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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 44/ मन्त्र 10
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्र॒ तुभ्य॒मिन्म॑घवन्नभूम व॒यं दा॒त्रे ह॑रिवो॒ मा वि वे॑नः। नकि॑रा॒पिर्द॑दृशे मर्त्य॒त्रा किम॒ङ्ग र॑ध्र॒चोद॑नं त्वाहुः ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । तुभ्य॑म् । इत् । म॒घ॒ऽव॒न् । अ॒भू॒म॒ । व॒यम् । दा॒त्रे । ह॒रि॒ऽवः॒ । मा । वि । वे॒नः॒ । नकिः॑ । आ॒पिः । द॒दृ॒शे॒ । म॒र्त्य॒ऽत्रा । किम् । अ॒ङ्ग । र॒ध्र॒ऽचोद॑नम् । त्वा॒ । आ॒हुः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र तुभ्यमिन्मघवन्नभूम वयं दात्रे हरिवो मा वि वेनः। नकिरापिर्ददृशे मर्त्यत्रा किमङ्ग रध्रचोदनं त्वाहुः ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र। तुभ्यम्। इत्। मघऽवन्। अभूम। वयम्। दात्रे। हरिऽवः। मा। वि। वेनः। नकिः। आपिः। ददृशे। मर्त्यऽत्रा। किम्। अङ्ग। रध्रऽचोदनम्। त्वा। आहुः ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 44; मन्त्र » 10
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजप्रजाजनाः परस्परं कुत्र प्रेरययेयुरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे अङ्ग हरिवो मघवन्निन्द्र ! दात्रे तुभ्यमिद्दातारो वयमभूम त्वमस्मान्मा वि वेन आपिः सन्नहं भवन्तं विरुद्धदृष्ट्या नकिर्ददृशे मर्त्यत्रा किमिच्छसि यतो रध्रचोदनं त्वा विद्वांस आहुस्तस्माद् वयं त्वाश्रयेम ॥१०॥

    पदार्थः

    (इन्द्र) पूर्णविद्य राजन् (तुभ्यम्) (इत्) एव (मघवन्) बहुधनयुक्त (अभूम) भवेम (वयम्) (दात्रे) दानकरणशीलाय (हरिवः) प्रशंसितमनुष्ययुक्त (मा) (वि) विरोधे (वेनः) कामयथाः (नकिः) निषेधे (आपिः) य आप्नोति सः (ददृशे) पश्यामि (मर्त्यत्रा) मर्त्येषु (किम्) (अङ्ग) अङ्गवद्वर्तमान (रध्रचोदनम्) धनस्य प्राप्तये प्रेरकम् (त्वा) (आहुः) कथयन्ति ॥१०॥

    भावार्थः

    हे राजप्रजाजना यथा यूयं परस्परस्मै धनादिना सुखदानेन सर्वान्त्सत्कर्मसु प्रेरयेत तथा मिलित्वा सत्यं न्यायपालनानुष्ठानं कुर्यात् ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राजा और प्रजाजन परस्पर कहाँ प्रेरणा करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अङ्ग) अङ्ग के तुल्य वर्त्तमान (हरिवः) प्रशंसित मनुष्यों से और (मघवन्) बहुत धनों से युक्त (इन्द्र) पूर्णविद्यावाले राजन् ! (दात्रे) दान करने के स्वभाववाले (तुभ्यम्) आपके लिये (इत्) ही देनेवाले (वयम्) हम लोग (अभूम) होवें आप हम लोगों की (मा) मत (वि, वेनः) कामना करिये और (आपिः) व्याप्त होनेवाला हुआ मैं आपको विरुद्ध दृष्टि से (नकिः) नहीं (ददृशे) देखता हूँ तथा (मर्त्यत्रा) मनुष्यों में आप (किम्) किस की इच्छा करते हो जिससे (रध्रचोदनम्) धन की प्राप्ति के लिये प्रेरणा करनेवाले आपको विद्वान् जन (आहुः) कहते हैं, इससे हम लोग आपका आश्रयण करें ॥१०॥

    भावार्थ

    हे राजा और प्रजा जनो ! जैसे आप लोग आपस के लिये धन आदि से और सुख दान से सबको श्रेष्ठ कर्म्मों में प्रेरणा करिये, वैसे मिल के सत्य, न्यायपालन का अनुष्ठान करिये ॥१०॥

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    विषय

    सर्वोपरि बन्धु प्रभु ।

    भावार्थ

    हे ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन् ! धन के स्वामिन् ! ( इन्द्र ) हे शत्रुहन्तः ! ( हरिवः ) हे मनुष्यों के स्वामिन् ! ( वयम् ) हम लोग ( तुभ्यम् इत् ) तेरे ही हितैषी (अभूम) हों । (तू दात्रे ) दानशील पुरुष के लिये ( मा वि वेनः ) कभी विपरीत कामना मत कर । (मर्त्यत्रा) मनुष्यों में से कोई भी दूसरा (आपिः) तुझ से अतिरिक्त बन्धु (नकिः ददृशे ) दिखाई नहीं देता। (किम् अङ्ग) हे स्वामिन् ! और क्या कहें ? (त्वा) तुझको सब विद्वान् जन (रध-चोदनं आहुः) अपने वशीभूत, अधीन व्यक्तियों को उत्तम शिक्षा देने वाला बतलाते हैं । इति सप्तदशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः – १, ३, ४ निचृदनुष्टुप् । २, ५ स्वराडुष्णिक् । ६ आसुरी पंक्ति: । ७ भुरिक् पंक्तिः । ८ निचृत्पंक्तिः । ९, १२, १६ पंक्तिः । १०, ११, १३, २२ विराट् त्रिष्टुप् । १४, १५, १७, १८, २०, २४ निचृत्त्रिष्टुप् । १९, २१, २३ त्रिष्टुप् ।। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम् ।।

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    विषय

    नकि: आपिः ददृशेमर्त्यत्रा

    पदार्थ

    [१] हे (मघवन्) = ज्ञान रूप ऐश्वर्यशालिन् इन्द्र शत्रुविद्रावक बल सम्पन्न प्रभो ! (वयम्) = हम (दात्रे) = इन ऐश्वर्यों को देनेवाले (तुभ्यम्) = आपके लिये ही (अभूम) = शेषभूत-सन्तानतुल्य हों। आपको ही अपना (हितैषी) = जानकर हम संसार के सब व्यवहारों में वर्तें । हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करानेवाले प्रभो ! (मा विवेनः) = हमारे प्रति अपगत कामनावाले आप (इत्) = हम आपके सदा प्रीति पात्र बने रहें । [२] यहाँ (मर्त्यत्रा) = मनुष्यों में (आपिः) = मित्र (नकिः) = नहीं (ददृशे) = दिखता। मानव मैत्री स्वार्थमयी होने से स्थायी नहीं होती। पर (किम्) = इस विषय में आपका क्या कहना । हे अंग-प्रिय प्रभो, सतत गतिशील प्रभो ! (त्वा) = आपको (रध्रचोदनम्) = कार्य प्रेरक धन [धनों का प्रेरक] (आहुः) = कहते हैं। आप अपने उपासकों के लिये सब आवश्यक धनों को देते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु 'मघवान्' हैं, 'इन्द्र' हैं। हमारे लिये ज्ञान व बल को प्राप्त कराते हैं। प्रभु ही एकमात्र निःस्वार्थ मित्र हैं। वे प्रभु ही कार्य-साधक धनों को सदा प्राप्त करानेवाले हैं। संसार के मित्रताएँ अन्ततः स्वार्थमयी हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा व प्रजाजनांनो ! जसे तुम्ही आपापसात धन इत्यादींनी परस्परांना सुखी करता व सर्वांना सत्कर्मात प्रेरित करता, तसे सर्वांनी मिळून सत्य व न्यायाचे पालन करा. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of power and majesty, let us be, let us live and work only for you, generous and charitable ruler. Pray do not ignore us, do not neglect us. There is none visible among the mortals around here our own such as you, lord of horse and men, otherwise, O lord dear as breath of life, why would they call you the inspirer for the achievement of honour and excellence in life?

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Where should the king and his subjects urge upon one another-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O very dear wealthy king ! you have many admirable men as your assistants or followers, let me be liberal donors to you, who are giver of happiness. Please do not look down upon us. Let me be like your kith and kin and may not look upon you adversely. What do you desire among men. Because the enlightened persons call you impeller for the acquirement of wealth, therefore, we take shelter in you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king and his subjects ! as you urge upon one another to do noble deeds with wealth and by giving happiness in the same manner, unitedly you should administer justice and have all just dealings.

    Foot Notes

    (हरिव) प्रशंसितमनुष्ययुक्त | = He who has admirable good persons as assistants or ministers etc. ( रध्रचोदनम् ) धनस्य प्राप्तये प्ररेकम् । राध इति धननाम (NG 2, 10)। = Urging upon men to acquire wealth. (वेन:) कामयथा:। = Desires.

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