक उत्तम ज्ञान से युक्त सभाऔर सेना के अध्यक्ष!  (सोमपाव्नाम्) सोमानां पावनो रक्षकास्तेषाम्=जो सोम से पवित्र और रक्षक हैं, उन, (सखीनाम्) सर्वमित्राणां पुरुषाणां सखीनां स्त्रीणां वा= सब मित्र पुरुषों और सखी स्त्रियों के  (अस्माकम्) विदुषां सकाशाद् गृहीतोपदेशानाम्=हम विद्वानों द्वारा निकट से ग्रहण किये गये उपदेश,  (शिप्रिणीनाम्) शिप्रे ऐहिकपारमार्थिकव्यवहारज्ञाने विद्येते यासां ता विदुष्यः स्त्रियस्तासाम्= इस लोक और परलोक के व्यवहार ज्ञानवाली ऐसी सुशोभित विदुषी,  (स्त्रीणाम्)= स्त्रियों के (च)=और, (सर्वप्रधानम्)=सबसे प्रधान, (त्वाम्)=तुमको, (वयम्)=हम, (आ)=सब प्रकार से, (शास्महे)=[प्राप्त करने की] इच्छा करते हैं॥११॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। पूर्व मन्त्र से “त्वा”, “वयम्”, “आ” और “शास्महे” इन चार पदों की अनुवृत्ति है। सब पुरुष और सब स्त्रियों के द्वारा परस्पर मित्रभाव को प्रापात करके परमेश्वर की उपासना, आर्यों के द्वारा की जानेवाली राजविद्या, धर्मसभा और समस्त व्यवहारों की सिद्धि प्रयत्न के साथ सदा सम्पादित की जानी चाहिये ॥११॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणियाँ- इस मन्त्र में प्रयोग किए गए राजविद्या और धर्मसभा को इस प्रकार से परिभाषित करते हैं-
    राजविद्या- इस मन्त्र में प्रयुक्त राजविद्या को महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेद के मन्त्र संख्या 03-38-06 के भावार्थ में इस प्रकार वर्णित किया है- उत्तम गुण कर्म और स्वभाववाले यथार्थ वक्ता विद्वान् पुरुषों की राजसभा विद्यासभा और धर्मसभा नियत कर और सम्पूर्ण राज्यसम्बन्धी कर्मों को यथायोग्य सिद्ध कर सकल प्रजा को निरन्तर सुखी दीजिये। इस प्रकार राज्यसम्बन्धी कर्मों को यथायोग्य सिद्ध करना राजविद्या है ॥११॥
    धर्मसभा- धर्म सभा राजविद्या के अन्तर्गत वर्णित की गई की गई है। यह राजा द्वारा नियत की जाती थी, जिसका कार्य धर्म सम्बन्धी विषयों पर निर्णय लेना होता था।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (सोमपाः) सोम से उत्पन्न किये हुए पदार्थ की रक्षा करनेवाले, (वज्रिन्) अविद्या और अन्धकार के निवारक, उत्तम ज्ञान से युक्त सभा और सेना के अध्यक्ष!  (सोमपाव्नाम्) जो सोम से पवित्र और रक्षक हैं, उन (सखीनाम्) सब मित्र पुरुषों और सखी स्त्रियों के  (अस्माकम्) हम विद्वानों द्वारा निकट से ग्रहण किये गये उपदेश,  (शिप्रिणीनाम्) इस लोक और परलोक के व्यवहार ज्ञानवाली ऐसी सुशोभित विदुषी (स्त्रीणाम्) स्त्रियों के (च) और (सर्वप्रधानम्) सबसे प्रधान (त्वाम्) तुमको (वयम्) हम (आ) सब प्रकार से (शास्महे) [प्राप्त करने की] इच्छा करते हैं॥११॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अस्माकम्) विदुषां सकाशाद् गृहीतोपदेशानाम् (शिप्रिणीनाम्) शिप्रे ऐहिकपारमार्थिकव्यवहारज्ञाने विद्येते यासां ता विदुष्यः स्त्रियस्तासाम्। शिप्रे इति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.३)। अनेनात्र ज्ञानार्थो गृह्यते। (सोमपाः) सोमान् उत्पादितान् कार्याख्यान् पदार्थान् पाति रक्षति तत्संबुद्धौ (सोमपाव्नाम्) सोमानां पावनो रक्षकास्तेषाम् (सखे) सर्वसुखप्रद (वज्रिन्) वज्रोऽविद्यानिवारकः प्रशस्तो बोधो विद्यते यस्य तत्संबुद्धौ। अत्र व्रजेर्गत्यर्थाज्ज्ञानार्थे प्रशंसायां मतुप्। (सखीनाम्) सर्वमित्राणां पुरुषाणां सखीनां स्त्रीणां वा॥११॥
    विषयः- पुनः सभासेनाध्यक्षप्राप्तीच्छाकरणमुपदिश्यते॥

    अन्वयः- हे सोमपा वज्रिन् ! सोमपाव्नां सखीनामस्माकं सखीनां शिप्रिणीनां स्त्रीणां च सर्वप्रधानं त्वा त्वां वयमाशास्महे प्राप्तुमिच्छामः॥११॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषालङ्कारः। पूर्वस्मान्मन्त्रात् (त्वा) (वयम्) (आ) (शास्महे) इति पदचतुष्टयाऽनुवृत्तिः। सर्वैः पुरुषैः सर्वाभिः स्त्रीभिश्च परस्परं मित्रतामासाद्य परमेश्वरोपासनाऽऽर्यराजविद्या धर्मसभा सर्वव्यवहारसिद्धिश्च प्रयत्नेन सदैव सम्पादनीया॥११॥

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    विषय

    शिप्री - सोमपा - सखा

    पदार्थ

    १. हे (सखे) - सखिभूत प्रभो ! (वज्रिन्) - वज्र [क्रियाशीलता] के द्वारा हमारे सब शत्रुओं का संहार करनेवाले प्रभो ! (अस्माकम्) - हम (शिप्रिणीनाम्) - उत्तम जबड़े व नासिकावालों को , अर्थात् सात्त्विक भोजन का सेवन करनेवाले तथा प्राणसाधना के अभ्यासियों का (सोमपाव्नाम्) - सात्त्विक भोजन व प्राणायाम द्वारा अपने सोम की रक्षा करनेवालों का और इस सोमपान के द्वारा (सखीनाम्) - आपकी मित्रता को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हम लोगों के (सोमपाः) - सोम का रक्षण करनेवाले आप ही हैं । 

    २. इस सोमपान का सम्भव आपकी कृपा से ही होता है । सोम के रक्षण का साधन 'शिप्रिन्' बनाना है और इसका परिणाम आपका सख्य है । 'शिप्रिन्' बनकर हम सोम का रक्षण करते हैं और आपके सखित्व को प्राप्त करते हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम 'शिप्रिन्' बनकर सोमपावन् हों और प्रभु के सखा बनें । 

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    विषय

    संग्रामार्थ सेनापति की प्रधान पद पर प्रतिष्ठा ।

    भावार्थ

    हे (सोमपाः) सोम, नाना उत्पादित कार्य, पदार्थ, ऐश्वर्य आनन्द ज्ञान तथा राष्ट्र के पालक! राजन्! विद्वन्! ईश्वर! (शिप्रिणीनां) ज्ञान से युक्त हम स्त्रियों का और (सोमपाव्नाम्) सोम, अन्न, ज्ञान, बलैश्वर्य राष्ट्रादि के पालक और (सखीनाम्) मित्र भाव से रहनेवाले (अस्माकं) हम स्त्रियों और पुरुषों में से सभी का तू हितकारी है। तुझे हम प्राप्त करना चाहते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः ॥ देवता—१—१६ इन्द्रः । १७–१९ अश्विनौ । २०–२२ उषाः॥ छन्दः—१—१०, १२—१५, १७—२२ गायत्री। ११ पादनिचृद् गायत्री । १६ त्रिष्टुप् । द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. पूर्वीच्या मंत्राने (त्वा) (वयम्)(आ) (शास्महे) या चार पदांची अनुवृत्ती होते. सर्व पुरुष व सर्व स्त्रियांनी परस्पर मैत्रीचे वर्तन करून व्यवहार सिद्धीसाठी परमेश्वराची प्रार्थना आर्य राजविद्या व धर्मसभा सदैव प्रयत्नपूर्वक संपादन करावी. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Friend of friends, benign protector of the protectors of soma, life’s joy, lord of the thunderbolt of light and lightning, supreme deity of us all and of all noble women, we love and pray for light and life divine.

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    Subject of the mantra

    Then, desiring to get the chief of assembly and commandant of the army has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (somapāḥ)=Protector of the substance produced from Soma, (vajrin)= President of the Assembly and Army with the best knowledge to prevent ignorance and darkness! (somapāvnām)=those who are pure and protector by Soma, (sakhīnām)=to all the friends of men and women, (asmākam)=the teachings e received closely by us as scholars, (śipriṇīnām)=such a graceful lady scholar with knowledge of the practice of this world and the hereafter, (strīṇām)=of ladies, (ca)=and,(sarvapradhānam)=most prominent, (tvām)=to you, (vayam)=we, (ā)=in every way, (śāsmahe)=desire to obtain.

    English Translation (K.K.V.)

    O Protector of the substances created from the Soma, the remover of ignorance and darkness, the president of the assembly and army with perfect knowledge! Those who are pure and protectors from Soma, the teachings received from close quarters by us scholars of all friendly men and of such graceful wise women with knowledge of the practice of this world and the hereafter, and above all desire to obtain you in every way.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is paronomasia as a figurative in this mantra. Four terms- “tvā”, “vayam”, “ā” and “śāsmahe” are being followed from the previous mantra. The worship of the God by achieving mutual friendship by all men and all women, the rājavidyā performed by the Aryans, the dharmasabhā and the accomplishment of all behavior should always be performed with effort.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    Rājavidyā and dharmasabhā described in this mantra are defined as follows- Rajvidya- Rajvidya described in this mantra, has been explained by Maharshi Dayanand in the gist of Rigveda 03-38-06 as given below- Give constant happiness to the all people by appointing the Rajya Sabha, Vidyasabha and Dharma Sabha of learned men with good qualities, deeds and disposition, and by accomplishing the entire state-related works competently. In this way, to accomplish the deeds related to the state as competently is Rajvidya. Dharmasabha- Dharma Sabha (assembly) has been described under Rajvidya. It was appointed by the king, whose function was to decide on matters related to religion.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The desire of getting the president of the assembly and commander-in-chief of the army is taught in the 11th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O our friend full of wisdom that destroys all ignorance or protector of all created objects, giver of all happiness, we desire to attain Thee who art the master of us-men taught by the wise and women full of spiritual and secular knowledge, and friendly to all, protector of all good things.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( शिप्रिणीनाम् ) शिमे ऐहिकपारमार्थिक व्यवहारज्ञाने विद्येते यासां ता विदुष्य: स्त्रियः तासाम् । शिप्रे इति पदनामसु पठितम् ( निघ० ४.३) । अनेनात ज्ञानार्थो गृह्यते ॥ = Women Possessing spiritual and secular knowledge. ( सोमपा:) उत्पादितान् कार्याख्यान पदार्थान पाति रक्षति तत्सम्बुद्धौ । = O protector of all created objects. ( वज्रिन ) वज्रः अविद्यानिवारकः प्रशस्तो बोधः विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धौ । = Full of knowledge dispelling all darkness.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All men and women having mutual friendship should have communion with God and with industriousness should get the knowledge of Aryan (noble) system of administration, religious assembly and accomplishment of all dealings and works.

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