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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 44/ मन्त्र 21
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वृषा॑सि दि॒वो वृ॑ष॒भः पृ॑थि॒व्या वृषा॒ सिन्धू॑नां वृष॒भः स्तिया॑नाम्। वृष्णे॑ त॒ इन्दु॑र्वृषभ पीपाय स्वा॒दू रसो॑ मधु॒पेयो॒ वरा॑य ॥२१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृषा॑ । अ॒सि॒ । दि॒वः । वृ॒ष॒भः । पृ॒थि॒व्याः । वृषा॑ । सिन्धू॑नाम् । वृ॒ष॒भः । स्तिया॑नाम् । वृष्णे॑ । ते॒ । इन्दुः॑ । वृ॒ष॒भ॒ । पी॒पा॒य॒ । स्वा॒दुः । रसः॑ । म॒धु॒ऽपेयः॑ । वरा॑य ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषासि दिवो वृषभः पृथिव्या वृषा सिन्धूनां वृषभः स्तियानाम्। वृष्णे त इन्दुर्वृषभ पीपाय स्वादू रसो मधुपेयो वराय ॥२१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृषा। असि। दिवः। वृषभः। पृथिव्याः। वृषा। सिन्धूनाम्। वृषभः। स्तियानाम्। वृष्णे। ते। इन्दुः। वृषभ। पीपाय। स्वादुः। रसः। मधुऽपेयः। वराय ॥२१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 44; मन्त्र » 21
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स राजा कीदृशः स्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    हे वृषभेन्द्र ! यतस्त्वं दिवो वृषभः पृथिव्या वृषा सिन्धूनां वृषा स्तियानां वृषभोऽसि ते वराय वृष्णे पीपाय स्वादुरिन्दू रसो मधुपेयो रसोऽस्तु ॥२१॥

    पदार्थः

    (वृषा) बलिष्ठः (असि) (दिवः) सूर्य्यस्य (वृषभः) बलिष्ठः श्रेष्ठश्च (पृथिव्याः) भूमेः (वृषा) वर्षकः (सिन्धूनाम्) नदीनां समुद्राणां वा (वृषभः) अत्यन्तं कर्ता (स्तियानाम्) संहतानां स्थावरजङ्गमानां प्राण्यप्राणिनाम् (वृष्णे) सुखवर्षकाय (ते) तुभ्यम् (इन्दुः) सोमः (वृषभ) शत्रुशक्तिबन्धक (पीपाय) पानाय (स्वादुः) स्वादुयुक्तः (रसः) (मधुपेयः) मधुना सह पातुं योग्यः (वराय) उत्तमाय ॥२१॥

    भावार्थः

    हे राजन् ! यदि त्वं विद्युद्भूमिनदीसमुद्रान्तरिक्षस्थावरजङ्गमानां पदार्थानां विद्योपयोगौ विजानीयास्तर्हि त्वां महानानन्दः प्राप्नुयात् ॥२१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह राजा कैसा होवे, इस विषय का कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वृषभ) शत्रुओं के सामर्थ्य के प्रतिबन्धक, ऐश्वर्य्य से युक्त ! जिससे आप (दिवः) सूर्य्य के (वृषभः) बलिष्ठ और श्रेष्ठ (पृथिव्याः) भूमि से (वृषा) वर्षानेवाले और (सिन्धूनाम्) नदियों वा समुद्रों के (वृषा) वर्षानेवाले और (स्तियानाम्) मिले हुए नहीं चलने और चलनेवाले प्राणी और अप्राणियों के (वृषभः) अत्यन्त करनेवाले (असि) हैं (ते) आप (वराय) उत्तम (वृष्णे) सुख के वर्षानेवाले के लिये (पीपाय) पान को (स्वादुः) स्वादु से युक्त (इन्दुः) सोमलता का (रसः) रस (मधुपेयः) सहत के साथ पीने योग्य हो ॥२१॥

    भावार्थ

    हे राजन् ! जो आप बिजुली, भूमि, नदी, समुद्र, अन्तरिक्ष, स्थावर और जङ्गम पदार्थों की विद्या और उपयोग को जानिये तो आपको बड़ा आनन्द प्राप्त होवे ॥२१॥

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    विषय

    संगठनकारी राजा ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! तू (दिवः वृपा असि) प्रकाश के वर्षाने वाले सूर्य के समान तेजस्वी है। तू ( पृथिव्याः वृषभः ) पृथिवी का सर्वश्रेष्ठ पुरुष है । तू ( सिन्धूनां वृषा ) मेघवत् जलों का सेचन करने हारा है । तू ( स्तियानां वृषभः असि ) संघ बना कर रहने वाली सेनाओं और प्रजाओं में सर्वश्रेष्ठ है । हे ( वृषभ ) सुखों की प्रजा पर मेघवत् वर्षा करने हारे ( वृष्णे ) बलवान् (वराय ) श्रेष्ठ, वरण करने योग्य पुरुष के पान करने के लिये यह ( इन्दुः ) ऐश्वर्य युक्त ( स्वादु:) आनन्ददायक ( मधुपेयः रसः ) मधुर, शहद आदि के साथ मिलाकर खाने योग्य रस, वर को मधुपर्क आदि के तुल्य ही आदरार्थ ( ते पीपाय ) तुझे प्राप्त हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः – १, ३, ४ निचृदनुष्टुप् । २, ५ स्वराडुष्णिक् । ६ आसुरी पंक्ति: । ७ भुरिक् पंक्तिः । ८ निचृत्पंक्तिः । ९, १२, १६ पंक्तिः । १०, ११, १३, २२ विराट् त्रिष्टुप् । १४, १५, १७, १८, २०, २४ निचृत्त्रिष्टुप् । १९, २१, २३ त्रिष्टुप् ।। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम् ।।

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    विषय

    'स्वादुः रसः मधुपेयः ' सोमः

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! तू (दिवः वृषा असि) = मस्तिष्क रूप द्युलोक का शक्ति से सेचन करनेवाला है । (पृथिव्याः वृषभः) = इस शरीर रूप पृथिवी का भी शक्ति से सेचन करनेवाला है । (सिन्धूनाम्) = ज्ञाननदी के प्रवाहों का तू अपने में सेचन करनेवाला है और इसी दृष्टिकोण से (स्तियानाम्) = [स्तिया आपो भवन्ति सत्यानात् नि० ६ । १७] तू रेतः कणरूप जलों का [आपः रेतो भूत्वा] (वृषभः) = अपने में सेचन करनेवाला है। ये रेतःव : कण ही शरीर में सिक्त होकर ज्ञानानि का ईंधन बनते हैं। ज्ञानाग्नि के दीप्त होने पर ही ज्ञाननदियों का प्रवाह चला करता है। [अनेरापः] । [२] हे (वृषभ:) = अपने में शक्ति का सेचन करनेवाले (वराय) = श्रेष्ठ व (वृष्णे) = शक्तिशाली ते तेरे लिये ही यह (इन्दुः) = सोम (पीपाय) = आप्यायित होता है, बढ़ता है। यह सोम (स्वादुः) तेरे जीवन को मधुर बनाता है। रसः जीवन को रसमय करता है। अतएव (मधुपेयः) = मधुवत् पातव्य होता है। यह सोम सब भोजनों का सारभूत है, अतएव ग्राह्यतम है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण के द्वारा मनुष्य मस्तिष्क को व शरीर को शक्ति सिक्त करता है। इस सोमरक्षण से वह अपने में ज्ञाननदियों को प्रवाहित करता है। यह सोम जीवन को मधुर व रसमय बनाता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा ! जर तू विद्युत, भूमी, नदी, समुद्र, अंतरिक्ष, स्थावर व जंगम पदार्थांची विद्या व उपयोग जाणलास तर तुला खूप आनंद मिळेल. ॥ २१ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    You are the showerer of the light of heaven. You are the inspirer of the life of earth. You are the showerer of the waters of rivers and the seas. You are the life breath of things moving and non-moving all together. This is the homage, honey drink, bright, delicious, the very nectar of life for the lord ruler.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should a king be-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O mightiest king! subduer of the strength of the enemies, you are mighty like the rays of the sun, mighty on the face of the earth, showerer of happiness like the water of the rivers or oceans, knower of the attributes of animates and inanimate things. Let this Soma juice mixed with honey, which is very delicious, be for your drinking, as you are the best.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king! if you know the science and utility of electricity, earth, river, oceans, firmament and all animate beings and inanimate things, you can attain great joy and bliss.

    Foot Notes

    (सिभ्धूनाम्) नदीनां समुद्राणां वा। सिन्ध्वा इति नदीनाम (NG 1,13)। = of Rivers or oceans.(स्तियानाम् ) संहतानां स्थावर अङ्गमानां प्राण्यप्राणिनाम्। स्त्यै-शब्दसङ्गतयो: (भ्वा०) अत्र संङ्गातार्थः। = of all animate beings and inanimate things put together.

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