ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 44/ मन्त्र 22
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒यं दे॒वः सह॑सा॒ जाय॑मान॒ इन्द्रे॑ण यु॒जा प॒णिम॑स्तभायत्। अ॒यं स्वस्य॑ पि॒तुरायु॑धा॒नीन्दु॑रमुष्णा॒दशि॑वस्य मा॒याः ॥२२॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । दे॒वः । सह॑सा । जाय॑मानः । इन्द्रे॑ण । यु॒जा । प॒णिम् । अ॒स्त॒भा॒य॒त् । अ॒यम् । स्वस्य॑ । पि॒तुः । आयु॑धानि । इन्दुः॑ । अ॒मु॒ष्णा॒त् । अशि॑वस्य । मा॒याः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं देवः सहसा जायमान इन्द्रेण युजा पणिमस्तभायत्। अयं स्वस्य पितुरायुधानीन्दुरमुष्णादशिवस्य मायाः ॥२२॥
स्वर रहित पद पाठअयम्। देवः। सहसा। जायमानः। इन्द्रेण। युजा। पणिम्। अस्तभायत्। अयम्। स्वस्य। पितुः। आयुधानि। इन्दुः। अमुष्णात्। अशिवस्य। मायाः ॥२२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 44; मन्त्र » 22
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स राजा कस्य सत्कारं कुर्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! योऽयमिन्द्रेण युजा सहसा जायमानो देवो विद्वान् पणिमस्तभायद् योऽयमिन्दुः स्वस्य पितुरायुधान्यस्तभायदशिवस्य माया अमुष्णात्तं भवान् गुरुवत्सत्करोतु ॥२२ ॥
पदार्थः
(अयम्) (देवः) दिव्यगुणः (सहसा) बलेन (जायमानः) उत्पद्यमानः (इन्द्रेण) परमैश्वर्येण (युजा) यो युङ्क्ते तेन राज्ञा (पणिम्) स्तुत्यं व्यवहारम् (अस्तभायत्) स्तभ्नाति स्थिरीकरोति (अयम्) (स्वस्य) (पितुः) जनकस्य (आयुधानि) शस्त्रास्त्राणि (इन्दुः) आनन्दकरः (अमुष्णात्) मुष्णाति चोरयति (अशिवस्य) अमङ्गलस्य (मायाः) प्रज्ञाः ॥२२ ॥
भावार्थः
हे राजन् ! ये धर्म्यं व्यवहारं स्वयमाचर्य्य सर्वत्र प्रचारयन्ति युद्धविद्योपदेशकुशला अमङ्गलं सर्वतो विनाश्य भद्रं जनयन्ति ते त्वत्तः सत्कारं प्राप्नुवन्तु ॥२२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा किसका सत्कार करे, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् ! जो (अयम्) यह (इन्द्रेण) अत्यन्त ऐश्वर्य से (युजा) युक्त होनेवाले राजा से (सहसा) बल से (जायमानः) उत्पन्न हुआ (देवः) श्रेष्ठ गुणवाला विद्वान् (पणिम्) स्तुति करने योग्य व्यवहार को (अस्तभायत्) स्थिर करता है और जो (अयम्) यह (इन्दुः) आनन्दकारक (स्वस्य) अपने (पितुः) पिता के (आयुधानि) शस्त्र और अस्त्रों को स्थिर करता है और (अशिवस्य) अमङ्गल की (मायाः) बुद्धियों को (अमुष्णात्) चुराता है, उसका आप गुरु के सदृश सत्कार करिये ॥२२ ॥
भावार्थ
हे राजन् ! जो धर्म्मयुक्त व्यवहार को स्वयं करके सर्वत्र प्रचार करते हैं और युद्धविद्या में और उपदेश में कुशल हुए अमङ्गल का सब प्रकार नाश करके कल्याण को उत्पन्न करते हैं, वे आपसे सत्कार को प्राप्त हों ॥२२॥
विषय
शस्त्रबल का स्तम्भन धारण ।
भावार्थ
( अयं ) यह ( देवः ) तेजस्वी, पुरुष ( सहसा ) अपने बल से (जायमानः ) प्रकट होकर ( इन्द्रेण युजा ) ऐश्वर्ययुक्त सहायक के साथ मिलकर ( पणिम् ) स्तुत्य व्यवहार और व्यवहार कुशल प्रजावर्ग को ( अस्तभायत् ) स्थिर करे, उसे शासन करे । और ( अयं ) वह ( इन्दुः ) स्वयं आर्द्र-हृदय एवं ऐश्वर्य युक्त चन्द्र के समान आह्लादक होकर ( स्वस्य पितुः ) अपने पालक पिता के ( आयुधानि ) शस्त्रों अस्त्रों को ( अस्तभायत्) स्थिरता से धारण करे । और ( अशिवस्य मायाः ) अमङ्गलजनक शत्रु के छल कपटयुक्त चालों को ( अमुष्णात् ) दूर करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः – १, ३, ४ निचृदनुष्टुप् । २, ५ स्वराडुष्णिक् । ६ आसुरी पंक्ति: । ७ भुरिक् पंक्तिः । ८ निचृत्पंक्तिः । ९, १२, १६ पंक्तिः । १०, ११, १३, २२ विराट् त्रिष्टुप् । १४, १५, १७, १८, २०, २४ निचृत्त्रिष्टुप् । १९, २१, २३ त्रिष्टुप् ।। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
सोमरक्षण व लोभ विनाश
पदार्थ
[१] (अयम्) = यह (देव:) = दिव्य गुणों को जन्म देनेवाला सोम (सहसा) = शत्रुमर्षक बल के साथ (जायमानः) = प्रादुर्भूत होता हुआ (इन्द्रेण युजा) = अपने साथी इस जितेन्द्रिय पुरुष के साथ (पणिम्) = व्यापारिक व्यावहारिक धनादि के प्रति आसक्ति रूप लोभवृत्ति को (अस्तभायत्) = रोकता है। इसके रक्षण से लोभवृत्ति का निरोध होता है। [२] (अयं इन्दुः) = यह सोम (स्वस्य) = धन के (पितुः) = पिता धन के पहरेदार बने हुए, इस लोभ के (आयुधानि) = अस्त्रों को (अमुष्णात्) = अपहृत चुराने के लोभ के अस्त्र इस सोमरक्षक को आहत नहीं कर पाते। (अशिवस्य) = अकल्याणकर आसुरी (मायाः) = मायाओं को, फँसानेवाले आकर्षक रूपों को यह सोम नष्ट करता है। आसुररूपी गाया इस सोमरक्षक को प्रभावित नहीं कर पाती ।
भावार्थ
भावार्थ- जितेन्द्रिय पुरुष सोम का रक्षण करता हुआ लोभ की माया में नहीं फँसता ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा ! जे धर्मयुक्त व्यवहार स्वतः करून सर्वत्र प्रचार करतात व युद्धविद्येत आणि उपदेश करण्यात कुशल असून अमंगळाचा सर्व प्रकारे नाश करून कल्याण करतात त्यांचा तू सत्कार कर. ॥ २२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
This brilliant and divine soma rising and manifesting with exhilaration and ardent passion, friend of Indra and one with his glory, stabilises the admirable rule and order of the world and strengthens the supporters of it. This soma, bright and blissful as the moon, keeps the arms and armaments and the justice and administration of its creator and ruler in order, and it frustrates the plans and wiles of the unruly and the unholy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
whom should a king honor - is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
o king you should honor him like a Gutu (preceptor) who being endowed with DeVine virtues and with the help of the opulent king, makes the admirable dealing permanent. This creator of joy, makes firm the weapons used by his father and takes away the evil intellect of a wicked person or inauspicious ness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king ! let these persons be ever honored by you, who perform righteous deeds themselves and propagate them to others, who are experts in preaching the science of warfare, and generate good, by destroying inauspiciousness or evil from all sides.
Foot Notes
(पणिम्) स्तुत्यं व्यवहारम् । पण व्यवहारे स्तुतौ च (भ्वा.) अत्र व्यवहारार्थः । = Admirable dealing. (अमुष्णात्) मुष्णाति चोरयति । = Takes away.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal