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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 30/ मन्त्र 9
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अनु॑ प्र॒त्नस्यौक॑सो हु॒वे तु॑विप्र॒तिं नर॑म्। यं ते॒ पूर्वं॑ पि॒ता हु॑वे॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ । प्र॒त्नस्य॑ । ओक॑सः । हु॒वे । तु॒वि॒ऽप्र॒तिम् । नर॑म् । यम् । ते॒ । पूर्व॑म् । पि॒ता । हु॒वे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनु प्रत्नस्यौकसो हुवे तुविप्रतिं नरम्। यं ते पूर्वं पिता हुवे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनु। प्रत्नस्य। ओकसः। हुवे। तुविऽप्रतिम्। नरम्। यम्। ते। पूर्वम्। पिता। हुवे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 30; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वरसभाध्यक्षयोः प्रार्थना सर्वमनुष्यैः कार्येत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे मनुष्य ! ते पिता यं प्रत्नस्यौकसः सनातनस्य कारणस्य सकाशात् तुविप्रतिं बहुकार्यप्रतिमातारं नरं परमेश्वरं सभासेनाध्यक्षं वा पूर्वं हुवे तमेवाहमनुकूलं हुवे स्तौमि॥९॥

    पदार्थः

    (अनु) पश्चादर्थे (प्रत्नस्य) सनातनस्य कारणस्य। प्रत्नमिति पुराणनामसु पठितम्। (निघं०३.२७) अत्र त्नप् प्रगस्य छन्दसि गलोपश्च। (अष्टा०वा०४.३.२३) अनेन प्रशब्दात्त्नप् प्रत्ययः। (ओकसः) सर्वनिवासार्थस्याकाशस्य (हुवे) स्तौमि (तुविप्रतिम्) तुवीनां बहूनां पदार्थानां प्रतिमातरम्। अत्रैकदेशेन प्रतिशब्देन प्रतिमातृशब्दार्थो गृह्यते। (नरम्) सर्वस्य जगतो नेतारम् (यम्) जगदीश्वरं सभासेनाध्यक्षं वा (ते) तव (पूर्वम्) प्रथमम् (पिता) जनक आचार्यो वा (हुवे) गृह्णात्याह्वयति। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपो लुगात्मनेपदं च॥९॥

    भावार्थः

    ईश्वरो मनुष्यानुपदिशति। हे मनुष्या ! युष्माभिरेवमन्यान् प्रत्युपदेष्टव्यं योऽनादिकारणस्य सकाशादनेकविधानि कार्याण्युत्पादयति। किञ्च यस्योपासनं पूर्वे कृतवन्तः कुर्वन्ति करिष्यन्ति च तस्यैवोपासनं नित्यं कर्त्तव्यमिति। अत्र कञ्चित्प्रति कश्चित् पृच्छेत्त्वं कस्योपासनं करोषीति तस्मा उत्तरं दद्यात् यस्योपासनं तव पिता करोति यस्य च सर्वे विद्वांसः। यं वेदा निराकारं सर्वव्यापिनं सर्वशक्तिमन्तमजमनादिस्वरूपं जगदीश्वरं प्रतिपादयन्ति तमेवाहं नित्यमुपासे॥९॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब ईश्वर और सभाध्यक्ष की प्रार्थना सब मनुष्यों को करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्य ! (ते) तेरा (पिता) जनक वा आचार्य्य (यम्) जिस (प्रत्नस्य) सनातन कारण वा (ओकसः) सबके ठहरने योग्य आकाश के सकाश से (तुविप्रतिम्) बहुत पदार्थों को प्रसिद्ध करने और (नरम्) सबको यथायोग्य कार्य्यों में लगानेवाले परमेश्वर वा सभाध्यक्ष का (पूर्वम्) पहिले (हुवे) आह्वान करता रहा, उन का मैं भी (अनुहुवे) तदनुकूल आह्वान वा स्तवन करता हूँ॥९॥

    भावार्थ

    ईश्वर मनुष्यों को उपदेश करता है कि हे मनुष्यो ! तुम को औरों के लिये ऐसा उपदेश करना चाहिये कि जो अनादि कारण से अनेक प्रकार के कार्य्यों को उत्पन्न करता है तथा जिस की उपासना पहिले विद्वानों ने की वा अब के करते और अगले करेंगे, उसी की उपासना नित्य करनी चाहिये। इस मन्त्र में ऐसा विषय है कि कोई किसी से पूछे कि तुम किस की उपासना करते हो? उसके लिये ऐसा उत्तर देवे कि जिसकी तुम्हारे पिता वा सब विद्वान् जन करते तथा वेद जिस निराकार, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान्, अज और अनादि स्वरूप जगदीश्वर का प्रतिपादन करते हैं, उसी की उपासना मैं निरन्तर करता हूँ॥९॥

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    विषय

    अब ईश्वर और सभाध्यक्ष की प्रार्थना सब मनुष्यों को करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्य ! ते पिता यं प्रत्नस्य ओकसः सनातनस्य कारणस्य सकाशात् तुविप्रतिं बहुकार्यप्रति मातारं नरं परमेश्वरं सभासेनाध्यक्षं वा पूर्वं हुवे तमे वा अहम् अनुकूलं हुवे स्तौमि॥९॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्य)=मनुष्य ! (ते) तव= तेरा,  (पिता)=जनक वा आचार्य्य, (यम्) जगदीश्वरं वा=जिस जगदीश्वर, सभा और  सेनाध्यक्ष के (प्रत्नस्य) सनातनस्य कारणस्य=सनातन कारण के  (ओकसः) सर्वनिवासार्थस्याकाशस्य=सबके ठहरने योग्य आकाश के, (सनातनस्य)=सनातन,  (कारणस्य)=कारण का, (सकाशात्)=निकट से,  (तुविप्रतिम्) तुवीनां बहूनां पदार्थानां प्रतिमातरम्=बहुत पदार्थों को प्रसिद्ध करने और, (नरम्) सर्वस्य जगतो नेतारम्=सारे जगत् को आगे ले जानेवाले, (परमेश्वरम्)=परमेश्वर, (सभासेनाध्यक्षम्) सभा (वा)=और सेना के अध्यक्ष का , (पूर्वम्) प्रथमम्=पहले,  (हुवे) स्तौमि= आह्वान करता हूँ।  (तम्)=उसकी, (एव)=ही, (अहम्)=मैं, (अनुकूलम्)=अनुकूल,  (हुवे) स्तौमि=स्तुति  करता हूँ॥९॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    ईश्वर मनुष्यों को उपदेश करता है। हे मनुष्यो ! तुम को और  अन्यों को उपदेशित करना चाहिये कि जो अनादि कारण से निकटता से अनेक प्रकार के कार्यों को उत्पन्न करता है, फिर जिस की उपासना पहले विद्वानों ने की है, करते हैं और करेंगे, उसी की उपासना नित्य करनी चाहिये। इस मन्त्र में ऐसा विषय है कि कोई किसी से पूछने पर कि तुम किस की उपासना करते हो? उसके लिये ऐसा उत्तर देवे कि जिसकी तुम्हारे पिता वा सब विद्वान् जन करते हैं। जिसे वेद निराकार, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान्, अज और अनादि स्वरूप जगदीश्वर के रूप में प्रतिपादित करते हैं, उसी की उपासना मैं नित्य करता हूँ॥९॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्य) मनुष्य ! (ते) तेरा,  (पिता) जनक या आचार्य, (यम्) जिस जगदीश्वर, सभा और  सेनाध्यक्ष के (प्रत्नस्य) सनातन कारण के  (ओकसः) और सबके ठहरने योग्य आकाश के, (सकाशात्) निकट से  (तुविप्रतिम्) बहुत पदार्थों को प्रसिद्ध करने और (नरम्) सारे जगत् को आगे ले जानेवाले, (परमेश्वरम्) परमेश्वर, (सभासेनाध्यक्षम्) सभा (वा) और सेना के अध्यक्ष की , (पूर्वम्) पहले,  (हुवे) स्तुति  करता हूँ। (तम्) उसके, (अनुकूलम्) अनुकूल  (एव) ही (अहम्) मैं (हुवे) स्तुति  करता हूँ॥९॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अनु) पश्चादर्थे (प्रत्नस्य) सनातनस्य कारणस्य। प्रत्नमिति पुराणनामसु पठितम्। (निघं०३.२७) अत्र त्नप् प्रगस्य छन्दसि गलोपश्च। (अष्टा०वा०४.३.२३) अनेन प्रशब्दात्त्नप् प्रत्ययः। (ओकसः) सर्वनिवासार्थस्याकाशस्य (हुवे) स्तौमि (तुविप्रतिम्) तुवीनां बहूनां पदार्थानां प्रतिमातरम्। अत्रैकदेशेन प्रतिशब्देन प्रतिमातृशब्दार्थो गृह्यते। (नरम्) सर्वस्य जगतो नेतारम् (यम्) जगदीश्वरं सभासेनाध्यक्षं वा (ते) तव (पूर्वम्) प्रथमम् (पिता) जनक आचार्यो वा (हुवे) गृह्णात्याह्वयति। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपो लुगात्मनेपदं च॥९॥
    विषयः- अथेश्वरसभाध्यक्षयोः प्रार्थना सर्वमनुष्यैः कार्येत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः- हे मनुष्य ! ते पिता यं प्रत्नस्यौकसः सनातनस्य कारणस्य सकाशात् तुविप्रतिं बहुकार्यप्रतिमातारं नरं परमेश्वरं सभासेनाध्यक्षं वा पूर्वं हुवे तमेवाहमनुकूलं हुवे स्तौमि॥९॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- ईश्वरो मनुष्यानुपदिशति। हे मनुष्या ! युष्माभिरेवमन्यान् प्रत्युपदेष्टव्यं योऽनादिकारणस्य सकाशादनेकविधानि कार्याण्युत्पादयति। किञ्च यस्योपासनं पूर्वे कृतवन्तः कुर्वन्ति करिष्यन्ति च तस्यैवोपासनं नित्यं कर्त्तव्यमिति। अत्र कञ्चित्प्रति कश्चित् पृच्छेत्त्वं कस्योपासनं करोषीति तस्मा उत्तरं दद्यात् यस्योपासनं तव पिता करोति यस्य च सर्वे विद्वांसः। यं वेदा निराकारं सर्वव्यापिनं सर्वशक्तिमन्तमजमनादिस्वरूपं जगदीश्वरं प्रतिपादयन्ति तमेवाहं नित्यमुपासे॥९॥

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    विषय

    घर की ओर

    पदार्थ

    १. हम इस जीवन - यात्रा में हैं , हमारा घर ब्रह्मलोक है । उस घर में हम अपने पिता प्रभु के साथ सानन्द रहते थे । यात्रा पर चले और देवलोक - 'देवयोनि [अन्तरिक्ष] , मर्त्यलोक व असुर्यलोक' आदि में समय - समय पर भ्रमण करते रहे । अब हम (प्रत्नस्य ओकसः अनु) - उस सनातन गृह का लक्ष्य करके - उस प्रभु को (हुवे) - पुकारते हैं , जो प्रभु (तु वि प्रतिम्) - प्रत्येक दृष्टिकोण से महान् हैंः वस्तुतः प्रत्येक गुण की पराकाष्ठा ही हैं । जहाँ निरतिशय ज्ञान है , वे ही तो प्रभु हैं । इसी प्रकार जहाँ निरतिशय बल है , निरतिशय व्यापकता है , वे ही तो सर्वज्ञ , सर्वशक्तिमान् , सर्वव्यापक प्रभु हैं । वे प्रभु (नरम्) - [नृ नये] हमें आगे और आगे ले - चलनेवाले हैं । 

    २. वे आगे ले - चलनेवाले प्रभु ही हमारे पिता हैं । आज हम कुछ ठोकर लगने पर उस सनातन घर की याद करने लगे हैं । वेद कहता है कि मनुष्यो ! वही तो तेरा घर है (यम्) - जिसकी ओर (ते पिता) - तेरे पिता तो (पूर्वम्) - पहले ही तुझे आने के लिए (हुवे) - पुकार रहे हैं । प्रभु तो सदा हमें इस यात्रा में अपने को यात्री समझते हुए यहाँ ही फंसकर न रह जाने के लिए प्रेरणा देते ही रहते हैं । यहाँ के चमकीले पदार्थ हमें ऐसा आकृष्ट करते हैं कि हम इनका आनन्द लेने लगते हैं और पिता व घर को भूल जाते हैं । कभी - कभी कष्ट आने पर हमें उनका स्मरण आता है । प्रभु तो सदा प्रेरणा देते ही रहते हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम ब्रह्मलोक को अपने घर का लक्ष्य करके प्रभु से यही आराधना करें कि हम यात्रा को पूर्ण करके घर लौट सकें । वस्तुतः प्रभु की प्रेरणा को हम सुनते रहें , वे हमें सदा लौट आने की प्रेरणा देते ही रहते हैं । 

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    विषय

    संग्रामार्थ सेनापति की प्रधान पद पर प्रतिष्ठा ।

    भावार्थ

    (यं) जिस (तुविप्रतिम्) नाना लोकों के बनानेवाले, (नरं) सबके नायक, (प्रत्नस्य औकसः) अति पुराण स्थान, आकाश के भी (पूर्वं) पूर्व विद्यमान परमेश्वर को (ते पिता) तेरे पालक जन भी स्तुति करते थे। उसीको मैं (अनुहुवे) आदर से स्तुति करता हूं। राजा के पक्ष में—(प्रत्तस्य ओकसः) अति पुरातन स्थान, देश के (नरम्) नायक (तुवि-प्रतिं) बहुत से शत्रुओं के मुकाबले पर जाने वाले जिसको तेरा पिता पालक वर्ग भी (हुवे) आदर करता है उसी का मैं भी आदर करूँ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः ॥ देवता—१—१६ इन्द्रः । १७–१९ अश्विनौ । २०–२२ उषाः॥ छन्दः—१—१०, १२—१५, १७—२२ गायत्री। ११ पादनिचृद् गायत्री । १६ त्रिष्टुप् । द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वर माणसांना उपदेश करतो - हे माणसांनो ! तुम्ही इतरांना असा उपदेश करा की जो अनादी कारणांपासून अनेक कार्यांना उत्पन्न करतो तसेच ज्याची उपासना प्रथम विद्वानांनी केली, आता करतात व भविष्यातही करतील त्याचीच उपासना नित्य करावी. या मंत्रात असा विषय आहे की, एखाद्याने एखाद्याला विचारले की तू कोणाची उपासना करतोस, तेव्हा असे उत्तर द्यावे की तुमचे पिता व सर्व विद्वान ज्याची उपासना करतात, तसेच वेद ज्या निराकार, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, अजन्मा व अनादिस्वरूप जगदीश्वराचे प्रतिपादन करतात त्याचीच मी सदैव उपासना करतो. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    I invoke and call upon the Primeval Man, eternal father, who creates this multitudinous existence from the eternal womb of nature, the same whom our original forefathers invoked and worshipped.

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    Subject of the mantra

    Now, all must pray God and chairperson of assembly, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣya)=human being, (te)=your, (pitā) father or ācārya, (yam) =of which God, the head of the Assembly and the Army, (pratnasya)=for the eternal cause, (okasaḥ)and of the space, worthy of living by all, (sakāśāt)=by proximity, (tuvipratim)=to popularize many things, [aura]=and, (naram)=leading the whole world, (parameśvaram)=God, (sabhāsenādhyakṣam+vā) of the president of the assembly and the army, (pūrvam)=at first, (huve)=I praise (tam) =of that, (anukūlam)=favourably, (eva)=only, (aham)=I, (huve)=I praise.

    English Translation (K.K.V.)

    O human being! First of all I praise your father or ācārya, the God, the head of the assembly and that of army. Because of the eternal cause and the Supreme God, the head of the Assembly and the army, who makes many things famous from near the heavens that are worthy of everyone and takes the whole world forward.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    “O men! You and others should be instructed that the one who produces many kinds of actions from primordial cause from time immemorial, then the one whom the scholars have previously worshiped, worship at present and will worship in future, should be worshiped regularly. There is such a subject in this mantra that when someone asks whom does he worship? Give him such an answer as your father or all learned people give. Whom the Vedas propound as formless, omnipresent, almighty, unborn and eternal form God, I worship him every day.”

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    All men should pray to God and the President of the Assembly is taught in the ninth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O man, I also invoke in right earnest God who creates many things and works from the eternal cause-Primordial matter whom your father or preceptor also invoked.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (प्रत्नस्य) सनातनस्य कारणस्य = Of the eternal material Cause = of Primordial 'matter. प्रत्नम् इति पुराणनामसु पठितम् ( निघ० ३.२ ) अत्न स्नप् मत्नाश्च प्रत्यया वक्तव्याः ( अष्टा० ५.४.३० ) अनेन प्रशब्दात् नप् प्रत्ययः । (ओकसः) सर्वनिवासार्थस्य आकाशस्य ( तुविमतिम् ) तुवीनां बहूनां पदार्थानां प्रतिमातरम् । अत्रैकदेशेन प्रतिशब्देन प्रतिमातृशब्दार्थो गृह्यते । = Creator of many objects.(नरम् ) सर्वस्य जगतो नेतारम् = Supreme Leader of all God.(पिता) जनक आचार्यो वा

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God teaches men You should thus instruct other men. You should adore only that One God Who creates all these objects out of eternal cause Primordial Matter and who has been always worshipped by people in the past, is worshipped now and will be worshipped in future by all wise men. If one asks whom do you worship ? One should reply I worship that God Whom your father or preceptor and all enlightened persons, adored, I always worship that One God Whom the Vedas describe as Formless, Omnipresent, Omnipotent and eternal.

    Translator's Notes

    The work पिता is used not only for father, but also for the Acharya or preceptor. As Manu has stated..... तदा मातास्य सावित्री पिता त्वाचार्य उच्यते ( मनुः ) जनकश्चोपनेता च, यश्च विद्यां प्रयच्छति । अन्नदाता भयत्राता, पंचैते पितरः स्मृताः ॥ (चाणक्य नीतौ ) In this well-known Verse from Chanakyaneeti also the word उपनेता is used for the Acharya and he has been called far because it is he who performs the Upanayan Sanskar or initiation ceremony of his pupils. उपनीय तु यः शिष्यम्, वेदमध्यापयेद् द्विजः ।। सकल्पं सरहस्यंच, तमाचार्य प्रचक्षते ॥ मनु० २.१४० = Saya Manu while giving the definition of an Acharya.

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