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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 44/ मन्त्र 9
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    द्यु॒मत्त॑मं॒ दक्षं॑ धेह्य॒स्मे सेधा॒ जना॑नां पू॒र्वीररा॑तीः। वर्षी॑यो॒ वयः॑ कृणुहि॒ शची॑भि॒र्धन॑स्य सा॒ताव॒स्माँ अ॑विड्ढि ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्यु॒मत्ऽत॑मम् । दक्ष॑म् । धे॒हि॒ । अ॒स्मे इति॑ । सेध॑ । जना॑नाम् । पू॒र्वीः । अरा॑तीः । वर्षी॑यः । वयः॑ । कृ॒णु॒हि॒ । शची॑भिः । धन॑स्य । सा॒तौ । अ॒स्मान् । अ॒वि॒ड्ढि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्युमत्तमं दक्षं धेह्यस्मे सेधा जनानां पूर्वीररातीः। वर्षीयो वयः कृणुहि शचीभिर्धनस्य सातावस्माँ अविड्ढि ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्युमत्ऽतमम्। दक्षम्। धेहि। अस्मे इति। सेध। जनानाम्। पूर्वीः। अरातीः। वर्षीयः। वयः। कृणुहि। शचीभिः। धनस्य। सातौ। अस्मान्। अविड्ढि ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 44; मन्त्र » 9
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजप्रजाजनाः परस्परस्य हितं कथं कुर्य्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे राजन् ! त्वं शचीभिरस्मे द्युमत्तमं दक्षं धेहि कार्य्यं सेधा जनानां पूर्वीररातीर्निवर्तय वर्षीयो वयः कृणुहि धनस्य सातावस्मानविड्ढि ॥९॥

    पदार्थः

    (द्युमत्तमम्) प्रशस्ता द्यौर्विद्याप्रकाशो विद्यते यस्य यस्मिंस्तदतिशयितम् (दक्षम्) बलम् (धेहि) (अस्मे) अस्मासु (सेधा) साध्नुहि। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (जनानाम्) मनुष्याणाम् (पूर्वीः) प्राचीनाः (अरातीः) अदानक्रियाः (वर्षीयः) अतिशयेन श्रेष्ठम् (वयः) कमनीयमायुः (कृणुहि) (शचीभिः) प्रज्ञाभिः कर्मभिर्वा प्रजाभिः सह (धनस्य) (सातौ) संविभागे (अस्मान्) (अविड्ढि) प्रवेशय ॥९॥

    भावार्थः

    प्रजाजनै राजैवं प्रार्थनीयो हे राजंस्त्वं यद्यस्मान् बलवत्तमान् कृपणतारहितान् ब्रह्मचर्य्यादिना दीर्घायुषः पुरुषार्थिनः सर्वतो रक्षयित्वाऽभयान् कृत्वा धर्मार्थकाममोक्षसाधने प्रवेशयेस्तर्हि भवन्तं वयं सर्वदा वर्धयेम ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राजा और प्रजाजन का हित कैसे करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! आप (शचीभिः) बुद्धियों वा कर्मों वा प्रजाओं के साथ (अस्मे) हम लोगों में (द्युमत्तमम्) प्रशंसित अत्यन्त विद्या के प्रकाश से युक्त (दक्षम्) बल को (धेहि) धारण करिये और कार्य्य को (सेधा) सिद्ध कीजिये और (जनानाम्) मनुष्यों की (पूर्वीः) प्राचीन (अरातीः) नहीं दान करने की क्रियाओं को दूर कीजिये तथा (वर्षीयः) अतिशय श्रेष्ठ (वयः) सुन्दर अवस्था को (कृणुहि) करिये और (धनस्य) धन के (सातौ) संविभाग में (अस्मान्) हम लोगों का (अविड्ढि) प्रवेश कराइये ॥९॥

    भावार्थ

    प्रजाजनों को राजा की ऐसी प्रार्थना करनी चाहिये कि हे राजन् ! आप जो हम लोगों को बलयुक्त, कृपणता से रहित और ब्रह्मचर्य्य आदि से दीर्घ अवस्थावाले पुरुषार्थी और सब प्रकार से रक्षा करके भयरहित करके धर्म्म, अर्थ, काम और मोक्ष के साधन में प्रवेश कराइये तो आपकी हम लोग सर्वदा वृद्धि करें ॥९॥

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    विषय

    बुरी आदतों को त्यागकर प्रजा की आयुवृद्धि का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! विद्वन् ! ( अस्मे ) हम में ( द्युमत्तमं ) उत्तम तेज, और विद्या प्रकाश से युक्त ( दक्षं ) बल (धेहि ) धारण करा । और ( जनानां ) मनुष्यों के बीच में (पूर्वी: अरातीः ) पूर्व की विद्यमान न देने की तुच्छ, कृपण आदतों को ( सेध ) दूर कर। और ( शचीभिः ) उत्तम बुद्धियों, शक्तियों तथा वाणियों द्वारा (वर्षीयः वयः ) अति उत्तम, बहुत वर्षों तक स्थिर रहने वाला जीवन और बल (कृणुहि ) कर, जिससे प्रजाएं दीर्घायु हों । और ( धनस्य ) धन के (सातौ) न्यायपूर्वक विभाग करने के निमित्त तू ( अस्मान् अविड्ढि ) हम में प्रवेश कर, हम पर अध्यक्ष होकर रह ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः – १, ३, ४ निचृदनुष्टुप् । २, ५ स्वराडुष्णिक् । ६ आसुरी पंक्ति: । ७ भुरिक् पंक्तिः । ८ निचृत्पंक्तिः । ९, १२, १६ पंक्तिः । १०, ११, १३, २२ विराट् त्रिष्टुप् । १४, १५, १७, १८, २०, २४ निचृत्त्रिष्टुप् । १९, २१, २३ त्रिष्टुप् ।। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम् ।।

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    विषय

    द्युमत्तमं दक्षम्

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो! (द्युमत्तमम्) = अधिक से अधिक ज्ञान की ज्योतिवाले (दक्षम्) = बल को (अस्मे) = हमारे लिये (धेहि) = धारण कीजिये, हमें ज्ञान-बल प्राप्त हो । इस प्रकार ज्ञान व बल को प्राप्त कराके आप (जनानाम्) = लोगों के (पूर्वी: अराती:) = इन बहुत संख्यावाले शत्रुओं को (सेधा) = दूर करिये । ज्ञानाग्नि में काम-क्रोध दग्ध हो जाएँ और बल से रोग भाग जायें। [२] इस प्रकार (शचीभिः) = कर्मशक्ति [बल] व प्रज्ञानों से हमारे (वर्षीयः) = अत्यन्त उत्कृष्ट व दीर्घ (वयः) = जीवन को (कृणुहि) = करिये । इस जीवन में (धनस्य सातौ) = धन की प्राप्ति के निमित्त (अस्मान् अविड्दि) = हमारा रक्षण कीजिये । आवश्यक धनों को प्राप्त करके हम अपने जीवनों को धन्य बनायें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें ज्ञानयुक्त बल प्राप्त हो ताकि हम निर्मल मनवाले व नीरोग शरीरवाले बनें । शक्ति व प्रज्ञान के साथ उत्कृष्ट जीवन को प्राप्त करते हुए हम धनों को प्राप्त कर धन्य बनें ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रजाजनांनी राजाला अशी प्रार्थना करावी की हे राजा ! तू आम्हाला बलवान, उदार, ब्रह्मचर्य इत्यादीद्वारे दीर्घायुषी, पुरुषार्थी, निर्भय करून सर्व प्रकारे रक्षण कर व धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष यात प्रवेश कर व आम्ही सर्वजण नेहमी तुझी उन्नती करू. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Grant us strength and expertise of the brightest order, accomplish the tasks on hand and ward off the age-old adversities of the people, bless us with a long age of charity and generosity, and let us join and participate in the battles for wealth and success with the best of actions and intelligence among people.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should kings and their subjects do good to one another-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king with your wisdom and good actions along with your subjects bestow on us the most illustrious strength endowed with the light of knowledge. Accomplish your work, ward off the miserliness of the people even though that may be ancient. Lead a very good life and attain good age. Make us also partners in the distribution of riches.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The subjects should pray to the ruler in this manner :-O king! we may always increase your strength if you make us very mighty, devoid of miserliness, long-lived on account of the observance of Brahmacharya (abstinence) industrious and fearless by protecting us and urge us to accomplish Dharma (righteousness), wealth, fulfilment of noble desires and emancipation.

    Foot Notes

    (अरातीः) अदानक्रियाः । रा-दाने (अ० ) । = Miserliness. (सातौ) संविभागे । षण-संभक्तौ (भ्वा०)।: = In the act of distribution. (शचीभिः) प्रज्ञाभिः कर्मभिर्वा प्रज्ञाभिः सह । शचीति प्रज्ञानाम (NG 2,9) शचिति कर्मनाम (NG 2, 1 )। = With wisdom, good action and with the subjects.

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