ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 44/ मन्त्र 23
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒यम॑कृणोदु॒षसः॑ सु॒पत्नी॑र॒यं सूर्ये॑ अदधा॒ज्ज्योति॑र॒न्तः। अ॒यं त्रि॒धातु॑ दि॒वि रो॑च॒नेषु॑ त्रि॒तेषु॑ विन्दद॒मृतं॒ निगू॑ळ्हम् ॥२३॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । अ॒कृ॒णो॒त् । उ॒षसः॑ । सु॒ऽपत्नीः॑ । अ॒यम् । सूर्ये॑ । अ॒द॒धा॒त् । ज्योतिः॑ । अ॒न्तरिति॑ । अ॒यम् । त्रि॒ऽधातु॑ । दि॒वि । रो॒च॒नेषु॑ । त्रि॒तेषु॑ । वि॒न्द॒त् । अ॒मृत॑म् । निऽगू॑ळ्हम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमकृणोदुषसः सुपत्नीरयं सूर्ये अदधाज्ज्योतिरन्तः। अयं त्रिधातु दिवि रोचनेषु त्रितेषु विन्ददमृतं निगूळ्हम् ॥२३॥
स्वर रहित पद पाठअयम्। अकृणोत्। उषसः। सुऽपत्नीः। अयम्। सूर्ये। अदधात्। ज्योतिः। अन्तरिति। अयम्। त्रिऽधातु। दिवि। रोचनेषु। त्रितेषु। विन्दत्। अमृतम्। निऽगूळ्हम् ॥२३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 44; मन्त्र » 23
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वांसः कीदृशा भवेयुरित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! यथाऽयं उषसः सुपत्नीरकृणोत्तथैकपत्नीव्रता यूयं भवत यथाऽयमीश्वरः सूर्य्येऽन्तर्ज्योतिरदधात् तथात्मासु विद्याप्रकाशं धत्त यथाऽयं जगदीश्वरो दिवि त्रितेषु रोचनेष्वमृतं निगूळ्हं त्रिधात्वव्यक्तं विन्दत्तथा प्रकृत्यादिकं जगद्विजानीत ॥२३॥
पदार्थः
(अयम्) सूर्य्यः (अकृणोत्) करोति (उषसः) (सुपत्नीः) शोभना भार्या इव (अयम्) परमात्मा (सूर्य्ये) सवितरि (अदधात्) दधाति (ज्योतिः) प्रकाशम् (अन्तः) मध्ये (अयम्) (त्रिधातु) सत्वरजस्तमोमयं जगत् (दिवि) प्रकाशे (रोचनेषु) प्रकाशमानेषु (त्रितेषु) प्रसिद्धविद्युत्सूर्येषु (विन्दत्) विन्दति (अमृतम्) नाशरहितम् (निगूळ्हम्) नितरां गुप्तमतीन्द्रियम् ॥२३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! येऽत्र जगति विवाहितैकस्त्रीव्रता विद्याऽविद्याप्रकाशकाः कार्य्यकारणात्मगुप्तपदार्थविद्यावेत्तारः स्युस्ते सूर्य्यवदीश्वरवदाप्तवन्मन्तव्याः स्युः ॥२३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वान् कैसे होवें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वान् जनो ! जैसे (अयम्) यह सूर्य्य (उषसः) प्रातःकाल वेलाओं को (सुपत्नीः) सुन्दर भार्याओं के सदृश (अकृणोत्) करता है, वैसे एक स्त्री के ग्रहणरूप व्रतधारी आप लोग हों और जैसे (अयम्) यह परमात्मा (सूर्य्ये) सूर्य्य के (अन्तः) मध्य में (ज्योतिः) प्रकाश को (अदधात्) धारण करता है, वैसे आत्माओं में विद्या के प्रकाश को धारण करिये और जैसे (अयम्) यह ईश्वर (दिवि) प्रकाश में (त्रितेषु) प्रसिद्ध =अग्नि बिजुली और सूर्य में (रोचनेषु) प्रकाशमानों में (अमृतम्) नाश से रहित (निगूळ्हम्) अत्यन्त गुप्त अतीन्द्रिय (त्रिधातु) सत्व, रज और तमः स्वरूप जगत् को (विन्दत्) प्राप्त होता है, वैसे प्रकृति आदि जगत् को जानिये ॥२३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो इस जगत् में विवाहित एक स्त्री के ग्रहणरूप व्रतधारी, विद्या और अविद्या के प्रकाशक, कार्य्य-कारण स्वरूप गुप्त पदार्थों की विद्या के जाननेवाले होवें वे सूर्य्य, ईश्वर और यथार्थवक्ता जन के सदृश मन्तव्य होवें ॥२३॥
विषय
उत्तम सेनाओं का बनाना।
भावार्थ
जिस प्रकार सूर्य ( उषस: अकृणोत्) तेजोयुक्त प्रभात वेलाओं को प्रकट करता है उसी प्रकार ( अयम् ) यह तेजस्वी पुरुष ( उषसः ) शत्रु को दुग्ध करने में समर्थ सेनाओं को ( सु-पत्नीः ) राष्ट्र की उत्तम पालक रूप से (अकृणोत् ) तैयार करे। और वह ( उषसः ) कान्ति और कामना से युक्त स्त्रियों को ( सु-पत्नीः ) उत्तम गृहपत्नी होने का अधिकार दे । ( सूर्ये अन्तः ज्योतिः ) सूर्य के भीतर विद्यमान तेज के समान प्रखर तेज को वह ( अदधात् ) धारण करे । और ( अयं ) वह ( त्रितेषु रोचनेषु ) तीनों प्रकाशमान अग्नि, विद्युत्, सूर्य उनमें (नि-गूढ़ ) गुप्त रूप से विद्यमान ( त्रि-धातु अमृतम् ) तीनों तत्वों को धारण करने वाले अमृत के समान ( दिवि ) पृथिवी में भी ( त्रितेषु ) उत्तम, मध्यम, निकृष्ट तीनों स्थानों पर शोभा देने वाले पुरुषों में ( नि-गूढं त्रिधातु अमृतं विन्दत् ) छिपे तीनों प्रकार के प्रजाजन को धारण करने वाले अमृत बल को प्राप्त करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः – १, ३, ४ निचृदनुष्टुप् । २, ५ स्वराडुष्णिक् । ६ आसुरी पंक्ति: । ७ भुरिक् पंक्तिः । ८ निचृत्पंक्तिः । ९, १२, १६ पंक्तिः । १०, ११, १३, २२ विराट् त्रिष्टुप् । १४, १५, १७, १८, २०, २४ निचृत्त्रिष्टुप् । १९, २१, २३ त्रिष्टुप् ।। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
'ज्योति का स्रोत' प्रभु
पदार्थ
[१] (अर्य) = यह प्रभु ही (उषसः) = उषाकालों की (सुपत्नी:) = सूर्यरूप शोभन पतिवाला रक्षक है। अर्थात् उषाकालों में सूर्य-किरणों द्वारा यह प्रभु ही प्रकाश को स्थापित करता है। (अयम्) = ये प्रभु ही (सूर्ये अन्तः) = सूर्य के अन्दर (ज्योतिः अदधात्) = प्रकाश को स्थापित करता है। सूर्य भी प्रभु की दीप्ति से ही दीप्त होता है। 'तस्य भासा सर्वमिदं विभाति'। [२] (अयम्) = ये प्रभु ही (दिवि) = ये द्युलोक में (रोचनेषु) = चमकते हुए नक्षत्रों में निवास करनेवाले त्रितेषु शरीर, मन व मस्तिष्क तीनों का विस्तार करनेवाले पुरुषों में [त्रीन् तनोति] (निगूढम्) = सुरक्षित रूप से विद्यमान (त्रिधातु अमृताम्) = ज्ञान, कर्म व श्रद्धा इन तीनों का धारण करनेवाले अमरण हेतु भूत सोम को (विन्दत्) = प्राप्त कराता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही उषाओं को, सूर्य को व नक्षत्र निवासी देव पुरुषों को दीप्ति प्राप्त कराते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जे या जगात पत्नीपरायण, एकनिष्ठ, विद्या व अविद्या प्रकट करणारे कार्यकारणरूप गुप्त पदार्थांची विद्या जाणणारे असतील तर त्यांचे सूर्य, ईश्वर व विद्वान लोकांप्रमाणे मन्तव्य असते. ॥ २३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
This ardent passion of Indra, lord omnipotent creator, makes the dawns bright and blissful inspirers of love and devotion, vests the sun with light within, creates the universe of three natural principles of mind, energy and matter, and infuses the immortal spirit, as mysterious and immanent spirit, in the three bright worlds of heaven, earth and the firmament, and helps us to discover the immortal bliss with ardent passion of holiness.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should the enlightened persons be-is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O highly learned person ! as the sun makes the dawns like good wives, so you should be the observers of the chastity of monogamy. As this sun establishes light in the solar world, so establish the light of knowledge in the heart of the people. As this God, who is the lord of the world, finds out the hidden immortal matter consisting of Satva, Rajas and Tamas (purity, passion and inertia) in three luminaries, fire, lightning and sun; so you should know the nature of the matter and other things.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! those persons, who are observers of the vow of monogamy and chastity, revealers of truth and untruth, knowers of the cause and effect, soul and other subtle objects; should be looked up as the sun, God and enlightened persons.
Foot Notes
(त्रितेषु) प्रसिद्धविद्युत्सूर्येषु । = Fire, lightning and the sun.
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