ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 44/ मन्त्र 16
इ॒दं त्यत्पात्र॑मिन्द्र॒पान॒मिन्द्र॑स्य प्रि॒यम॒मृत॑मपायि। मत्स॒द्यथा॑ सौमन॒साय॑ दे॒वं व्य१॒॑स्मद्द्वेषो॑ यु॒यव॒द्व्यंहः॑ ॥१६॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । त्यत् । पात्र॑म् । इ॒न्द्र॒ऽपान॑म् । इन्द्र॑स्य । प्रि॒यम् । अ॒मृत॑म् । अ॒पा॒यि॒ । मत्स॑त् । यथा॑ । सौ॒म॒न॒साय॑ । दे॒वम् । वि । अ॒स्मत् । द्वेषः॑ । यु॒यव॑त् । वि । अंहः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं त्यत्पात्रमिन्द्रपानमिन्द्रस्य प्रियममृतमपायि। मत्सद्यथा सौमनसाय देवं व्य१स्मद्द्वेषो युयवद्व्यंहः ॥१६॥
स्वर रहित पद पाठइदम्। त्यत्। पात्रम्। इन्द्रऽपानम्। इन्द्रस्य। प्रियम्। अमृतम्। अपायि। मत्सत्। यथा। सौमनसाय। देवम्। वि। अस्मत्। द्वेषः। युयवत्। वि। अंहः ॥१६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 44; मन्त्र » 16
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वँस्त्वं सौमनसाय कश्चिद्यथेदं त्यदिन्द्रपानमिन्द्रस्य प्रियममृतं पात्रमपायि येन मत्सद्देवमपाय्यस्मद्द्वेषो वि युयवदस्मदंहो वि युयवत्तथाऽऽचर ॥१६॥
पदार्थः
(इदम्) (त्यत्) तत् (पात्रम्) पिबति पाति वा येन (इन्द्रपानम्) इन्द्रस्यौषधिरसस्यैश्वर्यस्य वा पानं रक्षणं वा (इन्द्रस्य) इन्द्रियस्वामिनो जीवस्य (प्रियम्) प्रीतिकरम् (अमृतम्) सुस्वादिष्ठम् (अपायि) पिबति (मत्सत्) आनन्दति (यथा) (सौमनसाय) सुमनसो भवाय (देवम्) दिव्यगुणकर्म (वि) (अस्मत्) (द्वेषः) द्वेषादियुक्तं कर्म शत्रुं वा (युयवत्) वियोजयति (वि) (अंहः) पापाचरणम् ॥१६॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! येन मनसि प्रमादो द्वेषश्च न स्यात्तदेव पातव्यम्। यथा स्वात्मानं सर्वे रक्षन्ति तथैवाऽन्यान्त्सर्वान् रक्षन्तु ॥१६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वन् ! आप (सौमनसाय) अच्छे मन के होने के लिये (यथा) जैसे (इदम्) इस (त्यत्) उस (इन्द्रपानम्) ओषधियों के रस वा ऐश्वर्य्य के पान वा रक्षण को (इन्द्रस्य) इन्द्रियों के स्वामी जीव के (प्रियम्) प्रीतिकारक (अमृतम्) अच्छे प्रकार स्वादिष्ठ (पात्रम्) जिससे पान करता वा रक्षा करता है उसको (अपायि) पीता है और जिससे (मत्सत्) आनन्दित होता है तथा (देवम्) श्रेष्ठगुणकर्मयुक्त वस्तु का पान करता है और (अस्मत्) हम लोगों से (द्वेषः) द्वेष आदि से युक्त कर्म्म वा शत्रु को (वि, युयवत्) वियुक्त करता है और हम लोगों से (अंहः) पापाचरण को (वि) पृथक् करता है, वैसा आचरण करो ॥१६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जिससे मन में प्रमाद और द्वेष न होवे, उसी का पान करना चाहिये और जैसे अपने आत्मा की सब रक्षा करते हैं, वैसे अन्य सबों की रक्षा करें ॥१६॥
विषय
राजा से प्रभु की तुलना ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( इन्द्रस्य ) इन्द्रियों के स्वामी जीव का ( इदं ) यह शरीर ही ( प्रियम् ) प्रिय ( इन्द्र-पानं पात्रम् ) जीव और जीव को प्राप्त इन्द्रियादि भोगों के उपभोग का साधन है । इससे ही वह साधना करके ( अमृतम् अपायि ) अमृत मोक्ष रस का भी पान करता है और वह ( देवं प्रति सौमनसाय मत्सत् ) प्रभु परमेश्वर के प्रति शुभ चित्त रहने के लिये ही चाहता है उसी प्रकार (इन्द्रस्य ) ऐश्वर्य के स्वामी राजा का ( इदं त्यत् ) यह भी एक अद्भुत उत्तम ( इन्द्र-पानम् ) ऐश्वर्यपद की रक्षा करने वाला ( पात्रं ) पालक साधन है जिससे ( प्रियम् ) प्रीतिकारक ( अमृतम् ) अमृत तुल्य सुख (अपायि) प्राप्त किया जाता है । वह प्रजाजन ( देवं ) उस तेजस्वी पुरुष को (सौमनसाय) शुभ चित्त बनाये रखने के लिये ( मत्सत् ) सदा आनन्दित किया करे । वह राजा भी ( अस्मत् ) हम प्रजाजन से (द्वेषः ) द्वेष भाव को ( वि युयवत् ) पृथक् करे और वह हम से ( अंहः वि ) पाप को भी दूर करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः – १, ३, ४ निचृदनुष्टुप् । २, ५ स्वराडुष्णिक् । ६ आसुरी पंक्ति: । ७ भुरिक् पंक्तिः । ८ निचृत्पंक्तिः । ९, १२, १६ पंक्तिः । १०, ११, १३, २२ विराट् त्रिष्टुप् । १४, १५, १७, १८, २०, २४ निचृत्त्रिष्टुप् । १९, २१, २३ त्रिष्टुप् ।। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
सोमरक्षण से 'अमृतत्त्व-सौमनस्य-निर्देषता व निष्पापता' की प्राप्ति
पदार्थ
[१] (इदम्) = यह (त्यत्) = वह प्रसिद्ध (पात्रम्) = रक्षण का साधनभूत (इन्द्रपानम्) = से रक्षित (इन्द्रस्य प्रियम्) = जितेन्द्रिय पुरुष की प्रीति को उत्पन्न करनेवाला (अमृतम्) = रोगों से ऊपर उठानेवाले [न मृतं यस्मात्] यह सोम (अपायि) = पीया जाता है, शरीर में ही सुरक्षित किया जाता है। [२] इसलिए यह सोम (देवम्) = इस देववृत्तिवाले पुरुष को (सौमनसाय) = सुमनरूप के लिये (मत्सत्) = आनन्दित करता है यह सोम सुरक्षित हुआ हुआ (अस्यत्) = हमारे से (द्वेष:) = द्वेष के भाव को (वियुयवत्) = विशेष रूप को (अंहः) = पाप को (वि) [युयवत्] = पृथक् करे ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से 'अमृतत्व-सौमनस्य-निर्देषता व निष्पापता' प्राप्त होती है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! ज्या पदार्थामुळे मनात प्रमाद व द्वेष उत्पन्न होता कामा नये त्याचेच प्राशन केले पाहिजे व जसे आपल्या आत्म्याचे सर्वजण रक्षण करतात तसे इतरांचेही केले पाहिजे. ॥ १६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
This is that life-giving cup of Indra’s nectar drink, his favourite, from which he drinks the dear delicious elixir of life so that he feels happy at heart and inspires the divine force of cosmic energy to ward off hate and enmity from us and cast away all sin and evil, and thereby save and strengthen the immortal soul.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O highly learned person! you should act like a man who for the sake of cheerfulness, drinks with a cup very delicious hector like, divine invigorating drugs which is dear to the soul-the master of the body and protects wealth and enjoys happiness thereby, separates us from all sins and keeps far away from all malice or a malicious enemy.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! you should drink only such things, which do not cause sloth in mind and body and ill-will. As all protect them- selves, so they should protect others also.
Foot Notes
(इन्द्रपानम्) इन्द्रस्योषधिरसस्यैश्वर्यस्य वा पानं रक्षण वा। = Drinking the juice of the invigorating herbs or the protection of wealth. (अमृतम्) सुस्वदिष्ठम् । = Very Delicious. (युयवत् ) वियोजयति । = Separates, keep far away from.
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