ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 44/ मन्त्र 7
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
अवि॑द॒द्दक्षं॑ मि॒त्रो नवी॑यान्पपा॒नो दे॒वेभ्यो॒ वस्यो॑ अचैत्। स॒स॒वान्त्स्तौ॒लाभि॑र्धौ॒तरी॑भिरुरु॒ष्या पा॒युर॑भव॒त्सखि॑भ्यः ॥७॥
स्वर सहित पद पाठअवि॑दत् । दक्ष॑म् । मि॒त्रः । नवी॑यान् । प॒पा॒नः । दे॒वेभ्यः॑ । वस्यः॑ । अ॒चै॒त् । स॒स॒ऽवान् । स्तौ॒लाभिः॑ । धौ॒तरी॑भिः । उ॒रु॒ष्या । पा॒युः । अ॒भ॒व॒त् । सखि॑ऽभ्यः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अविदद्दक्षं मित्रो नवीयान्पपानो देवेभ्यो वस्यो अचैत्। ससवान्त्स्तौलाभिर्धौतरीभिरुरुष्या पायुरभवत्सखिभ्यः ॥७॥
स्वर रहित पद पाठअविदत्। दक्षम्। मित्रः। नवीयान्। पपानः। देवेभ्यः। वस्यः। अचैत्। ससऽवान्। स्तौलाभिः। धौतरीभिः। उरुष्या। पायुः। अभवत्। सखिऽभ्यः ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 44; मन्त्र » 7
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजा किं कृत्वा किमनुतिष्ठेदित्याह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! यो नवीयान् पपानो मित्रस्ससवान् पायुः स्तौलाभिर्धौतरीभिर्देवेभ्यः सखिभ्यो वस्योऽचैदुरुष्या मित्रोऽभवत् सोऽतुलं दक्षमविदत् ॥७॥
पदार्थः
(अविदत्) विन्दति (दक्षम्) बलम् (मित्रः) सर्वस्य सुहृत् (नवीयान्) अतिशयेन नूतनवयस्कः (पपानः) पालयन् (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (वस्यः) अतिशयेन वासहेतुम् (अचैत्) चिनुयात् (ससवान्) प्रशस्तानि ससानि विद्यन्ते यस्य सः। ससमित्यन्ननाम। (निघं०२.७) (स्तौलाभिः) स्थूले भवानि। अत्र वर्णव्यत्ययेन थस्य स्थाने तः। (धौतरीभिः) शत्रूणां कम्पयित्रीभिः सेनाभिः (उरुष्या) रक्षेत् (पायुः) रक्षकः सन् (अभवत्) भवेत् (सखिभ्यः) मित्रेभ्यः ॥७॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यः सर्वसुहृद्युवा धनधान्यादियुक्तः सर्वरक्षको महासेनो विद्वान् राजा भवेत्स एव धार्मिकरक्षणाय सत्यं बलं लभेत ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा क्या करके क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् ! जो (नवीयान्) अतिशय थोड़ी अवस्थावाला (पपानः) पालन करता हुआ (मित्रः) सब का मित्र (ससवान्) अच्छे अन्नवाला (पायुः) रक्षक हुआ (स्तौलाभिः) स्थूल में हुई (धौतरीभिः) शत्रुओं को कम्पानेवाली सेनाओं से (देवेभ्यः) विद्वानों के और (सखिभ्यः) मित्रों के लिये (वस्यः) अत्यन्त वास का कारण (अचैत्) बटोरे और (उरुष्या) रक्षा करे और सब का मित्र (अभवत्) हो, वह अतुल (दक्षम्) बल को (अविदत्) पाता है ॥७॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो सब का मित्र, युवा, धन-धान्य आदि से युक्त, सब का रक्षक, बड़ी सेनावाला, विद्वान् राजा होवे, वही धार्म्मिकों के रक्षण के लिये सत्य बल को प्राप्त होवे ॥७॥
विषय
उसके कर्त्तव्य
भावार्थ
(नवीयान् ) सब से अधिक स्तुत्य पुरुष ( पपानः ) राष्ट्र का पालन करता हुआ ( मित्रः ) प्रजा को मरण से बचाने वाला और सबका स्नेही होकर ( दक्षं अविदत् ) बल प्राप्त करे और (वस्वः अचैत् ) नाना धनों का सञ्चय करे । ( वह ससवान् ) उत्तम अन्न का स्वामी होकर (स्तौलाभिः धोतरीभिः) बड़ी २, शत्रुओं कंपा देने वाली सेनाओं द्वारा ( उरुष्या ) प्रजा वा राष्ट्र की रक्षा करने की इच्छा से ( सखिभ्यः ) अपने मित्र वर्गों का भी (पायुः अभवत् ) पालक हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः – १, ३, ४ निचृदनुष्टुप् । २, ५ स्वराडुष्णिक् । ६ आसुरी पंक्ति: । ७ भुरिक् पंक्तिः । ८ निचृत्पंक्तिः । ९, १२, १६ पंक्तिः । १०, ११, १३, २२ विराट् त्रिष्टुप् । १४, १५, १७, १८, २०, २४ निचृत्त्रिष्टुप् । १९, २१, २३ त्रिष्टुप् ।। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
'वलद्यता-धनविचेता' प्रभु
पदार्थ
[१] वह (नवीयान्) = अतिशयेन (स्तुत्य) = स्तुत्यतर (मित्रः) = पापों से बचानेवाले प्रभु (दक्षम्) = बल को (अविदत्) = प्राप्त कराते हैं। बल को देकर ही हमें वह पापों बचाते हैं। निर्बलता में ही पापों का निवास है। (पपान:) = [पन स्तुतौ] स्तुति किये जाते हुए वे प्रभु (देवेभ्यः) = इन स्तोताओं के लिये [दिव् स्तुतौ] (वस्य:) = सशक्त धन का (अचैत्) = संचय करते हैं। वे प्रभु स्तोताओं के लिये सब ऐश्वर्यों को प्राप्त कराते हैं । [२] (स्तौलाभिः) = [स्थूलाभिः] अत्यन्त प्रवृद्ध (धौतरीभिः) = शत्रुओं को कम्पित करनेवाली शक्तियों से (ससवान्) = संभजमान वे प्रभु (उरुष्या) = हमारे रक्षण की कामना से (सखिभ्यः) = अपने इन साथियों के लिये (पायुः अभवत्) = रक्षक होते हैं। शत्रु कम्पक शक्तियों को प्राप्त कराके वे प्रभु हमारा रक्षण करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- वे स्तुत्य प्रभु हमें शक्ति व धन प्राप्त कराते हैं। प्रवृद्ध शत्रु कम्पक शक्तियों के द्वारा वे हमारा रक्षण करते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जो सर्वांचा मित्र, तरुण, धनधान्य इत्यादींनी युक्त, सर्वांचा रक्षक, मोठे सैन्य बाळगणारा असा विद्वान राजा असेल त्यालाच धार्मिकांचे रक्षण करण्यासाठी सत्य बल प्राप्त व्हावे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The rising youth, friendly and protective, knows and achieves strength and expertise, and provides a place of rest and security for the noble and the wise. Well provided with food and means of sustenance, eager to protect and promote, he rises as a guardian power for friends and companions with unshakable forces of defence and protection.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a king do by doing what-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O King ! he who being of young age, nourishing friend of all, having abundant and good food grains and protecting with strong armies shaking the foes, arranges for proper dwelling places for the enlightened friends, and becomes a true friend, guarding men, attains incomparable strength.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! that king alone can get true strength for the protection of the righteous persons, who is friend of all, young (energetic) endowed with wealth and grains, protector of all, having strong army and highly learned.
Foot Notes
(दक्षम्) बलम् । दक्ष इति बलनाम (NG 2,9):। = big and Strength. (ससवान् ) प्रशस्तानि ससानि विद्यन्ते यस्य सः । ससमित्यन्ननाम (NG 2;7)। = Possessing good stock of good food grains. (धौतरीभि:) शत्रूणां कम्पयित्रीभि सेनाभिः । धुञ्-कम्पने (स्वा० )। = With armies shaking the enemies.
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