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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 30/ मन्त्र 22
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - उषाः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    त्वं त्येभि॒रा ग॑हि॒ वाजे॑भिर्दुहितर्दिवः। अ॒स्मे र॒यिं नि धा॑रय॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । त्येभिः॑ । आ । ग॒हि॒ । वाजे॑भिः । दु॒हि॒तः॒ । दि॒वः॒ । अ॒स्मे इति॑ । र॒यिम् । नि । धा॒र॒य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं त्येभिरा गहि वाजेभिर्दुहितर्दिवः। अस्मे रयिं नि धारय॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। त्येभिः। आ। गहि। वाजेभिः। दुहितः। दिवः। अस्मे इति। रयिम्। नि। धारय॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 30; मन्त्र » 22
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 31; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सः कीदृशीत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे कालमाहात्म्यवित् विद्वंस्त्वं या दिवो दुहितर्दुहितोषाः संसाधिता सती त्येभिः कालावयवैरस्मे अस्मान् वाजेभिरन्नादिभिश्च सहानन्दाय समन्तात् प्राप्नोति तथाऽस्मभ्यं रयिर्निधारय धारय नित्यं सम्पादयैवमागहि सर्वथा तद्विद्यां ज्ञापय यतो वयमपि कालं व्यर्थं न नयेम॥२२॥

    पदार्थः

    (त्वम्) कालकृत्यवित् (त्येभिः) शोभनैः कालावयवैः सह। अत्र बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस् न। (आ) समन्तात् (गहि) प्राप्नुहि। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपो लुक्। (वाजेभिः) अन्नादिभिः पदार्थैः। अत्रापि पूर्ववद् भिस ऐस् न। (दुहितः) दुहिता पुत्रीव। दुहिता दुर्हिता दूरे हिता दोग्धेर्वा। (निरु०३.४) (दिवः) दिवो द्योतनकर्मणामादित्यरश्मीनाम्। (निरु०१३.२५) अनेन सूर्यप्रकाशस्य दिव इति नामास्ति। (अस्मे) अस्मभ्यम् (रयिम्) विद्यासुवर्णादिधनम् (नि) नितरां क्रियायोगे (धारय) सम्पादय॥२२॥

    भावार्थः

    ये मनुष्याः कालं व्यर्थं न नयन्ति तेषां सर्वः कालः सर्वकार्यसिद्धिप्रदो भवति नेतरेषामिति॥२२॥अत्र पूर्वसूक्तोक्तविद्यानुषङ्गिणामिन्द्राश्व्युषसामर्थानां प्रतिपादनात् पूर्वसूक्तार्थेनैतत् सूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसी है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे काल के माहात्म्य को जाननेवाले विद्वान् (त्वम्) तू जो (दिवः) सूर्य किरणों से उत्पन्न हुई उनकी (दुहितः) लड़की के समान प्रातःकाल की वेला (त्येभिः) उसके उत्तम अवयव अर्थात् दिन महीना आदि विभागों से वह हम लोगों को (वाजेभिः) अन्न आदि पदार्थों के साथ प्राप्त होती और धनादि पदार्थों की प्राप्ति का निमित्त होती है, उससे (अस्मे) हम लोगों के लिये (रयिम्) विद्या, सुवर्णादि धनों को (निधारय) निरन्तर ग्रहण कराओ और (आगहि) इस प्रकार इस विद्या की प्राप्ति कराने के लिये प्राप्त हुआ कीजिये कि जिससे हम लोग भी समय को निरर्थक न खोवें॥२२॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य कुछ भी व्यर्थ काल नहीं खोते, उन का सब काल सब कामों की सिद्धि का करनेवाला होता है॥२२॥इस मन्त्र में पिछले सूक्त के अनुषङ्गी (इन्द्र) (अश्वि) और (उषा) समय के वर्णन से पिछले सूक्त के अनुषङ्गी अर्थों के साथ इस सूक्त के अर्थ की संगति जाननी चाहिये।

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    विषय

    फिर वह कैसी है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे कालमाहात्म्यवित् विद्वन् त्वं या दिवः दुहितः दुहिता उषाः संसाधिता सती त्येभिः कालावयवैः अस्मे अस्मान् वाजेभिः अन्नादिभिः च सह आनन्दाय समन्तात् प्राप्नोति तथा अस्मभ्यं रयिं नि धारय नित्यं सम्पादय एवम् आगहि सर्वथा तद् विद्यां ज्ञापय यतः वयम् अपि कालं व्यर्थं न नयेम॥२२॥

    पदार्थ

    हे (कालमाहात्म्यवित्)= काल के महत्व को जाननेवाले, (विद्वन्)=विद्वान्, (त्वम्) कालकृत्यवित्= तुम काल के कार्य को जाननेवाले,  (या)=जो, (दिवः) दिवो= सूर्य किरणों से उत्पन्न हुई, (दुहितः) दुहिता पुत्रीव=उनकी पुत्री के समान, (संसाधिता) = प्रातःकाल की बेला है, (त्येभिः) शोभनैः कालावयवैः सह= उसके उत्तम अवयव अर्थात् दिन महीना आदि विभागों के साथ (अस्मे) अस्मभ्यम् =हमारे लिये, (अस्मान्)=हम लोगों को (च) =भी, (वाजेभिः) अन्नादिभिः पदार्थैः= अन्न आदि पदार्थों, (सह)=के साथ,  (आनन्दाय) =आनन्द के लिये, (समन्तात्) =हर ओर से, (प्राप्नोति) =प्राप्त होती है।  (तथा) =वैसे ही, (अस्मभ्यम्) = हमारे लिये (रयिम्) विद्यासुवर्णादिधनम्=विद्या, सुवर्ण आदि धन (नि) नितरां क्रियायोगे नित्यम= निरन्तर, (धारय) सम्पादय= ग्रहण कराओ, (एवम्) =और, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (गहि) प्राप्नुहि= विद्या की प्राप्ति कराने के लिये, (सर्वथा) =सब प्रकार से, (तद्)=उस, (विद्याम्) =विद्या की, (ज्ञापय) =जानकारी दीजिये, (यतः) = इसलिये, (वयम्) =हम, (अपि)=भी, (कालम्) =काल का, (व्यर्थम्) = व्यर्थ करना, (न+नयेम)=दिनचर्या में न लायें॥२२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद-जो मनुष्य दिनचर्या में काल को व्यर्थ में नहीं गंवाते हैं, उनका सब काल सब कामों की सिद्धि का करनेवाला होता है॥२२॥

    विशेष

    महर्षिकृत सूक्त के भावार्थ का भाषानुवाद- इस मन्त्र में पिछले सूक्त के अनुषङ्गी “इन्द्र” “अश्वि” और “उषा” शब्दों की शक्ति का प्रतिपादन इस सूक्त के अर्थों के साथ संगति जाननी चाहिये।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (कालमाहात्म्यवित्) काल के महत्व को जाननेवाले (विद्वन्) विद्वान् ! (त्वम्)  तुम काल के कार्य को जाननेवाले हो। (या) जो (दिवः) सूर्य किरणों से उत्पन्न हुई (दुहितः) उनकी पुत्री के समान (संसाधिता) प्रातःकाल की बेला है, (त्येभिः) उसके उत्तम अवयव अर्थात् दिन महीना आदि विभागों के साथ (अस्मे) हमारे लिये, (च) भी (वाजेभिः) अन्न आदि पदार्थों (सह) के साथ (आनन्दाय) आनन्द के लिये (समन्तात्) हर ओर से (प्राप्नोति) प्राप्त होती है। (तथा) वैसे ही (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (रयिम्) विद्या, सुवर्ण आदि धन (नि) निरन्तर (धारय) ग्रहण कराओ (एवम्) और (आ) हर ओर से (गहि) विद्या की प्राप्ति कराने के लिये (सर्वथा) सब प्रकार से (तद्) उस (विद्याम्) विद्या की (ज्ञापय) जानकारी दीजिये। (यतः) इसलिये (वयम्) हम (अपि) भी (कालम्) काल का (व्यर्थम्) व्यर्थ करना (न+नयेम) दिनचर्या में न लायें॥२२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) कालकृत्यवित् (त्येभिः) शोभनैः कालावयवैः सह। अत्र बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस् न। (आ) समन्तात् (गहि) प्राप्नुहि। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपो लुक्। (वाजेभिः) अन्नादिभिः पदार्थैः। अत्रापि पूर्ववद् भिस ऐस् न। (दुहितः) दुहिता पुत्रीव। दुहिता दुर्हिता दूरे हिता दोग्धेर्वा। (निरु०३.४) (दिवः) दिवो द्योतनकर्मणामादित्यरश्मीनाम्। (निरु०१३.२५) अनेन सूर्यप्रकाशस्य दिव इति नामास्ति। (अस्मे) अस्मभ्यम् (रयिम्) विद्यासुवर्णादिधनम् (नि) नितरां क्रियायोगे (धारय) सम्पादय॥२२॥
    विषयः- पुनः सः कीदृशीत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः- हे कालमाहात्म्यवित् विद्वंस्त्वं या दिवो दुहितर्दुहितोषाः संसाधिता सती त्येभिः कालावयवैरस्मे अस्मान् वाजेभिरन्नादिभिश्च सहानन्दाय समन्तात् प्राप्नोति तथाऽस्मभ्यं रयिर्निधारय धारय नित्यं सम्पादयैवमागहि सर्वथा तद्विद्यां ज्ञापय यतो वयमपि कालं व्यर्थं न नयेम॥२२॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)-ये मनुष्याः कालं व्यर्थं न नयन्ति तेषां सर्वः कालः सर्वकार्यसिद्धिप्रदो भवति नेतरेषामिति॥२२॥

    सूक्तस्य भावार्थः - अत्र पूर्वसूक्तोक्तविद्यानुषङ्गिणामिन्द्राश्व्युषसामर्थानां प्रतिपादनात् पूर्वसूक्तार्थेनैतत् सूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥

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    विषय

    शक्ति व सम्पत्ति

    पदार्थ

    १. अयि (दिवः दुहितः) - द्युलोक व सूर्य की पुत्री - आकाश का पूरण करने [दुहप्रपूरणे] - वाली उषः ! (त्वम्) - तू (त्येभिः) - उन प्रसिद्ध (वाजेभिः) - शक्तियों व धनों के साथ (आगहि) - हमें प्राप्त हो और (अस्मे) - हमारे लिए (रयिम्) - धन का (निधारय) - निश्चय से धारण कर अथवा नम्रता के साथ धारण कर । 

    २. उषः काल सूर्योदय होने के बिल्कुल प्रारम्भिक समय में आता है मानो यह उषा उस सूर्य की पुत्री ही है । यह स्वाध्यायशील पुरुष में ज्ञान के प्रकाश को परिपूर्ण करनेवाली है [दिवः दुहिता] 

    ३. यह शक्तियों को प्राप्त कराती है । इस समय सोये रह जानेवाले पुरुषों के तेज को सूर्य अपहत कर लेता है [उद्यन् सूर्य इव सुप्तानां द्विषतां वर्च आददे]

    ४. यह हममें उत्कृष्ट धनों का धारण करनेवाली है । इस समय उठकर ठीक से तैयार होकर मनुष्य पुरुषार्थ में लगता है और उत्तमवृत्ति से धनार्जन करने में प्रवृत्त होता है । यह इस धन के साथ नम्रता को नष्ट नहीं होने देती । 

    भावार्थ

    भावार्थ - उषः जागरण से शक्ति [वाजेभिः] प्राप्त होती है । ज्ञान बढ़ता है [दिवः दुहिता] ऐश्वर्य की वृद्धि होती है । 

    विशेष / सूचना

    विशेष—इस सूक्त का प्रारम्भ इस प्रकार होता है कि प्रभु जितेन्द्रिय पुरुष को सोम से सिक्त कर देते हैं [१] । यह उसके लिए आनन्द की नाव के समान होता है [४] । यह सोम का रक्षण करनेवाला पुरुष प्रभु के साथ इस प्रकार बात करता है जैसे पुत्र पिता से मिलकर [६] जितना - जितना यह प्रभु के सम्पर्क में आता है उतनी - उतनी प्रभु इसकी शक्ति को बढ़ाते हैं [७] । यह भक्त चाहता तो यह है कि इसे एकमात्र प्रभु - प्राप्ति की ही कामना हो [११] । वे प्रभु उसे वे अन्न व धन प्राप्त कराएँ जिनको वह सबके साथ मिलकर सेवन करे [१३] । इस प्रकार जीवन बिताता हुआ यह समानरूप से शरीर , मन व मस्तिष्क की उन्नति कर पाता है [१८] । इसके शरीर - रथ का चक्र उस अगम्य प्रभु के परमपद [मूर्धन्] पर जाकर ही विश्रान्त होता है [१९] । यह सदा उषः काल में जागता है । इस ब्राह्ममुहूर्त में प्रभु का ही स्मरण करता है [२१] । इस स्मरण से इसे शक्ति व सम्पत्ति प्राप्त होती है [२२] । इस प्रभु - स्मरण से वासना - विनाश के द्वारा यह अपने हिरण्य - वीर्य की स्तूप - ऊर्ध्वगति करनेवाला बनकर अंग - अंग में रसवाला आंगिरस बनता है और यह "हिरण्यस्तूप" आंगिरस प्रभु का आराधन निम्न शब्दों में प्रारम्भ करता है -

     

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    विषय

    चित्रा, अश्वा और दिवो दुहिता का रहस्य ।

    भावार्थ

    हे (दिवः दुहितः) सूर्य के प्रकाश से उत्पन्न उषा के प्रभात वेला के समान! (दिवः) तेजोमय ज्ञान प्रकाश से उत्पन्न होने वाली एवं ज्ञानप्रकाश को दोहन या प्रदान करनेवाली! तू (वाजेभिः) ऐश्वर्यों और (त्येभिः) उन ज्ञानों सहित हमें (आगहि) प्राप्त हो। और (अस्मे) हमें (रयिम्) विद्या, ज्ञान और ऐश्वर्य (नि धारय) प्रदान कर। इसी प्रकार २०-२२ तक तीनों मन्त्र राजशक्ति परक भी हैं। जब राजा का अभ्युदय होता है तब उसकी ऐश्वर्यशक्तियां, राज्यलक्ष्मी उदित होते समय सूर्य की प्रभा के समान हैं। (१) वह उस समय प्रभावशाली होने से विभावरी और सबसे स्तुति योग्य होने से कधप्रिया, प्रतिद्वंद्वियों के नाशकारी होने से 'उषा' है। (२) अश्व अर्थात् राष्ट्ररूप एवं अश्वारोही बल चतुरंग सेना रूप होने से 'अश्वी' है। सूर्य के समान तेजस्वी राजा से उत्पन्न और उसके ऐश्वर्य दोहन करने से 'दिवःदुहिता' है। वह संग्रामों, ऐश्वर्यों और सुभिक्षों सहित राष्ट्र को प्राप्त हो, वह ऐश्वर्य भी दे। एकत्रिंशद् वर्गः॥ इति षष्ठोऽनुवाकः।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः ॥ देवता—१—१६ इन्द्रः । १७–१९ अश्विनौ । २०–२२ उषाः॥ छन्दः—१—१०, १२—१५, १७—२२ गायत्री। ११ पादनिचृद् गायत्री । १६ त्रिष्टुप् । द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे थोडाही वेळ व्यर्थ घालवीत नाहीत त्यांचा संपूर्ण काळ कामाची सिद्धी करण्यात जातो. ॥ २२ ॥

    टिप्पणी

    या मंत्राच्याच मागच्या सूक्ताच्या अनुषंगी (इन्द्र) (अश्वि) व (उषा) या वेळेच्या वर्णनाने मागच्या सूक्ताच्या अनुषंगी अर्थाबरोबर या सूक्ताच्या अर्थाची संगती जाणली पाहिजे. ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Come, daughter of the light of Heaven, with all the light and speed and message of time and space. Bear all the wealth and knowledge and bring us the blessings of the Divine.

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    Subject of the mantra

    Then, how is that (morning time) ? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (kālamāhātmyavit)=Knowing the importance of time, (vidvan) =scholars, (tvam)=You know the work of time. (yā)=which, (divaḥ)=emanating from the sun's rays, (duhitaḥ)=like his daughter, (saṃsādhitā)=It is early morning, (tyebhiḥ)=with its best components i.e. day, month etc. (asme)=for us, (ca)=also, (vājebhiḥ) =in substances like grain etc. (saha)=with, (ānandāya)=for happiness, (samantāt)=from all sides, (prāpnoti)=gets obtained, (tathā)=in the same way, (asmabhyam)=for us, (rayim)=wealth like vidyā, gold etc. (ni)=continuously, (dhāraya)=get obtained, (evam)=and,(ā)=from all sides, (gahi)=to gain knowledge (sarvathā)=in all respects, (tad)=that, (vidyām)=of vidyā, (jñāpaya)=Give information. (yataḥ)=therefore, (vayam)=we, (api)=also (kālam)=of time, (vyartham)=to waste, (na+nayema)=do not take into routine.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar who knows the importance of time! You know the work of time. The one, who is like his daughter emanated from the rays of the Sun in the early morning, along with its best components i.e. day, month etc., along with the portions. Food is also available to us from all sides for pleasure with other things. In the same way, get vidya (knowledge), gold etc. wealth for us continuously and in order to get vidya from all sides, give information about that vidya in every way. That's why we should also not take wasting of time in our routine.

    Footnote

    Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- In this mantra, the power of the terms “indra” “aśvi” and “uṣā”, which are followed from the previous hymn, should be understood along with the translation of this hymn.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The person who does not waste time in vain in routine, all his time is the one which accomplishes all the works.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is the Usha (Dawn) is further taught in the 22nd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person who know the value of Time, the Usha (dawn) who is like the daughter of the sun approaches us with days and months and with food and other articles. you come and nourish us by all means with the parts of time and give us that knowledge by which we may never waste our time.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

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