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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 44/ मन्त्र 15
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पाता॑ सु॒तमिन्द्रो॑ अस्तु॒ सोमं॒ हन्ता॑ वृ॒त्रं वज्रे॑ण मन्दसा॒नः। गन्ता॑ य॒ज्ञं प॑रा॒वत॑श्चि॒दच्छा॒ वसु॑र्धी॒नाम॑वि॒ता का॒रुधा॑याः ॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पाता॑ । सु॒तम् । इन्द्रः॑ । अ॒स्तु॒ । सोम॑म् । हन्ता॑ । वृ॒त्रम् । वज्रे॑ण । म॒न्द॒सा॒नः । गन्ता॑ । य॒ज्ञम् । प॒रा॒ऽवतः॑ । चि॒त् । अच्छ॑ । वसुः॑ । धी॒नाम् । अ॒वि॒ता । का॒रुऽधा॑याः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पाता सुतमिन्द्रो अस्तु सोमं हन्ता वृत्रं वज्रेण मन्दसानः। गन्ता यज्ञं परावतश्चिदच्छा वसुर्धीनामविता कारुधायाः ॥१५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पाता। सुतम्। इन्द्रः। अस्तु। सोमम्। हन्ता। वृत्रम्। वज्रेण। मन्दसानः। गन्ता। यज्ञम्। पराऽवतः। चित्। अच्छ। वसुः। धीनाम्। अविता। कारुऽधायाः ॥१५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 44; मन्त्र » 15
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! य इन्द्रस्सुतं सोमं पाता वज्रेण मन्दसानो वृत्रं सूर्य इव शत्रून् हन्ता यज्ञं गन्ता परावतश्चित्कारुधाया वसुः सन् धीनामच्छाऽविता वर्त्तत इन्द्रोऽस्तु तं यूयं सततं सत्कुरुत ॥१५॥

    पदार्थः

    (पाता) पानकर्त्ता। अत्रावितेति विहाय सर्वत्र तृन् प्रत्ययः। (सुतम्) निष्पन्नम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यप्रदः (अस्तु) (सोमम्) ओषधिरसम् (हन्ता) (वृत्रम्) मेघम् (वज्रेण) शस्त्राऽस्त्रसमूहेन (मन्दसानः) कामयमानः (गन्ता) (यज्ञम्) सत्क्रियामयं व्यवहारम् (परावतः) दूरदेशात् (चित्) अपि (अच्छा) (वसुः) वासयिता (धीनाम्) उत्तमानाम्। धीरिति कर्मनाम। (निघं०२.१) (अविता) रक्षकः (कारुधायाः) कारूणां शिल्पीनां धारकः ॥१५॥

    भावार्थः

    ये राजादयो मनुष्या वैद्यकशास्त्रसम्पादितमोषधिरसं पिबन्ति शस्त्रास्त्रविद्यया दुष्टान्निवार्य न्यायप्रचाराख्यं प्रचार्य्य सत्कर्मानुष्ठातारः शिल्पविद्याविदः सङ्गृह्यालस्यं विहाय सत्कर्मसु प्रवर्त्तन्ते त एवात्र प्रशंसनीया भवन्ति ॥१५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्य्य का देनेवाला (सुतम्) उत्पन्न हुए (सोमम्) ओषधिरस को (पाता) पान करनेवाला (वज्रेण) शस्त्र और अस्त्रों के समूह से (मन्दसानः) कामना करता हुआ (वृत्रम्) मेघ को सूर्य्य जैसे वैसे शत्रुओं को (हन्ता) मारने (यज्ञम्) श्रेष्ठक्रियास्वरूप व्यवहार को (गन्ता) प्राप्त होने (परावतः) दूर देश से (चित्) भी (कारुधायाः) शिल्पी जनों का धारण करनेवाला और (वसुः) बसानेवाला होता हुआ (धीनाम्) उत्तम कर्म्मों की (अच्छा) अच्छे प्रकार (अविता) रक्षा करनेवाला है, वह अत्यन्त ऐश्वर्य्य से युक्त (अस्तु) हो, उसका आप लोग निरन्तर सत्कार करो ॥१५॥

    भावार्थ

    जो राजा आदि मनुष्य वैद्यकशास्त्र की रीति से उत्पन्न किये ओषधियों के रस को पीते हैं तथा शस्त्र और अस्त्र की विद्या से दुष्टों का निवारण करके न्यायप्रचार नामक कर्म्म का प्रचार करके सत्कर्म्म के करने और शिल्पविद्या के जाननेवालों को स­ह करके आलस्य का त्याग करके श्रेष्ठ कर्म्मों में प्रवृत्त होते, वे ही यहाँ प्रशंसनीय होते हैं ॥१५॥

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    विषय

    राजा की आवश्यक योग्यताएं ।

    भावार्थ

    ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् और शत्रुहन्ता पुरुष ही ( सुतं पाता) उत्पन्न हुए अन्न आदि ऐश्वर्य का भोक्ता तथा प्रजाओं का पुत्रवत् पालनकर्त्ता (अस्तु) हो । वही (सोमं ) उत्तम ऐश्वर्य का भोक्ता हो । वह ( मन्दसान: ) अति हृष्ट होकर ( वज्रेण ) शस्त्रवल से ( वृत्रं ) मेघ को सूर्यवत् अपने बढ़ते शत्रु को ( हन्ता ) नाश करने वाला हो । वह (परावतः चित्) दूर देश से भी ( यज्ञं ) यज्ञ आदि श्रेष्ठ कर्मों तथा पूज्य सत्संग योग्य पुरुष को (अच्छ गन्ता) प्राप्त होने वाला हो । वह ( वसुः ) प्रजा के बसाने हारा (कारु-धायाः) विद्वानों और शिल्पियों का पोषण करने वाला होकर ( धीनाम् ) उत्तम ज्ञानों और उत्तम कर्म कौशलों वा धन्धों का भी ( अविता ) रक्षक हो । इत्यष्टादशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः – १, ३, ४ निचृदनुष्टुप् । २, ५ स्वराडुष्णिक् । ६ आसुरी पंक्ति: । ७ भुरिक् पंक्तिः । ८ निचृत्पंक्तिः । ९, १२, १६ पंक्तिः । १०, ११, १३, २२ विराट् त्रिष्टुप् । १४, १५, १७, १८, २०, २४ निचृत्त्रिष्टुप् । १९, २१, २३ त्रिष्टुप् ।। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम् ।।

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    विषय

    सोमरक्षण- वृत्रहनन-यज्ञशीलता

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष (सुतं सोमः) = उत्पन्न हुए हुए सोम को [वीर्यशक्ति को] (पाता अस्तु) = उत्तमता से पीनेवाला हो [साधुकारिणि तृन्] । और (मन्दसान:) = सोमरक्षण से उल्लास का अनुभव करता हुआ [माद्यन्] यह इन्द्र वज्रेण क्रियाशीलता रूप वज्र से (वृत्रं हन्ता) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को नष्ट करनेवाला हो। [२] (परावतः चित्) = कार्यवश दूर-दूर देशों में गया हुआ भी (यज्ञं अच्छा गन्ता) = यज्ञों की ओर जानेवाला हो। इस प्रकार यह जितेन्द्रिय पुरुष (वसुः) = जीवन के निवास को उत्तम बनानेवाला हो। (धीनां अविता) = बुद्धियों व कर्मों का रक्षक हो । (कारुधायाः) = कर्म करनेवालों का धारण करनेवाला हो । कर्मशीलों को उत्साहित करे ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से ज्ञानाग्नि का दीपन करके हम वासनारूप वृत्रों का दहन करें। वासनाविनाश से यज्ञशील जीवनवाले बनें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे राजे वगैरे लोक वैद्यकशास्त्रानुसार औषधींचा रस प्राशन करतात व शस्त्रास्त्रविद्येने दुष्टांचे निवारण करून न्यायाचा प्रचार करून सत्कर्म करणाऱ्यांना व शिल्पविद्या जाणणाऱ्यांना जवळ करतात, आळस सोडून श्रेष्ठ कर्मात प्रवृत्त होतात ते प्रशंसनीय ठरतात. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Let Indra, the ruler, drink the soma distilled from exhilarating herbs and protect the spirit and honour of the nation arisen from the noble rule of the order. Let him, happy and inspired, destroy the demon of evil and darkness with the thunderbolt of justice and power. Let him go and attend the yajna of the order well even from afar, provide happy and peaceful settlement for all the people, protect and promote intellectual work and programmes of corporate action, and sustain and advance the experts in art, science and technology.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you should always honor that king, who is the giver of great wealth or prosperity, drinker of the juice of Soma and other invigorating herbs, slayer of enemies desiring the welfare of his subjects, like the sun destroying the clouds, going to attend Yajna or good dealings of various kinds, upholder of the artisans, even from a distant place and causing the proper in habilitation or settlement and protector of good deeds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those kings and their ministers become praise- worthy in this world, who drink the juice of the herbs prepared according to the methods given in the Ayurveda Shastra (medical science); remove the wicked by the use of the arms and missiles and perform good deeds, giving up all laziness, propagating justice, gather around them artists and artisans.

    Foot Notes

    (मन्दसानः) कामयमानाः । मदि-स्तुति मोदमद स्वप्न-कान्ति गतिषु (भ्वा.) अत्र कान्त्यर्थः कान्तिः कामना। = Desiring the welfare of his subjects. (धीनाम् ) उत्तमानां कर्मणाम् । धीरिति कर्मनाम (NG 2, 1) = Of good deeds.

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