ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 30/ मन्त्र 6
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
ऊ॒र्ध्वस्ति॑ष्ठा न ऊ॒तये॒ऽस्मिन्वाजे॑ शतक्रतो। सम॒न्येषु॑ ब्रवावहै॥
स्वर सहित पद पाठऊ॒र्ध्वः । ति॒ष्ठ॒ । नः॒ । ऊ॒तये॑ । अ॒स्मिन् । वाजे॑ । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । सम् । अ॒न्येषु॑ । ब्र॒वा॒व॒है॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्ध्वस्तिष्ठा न ऊतयेऽस्मिन्वाजे शतक्रतो। समन्येषु ब्रवावहै॥
स्वर रहित पद पाठऊर्ध्वः। तिष्ठ। नः। ऊतये। अस्मिन्। वाजे। शतक्रतो इति शतऽक्रतो। सम्। अन्येषु। ब्रवावहै॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 30; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरयं कीदृश इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे शतक्रतो ! नोऽस्माकमूतये ऊर्ध्वस्तिष्ठैवं सति वाजेऽन्येषु साधनीयेषु कर्मसु त्वं प्रतिजनोऽहं च द्वौ द्वौ सम्ब्रवावहै॥६॥
पदार्थः
(ऊर्ध्वः) सर्वोपरि विराजमानः (तिष्ठ) स्थिरो भव। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (ऊतये) रक्षणाद्याय (अस्मिन्) वर्त्तमाने (वाजे) युद्धे (शतक्रतो) शतानि बहुविधानि कर्माणि वा बहुविधा प्रज्ञा यस्य तत्सम्बुद्धौ। सभासेनाध्यक्ष (सम्) सम्यगर्थे (अन्येषु) युद्धेतरेषु साधनीयेषु कार्येषु (ब्रवावहै) परस्परमुपदेशश्रवणे नित्यं कुर्य्यावहै॥६॥
भावार्थः
सत्याचारैर्ध्यानावस्थितैर्मनुष्यैरात्मस्थानान्तर्यामिजगदीश्वरस्याज्ञया सेनाधिष्ठात्रा सभाध्यक्षेण च सत्यासत्ययोः कर्तव्याकर्तव्ययोश्च सम्यङ्निश्चयः कार्यो नैतेन विना कदाचित् कस्यचिद्विजयसत्यबोधौ भवतः। ये सर्वव्यापिनं जगदीश्वरं न्यायाधीशं मत्वा धार्मिकं शूरवीरं च सेनापतिं कृत्वा शत्रुभिः सह युध्यन्ति तेषां ध्रुवो विजयो नेतरेषामिति॥६॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर यह सभाध्यक्ष वा सेनापति कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे (शतक्रतो) अनेक प्रकार के कर्म वा अनेक प्रकार की बुद्धियुक्त सभा वा सेना के स्वामी ! जो आप के सहाय के योग्य हैं, उन सब कार्यों में हम (सम्ब्रवावहै) परस्पर कह सुन सम्मति से चलें और तू (नः) हम लोगों की (ऊतये) रक्षा करने के लिये (ऊर्ध्वः) सभों से ऊँचे (तिष्ठ) बैठ। इस प्रकार आप और हम सभों में प्रतिजन अर्थात् दो-दो होकर (वाजे) युद्ध तथा (अन्येषु) अन्य कर्त्तव्य जो कि उपदेश वा श्रवण है, उस को नित्य करें॥६॥
भावार्थ
सत्य प्रचार के विचारशील पुरुषों को योग्य है कि जो अपने आत्मा में अन्तर्यामी जगदीश्वर है, उसकी आज्ञा से सभापति वा सेनापति के साथ सत्य और मिथ्या करने और न करने योग्य कामों का निश्चय करना चाहिये। इसके विना कभी किसी को विजय या सत्य बोध नहीं हो सकता। जो सर्वव्यापी जगदीश्वर न्यायाधीश को मानकर वा धार्मिक शूरवीर को सेनापति करके शत्रुओं के साथ युद्ध करते हैं, उन्हीं का निश्चय से विजय होता है, औरों का नहीं॥६॥
विषय
फिर यह सभाध्यक्ष वा सेनापति कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे शतक्रतो ! नः अस्माकम् ऊतये ऊर्ध्वः तिष्ठ एवं सति वाजे अन्येषु साधनीयेषु कर्मसु त्वं प्रतिजनः अहं च द्वौ द्वौ सं ब्रवावहै॥६॥
पदार्थ
हे (शतक्रतो) शतानि बहुविधानि कर्माणि वा बहुविधा प्रज्ञा यस्य तत्सम्बुद्धौ सभासेनाध्यक्ष!=अनेक प्रकार के कर्म वा अनेक प्रकार की बुद्धि से युक्त सभा और सेना के स्वामी ! (नः) अस्माकम्=हमारी, (ऊतये) रक्षणाद्याय= रक्षा करने के लिये, (ऊर्ध्वः) सर्वोपरि विराजमानः=सर्वोपरि स्थान में, (तिष्ठ) स्थिरो भव= बैठ कर, (एवम्)=ऐसा, (सति)=होने पर, (वाजे) युद्धे= युद्ध में, (अन्येषु) युद्धेतरेषु साधनीयेषु कार्येषु=युद्ध से भिन्न साधनों और कार्यों में, (त्वम्)=तुमसे, (प्रतिजनः)=प्रत्येक व्यक्ति में, (अहम्)=मैं, (च)=भी, (द्वौ द्वौ)=दो दो के क्रम में, (सम्) सम्यगर्थे=सम्यक् रूप से, (ब्रवावहै) परस्परमुपदेशश्रवणे नित्यं कुर्य्यावहै=परस्पर उपदेश सुनने का कार्य नित्य करें॥६॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
सत्य आचार के द्वारा ध्यान में स्थित मनुष्य के द्वाराआत्मा में स्थित अन्तर्यामी जगदीश्वर की आज्ञा से सेनापति और सभापति के सत्य और असत्य कर्तव्य और अकर्तव्य का भी उचित रूप से निश्चय करना चाहिये। इसके विना कभी किसी को विजय का सत्य बोध नहीं हो सकता है। जो सर्वव्यापी जगदीश्वर न्यायाधीश को मानकर धार्मिक और शूरवीर को सेनापति बना करके शत्रुओं के साथ युद्ध करते हैं, उन्हीं का निश्चय से विजय होता है, अन्यों का नहीं॥६॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (शतक्रतो) अनेक प्रकार के कर्म वा अनेक प्रकार की बुद्धि से युक्त सभा और सेना के स्वामी ! (नः) हमारी (ऊतये) रक्षा करने के लिये (ऊर्ध्वः) सर्वोपरि स्थान में (तिष्ठ) बैठ कर (एवम्) और ऐसा (सति) होने पर (वाजे) युद्ध में, (अन्येषु) युद्ध से भिन्न साधनों और कार्यों में (त्वम्) तुम (च) और (अहम्) मैं (प्रतिजनः) प्रत्येक व्यक्ति मंे (द्वौ द्वौ) दो दो के क्रम में (सम्) सम्यक् रूप से (ब्रवावहै) परस्पर उपदेश सुनने का कार्य नित्य करें॥६॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (ऊर्ध्वः) सर्वोपरि विराजमानः (तिष्ठ) स्थिरो भव। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (ऊतये) रक्षणाद्याय (अस्मिन्) वर्त्तमाने (वाजे) युद्धे (शतक्रतो) शतानि बहुविधानि कर्माणि वा बहुविधा प्रज्ञा यस्य तत्सम्बुद्धौ। सभासेनाध्यक्ष (सम्) सम्यगर्थे (अन्येषु) युद्धेतरेषु साधनीयेषु कार्येषु (ब्रवावहै) परस्परमुपदेशश्रवणे नित्यं कुर्य्यावहै॥६॥
विषयः- पुनरयं कीदृश इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः- हे शतक्रतो ! नोऽस्माकमूतये ऊर्ध्वस्तिष्ठैवं सति वाजेऽन्येषु साधनीयेषु कर्मसु त्वं प्रतिजनोऽहं च द्वौ द्वौ सम्ब्रवावहै॥६॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- सत्याचारैर्ध्यानावस्थितैर्मनुष्यैरात्मस्थानान्तर्यामिजगदीश्वरस्याज्ञया सेनाधिष्ठात्रा सभाध्यक्षेण च सत्यासत्ययोः कर्तव्याकर्तव्ययोश्च सम्यङ्निश्चयः कार्यो नैतेन विना कदाचित् कस्यचिद्विजयसत्यबोधौ भवतः। ये सर्वव्यापिनं जगदीश्वरं न्यायाधीशं मत्वा धार्मिकं शूरवीरं च सेनापतिं कृत्वा शत्रुभिः सह युध्यन्ति तेषां ध्रुवो विजयो नेतरेषामिति॥६॥
विषय
प्रभु - रक्षण
पदार्थ
१. गतमन्त्रों में दी गई प्रभु - प्रेरणा को सुननेवाला व्यक्ति प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे (शतक्रतो) - अनन्त प्रज्ञानों व कर्मोंवाले प्रभो ! (अस्मिन् वाजे) - इस संग्राम में (नः ऊतये) - हमारे रक्षण के लिए (ऊर्ध्वः तिष्ठा) - ऊपर खड़े होइए , अर्थात् आपका रक्षण हमें सदा प्राप्त हो । आपके रक्षण के बिना हम किसी भी संग्राम में जीत नहीं सकते । (अन्येषु) - अन्य सब कार्यों में भी (सं ब्रवावहै) - हम मिलकर बातचीत करें - आपकी प्रेरणा के अनुसार ही हम सब कार्यों को करनेवाले बनें । वस्तुतः आपकी प्रेरणा के अनुसार सब कार्य करते रहने पर संकटों के आने का प्रसङ्ग ही नहीं रहता और संसार में आ जानेवाले सभी संग्रामों में हमारी विजय होती है ।
२. 'प्रभु से बात करके कार्य करना' यह मानव के जीवन की बड़ी महत्त्वपूर्ण बात है । वास्तव में प्रभु पिता हैं , हम पुत्र । हमें प्रभु से पूछकर ही कार्य करना चाहिए । ऐसा करने पर पुत्र कभी भटकता नहीं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु की सहायता से हम संग्रामों में विजयी हों । प्रभु - प्रेरणा के अनुसार ही कार्य करें ।
विषय
संग्रामार्थ सेनापति की प्रधान पद पर प्रतिष्ठा ।
भावार्थ
हे (शतक्रतो) सैकड़ों कर्मों और प्रज्ञाओं से युक्त राजन्! सभाध्यक्ष! विद्वन्! परमेश्वर! तू (नः) हमारे (ऊतये) रक्षा करने के लिए (ऊर्ध्वः) सबसे ऊँचा होकर (अस्मिन्) इस संग्राम, राष्ट्र यज्ञ और ऐश्वर्य पद पर (तिष्ठ) विराज। और हम दोनों स्त्री-पुरुष, गुरु-शिष्य और राजप्रजा वर्ग मिलकर (अन्येषु) अपने से भिन्न अन्य शत्रुजनों में भी अथवा अन्य कार्यों और अवसरों पर भी (सं ब्रवावहै) परस्पर मिल कर तेरे गुणों का कथन किया करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः ॥ देवता—१—१६ इन्द्रः । १७–१९ अश्विनौ । २०–२२ उषाः॥ छन्दः—१—१०, १२—१५, १७—२२ गायत्री। ११ पादनिचृद् गायत्री । १६ त्रिष्टुप् । द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
सत्याचरणी विचारवान पुरुषांनी आपल्या आत्म्यातील अंतर्यामी जगदीश्वराच्या आज्ञेने सभापती व सेनापती यांच्याबरोबर सत्यासत्य, कर्तव्याकर्तव्यबोध यांचा निश्चय केला पाहिजे. त्याशिवाय कधी कुणालाही विजय प्राप्त होऊ शकत नाही. तसेच सत्यबोध होऊ शकत नाही. जे सर्वव्यापी जगदीश्वराला न्यायाधीश मानून धार्मिक शूरवीर सेनापतीद्वारे शत्रूंबरोबर युद्ध करतात, त्यांचाच विजय होतो, इतरांचा नव्हे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, hero of a hundred great acts of yajnic creation, rise and stay high for our defence and protection in this battle of life. And we would sing your praises in prayer with joy in other battles too together with you.
Subject of the mantra
Then, what kind of this commander in chief or chairperson is? This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (śatakrato) Lord of the assembly and army with many types of deeds and many types of intellects! (naḥ)=our, (ūtaye)=to protect (ūrdhvaḥ)=in the topmost place, (tiṣṭha)=sitting down, (evam)=and such, (sati)=happening, (vāje)=in war, (anyeṣu)=In means and works other than war, (tvam)=you, (ca)=and, (aham)=I, (pratijanaḥ)=in each person, (dvau dvau)=in order of two each, (sam)=properly, (bravāvahai)=do the act of listening to each other regularly.
English Translation (K.K.V.)
O Lord of the assembly and army with many types of deeds and many types of intelligence! In order to protect us, sitting in the paramount place and when this happens, in war, in means and actions other than war, you and I, in everyone in the order of two, should do the work of listening to each other properly.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
The true and false duties and non-duties of the commander and the chairman should also be properly decided by the order of the innermost God situated in the soul by a man positioned in meditation with true conduct. Without this one can never have the true understanding of the victory. Those who fight against the enemies by considering the omnipresent God as judge and as the righteous and the brave as the commander, they win definitely, not others.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is this Indra is taught further in the sixth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the Assembly or the Commander-in Chief of the Army, for our protection in this conflict, be over us O possessor of infinite knowledge and action. We shall talk together in other matters.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men who speak the truth being wrapt up in meditation, should decide the matter well, should obey the command of God and Commander-in-chief of the Army, should discriminate between truth and un-truth, the thing that is to be settled between which is duty and which is not duty. Without it, it is not possible to get victory, truth and knowledge. Those who take Omnipresent God as the Dispenser of justice and appoint as Commander of the Army a person who is righteous and brave, get victory when they fight with their enemies, they are sure to triumph and none other.
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