ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 44/ मन्त्र 13
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अध्व॑र्यो वीर॒ प्र म॒हे सु॒ताना॒मिन्द्रा॑य भर॒ स ह्य॑स्य॒ राजा॑। यः पू॒र्व्याभि॑रु॒त नूत॑नाभिर्गी॒र्भिर्वा॑वृ॒धे गृ॑ण॒तामृषी॑णाम् ॥१३॥
स्वर सहित पद पाठअध्व॑र्यो॒ इति॑ । वी॒र॒ । प्र । म॒हे । सु॒ताना॑म् । इन्द्रा॑य । भ॒र॒ । सः । हि । अ॒स्य॒ । राजा॑ । यः । पू॒र्व्याभिः॑ । उ॒त । नूत॑नाभिः । गीः॒ऽभिः । व॒वृ॒धे । गृ॒ण॒ताम् । ऋषी॑णाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अध्वर्यो वीर प्र महे सुतानामिन्द्राय भर स ह्यस्य राजा। यः पूर्व्याभिरुत नूतनाभिर्गीर्भिर्वावृधे गृणतामृषीणाम् ॥१३॥
स्वर रहित पद पाठअध्वर्यो इति। वीर। प्र। महे। सुतानाम्। इन्द्राय। भर। सः। हि। अस्य। राजा। यः। पूर्व्याभिः। उत। नूतनाभिः। गीःऽभिः। ववृधे। गृणताम्। ऋषीणाम् ॥१३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 44; मन्त्र » 13
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
कोऽत्र राजा भवितुं योग्य इत्याह ॥
अन्वयः
हे अध्वर्यो वीर ! यो राजा गृणतामृषीणां पूर्व्याभिरुत नूतनाभिर्गीर्भिर्वावृधे स ह्यस्य राष्ट्रस्य राजा भवितुं योग्यस्तथा त्वं सुतानां मह इन्द्रायैतान् प्र भर ॥१३॥
पदार्थः
(अध्वर्यो) अहिंसक (वीर) दुष्टानां हिंसक (प्र) (महे) महते (सुतानाम्) निष्पन्नानां पदार्थानाम् (इन्द्राय) परमैश्वर्याय (भर) धर (सः) (हि) (अस्य) (राजा) (यः) (पूर्व्याभिः) पूर्वैः सेविताभिः (उत) अपि (नूतनाभिः) नवीनाभिर्वर्तमानाभिः (गीर्भिः) (वावृधे) वर्धते। अत्र तुजादीनामित्यभ्यासदैर्घ्यम्। (गृणताम्) प्रशंसकानाम् (ऋषीणाम्) मन्त्रार्थविदाम् ॥१३॥
भावार्थः
स एव राज्यं पालयितुं वर्धयितुं च शक्नोति य आप्तैस्सहितः सुशिक्षितो न्यायेशो भवत्स एव विद्वान् भवति यः शिष्टेभ्यो नित्यमुपदेशं शृणोति ॥१३॥
हिन्दी (3)
विषय
कौन इस पृथिवी पर राजा होने के योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अध्वर्यो) नहीं हिंसा करनेवाले (वीर) दुष्टों की हिंसा करनेवाले ! (यः) जो (राजा) राजा (गृणताम्) प्रशंसा करनेवाले (ऋषीणाम्) मन्त्रों के अर्थ जाननेवालों की (पूर्व्याभिः) पूर्व जनों से सेवित (उत) भी (नूतनाभिः) नवीन वर्त्तमान (गीर्भिः) वाणियों से (वावृधे) वृद्धि को प्राप्त होता है (सः, हि) वही (अस्य) इस राज्य का राजा होने को योग्य हो, वैसे आप (सुतानाम्) उत्पन्न हुए पदार्थों के (महे) बड़े (इन्द्राय) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के लिये इन को (प्र, भर) धारण करिये ॥१३॥
भावार्थ
वही राज्य पालन करने और बढ़ाने को समर्थ होता है, जो यथार्थवक्ताओं के सहित, उत्तम प्रकार शिक्षित और न्यायेश होवे और वही विद्वान् होता है, जो शिष्ट जनों से नित्य उपदेश सुनता है ॥१३॥
विषय
missing
भावार्थ
हे (अध्वर्यो ) प्रजा का नाश करने वाले ! अहिंसक (वीर) वीर पुरुष ! तू ( महे) महान् ( इन्द्राय ) ऐश्वर्य की वृद्धि के लिये ( सुतानाम्) ऐश्वर्यों को अथवा उत्पन्न पुत्रों के समान राष्ट्र में उत्पन्न प्रजाओं को ( प्र भर ) अच्छी प्रकार धारण कर । ( सः ) वह तू ( हि ) निश्चय से ( अस्य ) इस राज्य और समस्त ऐश्वर्य का ( राजा ) राजा है । ( यः ) जो तू (पूर्व्याभिः ) पूर्व की ( उत ) और (नूतनाभिः ) नयी २ ( ऋषीणाम् ) तत्वदर्शी ( गृणताम् ) उपदेष्टा पुरुषों की ( गीर्भिः ) वाणियों से ( ववृधे ) अधिक वृद्धि प्राप्त करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः – १, ३, ४ निचृदनुष्टुप् । २, ५ स्वराडुष्णिक् । ६ आसुरी पंक्ति: । ७ भुरिक् पंक्तिः । ८ निचृत्पंक्तिः । ९, १२, १६ पंक्तिः । १०, ११, १३, २२ विराट् त्रिष्टुप् । १४, १५, १७, १८, २०, २४ निचृत्त्रिष्टुप् । १९, २१, २३ त्रिष्टुप् ।। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
पूर्वाभिः उत नूतनाभिः
पदार्थ
[१] हे वीर शत्रुओं को कम्पित करनेवाले (अध्वर्यो) = यज्ञशील पुरुष ! (महे) = उस महान् (इन्द्राय) = परमैश्वर्यशाली प्रभु की प्राप्ति के लिये (सुतानां प्रभर) = इन उत्पन्न सोमों का धारण कर । ये सुरक्षित सोम ही तुझे प्रभु प्राप्ति के योग्य बनायेंगे। (सः हि) वे प्रभु ही (अस्य राजा) = इस सोम को जीवन में दीप्त करनेवाले हैं। अर्थात् हमारे जीवनों में सोम का स्थापन करके प्रभु हमें दीप्त जीवनवाला बनाते हैं । [२] (यः) = जो प्रभु (गृणतां ऋषीणाम्) = स्तुति करनेवाले तत्त्वद्रष्टा ज्ञानियों की (पूर्व्याभिः) = पूर्वकाल में होनेवाली (उत) = और (नूतनाभिः) = इस समय होनेवाली नवीन (गीर्भिः) = स्तुतिवाणियों से (वावृधे) = बढ़ाये जाते हैं। वे प्रभु ही इस सोम के द्वारा हमारे जीवन को दीप्त करते हैं। प्रभु स्तवन ही सोमरक्षण का साधन होता है। प्रभु स्तवन से सोमरक्षण होता है, रक्षित सोम से ज्ञानाग्नि के दीपन के द्वारा प्रभु दर्शन होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु प्राप्ति के लिये हम सोमरक्षण द्वारा दीप्त जीवनवाले बनें। सोमरक्षण के लिये सदा स्तुतिशील हों।
मराठी (1)
भावार्थ
जो विद्वानांकडून उत्तम प्रकारे शिक्षित, न्यायी व विद्वान होतो व जो सभ्य लोकांचा उपदेश ऐकतो तोच राज्यपालन करू शकतो व राज्य वाढवू शकतो. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O brave high priest of the social order of the yajna of love and non-violence, bear the best of soma distilled for homage in honour of the great Indra, ruler of the world. He alone is the ruler of this order worthy to rule who rises in personal and social esteem by the holy voices, both old and new, of the admirers and the wise seers of the land.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who is fit to be a king-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O (non-violent in spirit but destroyer of the wicked enemies) king! he alone is fit to be the ruler of this State, whose power is enhanced by the ancient and recent words of the admiring knowers of the meanings of the mantras. Hold (utter) these inspiring words for the development and growth of all articles that have been prepared.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
He alone is fit to nourish and make the state advanced, who is trained well by absolutely truthful enlightened persons and administrator of justice. He alone becomes a good scholar, who hears the teachings given by righteous enlightened men.
Foot Notes
(अध्वर्यो) अहिंसक । (अध्वरः) ध्वरति हिंसा कर्मा तत्प्रतिषेधः । अध्वर्यु: अध्वरंयुनक्त्य अध्वरस्प्र नेता अंध्वरं कामयत इति वापि (NKT 1,3,8) सर्वेऽहिसका धार्मिकाः स्पुरिति यः कामयते सोऽध्वर्यु:। = Non-violent. (सुतानाम् ) निष्पन्नन पदार्थानाम्। = The articles that have been prepared. (गुणाताम्) प्रशंसकानाम् । गृ-शब्दे (चुरा०) अत्र प्रशंसा शब्दोच्चारणम् परमेश्वर स्तुति करण वा: । = Of the admiring. (ऋषिणाम्) मन्त्रार्थविदाम्। = knowers of meaning of the Vedic mantras.
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