Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 44 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 44/ मन्त्र 20
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ ते॑ वृष॒न्वृष॑णो॒ द्रोण॑मस्थुर्घृत॒प्रुषो॒ नोर्मयो॒ मद॑न्तः। इन्द्र॒ प्र तुभ्यं॒ वृष॑भिः सु॒तानां॒ वृष्णे॑ भरन्ति वृष॒भाय॒ सोम॑म् ॥२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । ते॒ । वृ॒ष॒न् । वृष॑णः । द्रोण॑म् । अ॒स्थुः॒ । घृ॒त॒ऽप्रुषः॑ । न । ऊ॒र्मयः॑ । मद॑न्तः । इन्द्र॑ । प्र । तुभ्य॑म् । वृष॑ऽभिः । सु॒ताना॑म् । वृष्णे॑ । भ॒र॒न्ति॒ । वृ॒ष॒भाय॑ । सोम॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ ते वृषन्वृषणो द्रोणमस्थुर्घृतप्रुषो नोर्मयो मदन्तः। इन्द्र प्र तुभ्यं वृषभिः सुतानां वृष्णे भरन्ति वृषभाय सोमम् ॥२०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। ते। वृषन्। वृषणः। द्रोणम्। अस्थुः। घृतऽप्रुषः। न। ऊर्मयः। मदन्तः। इन्द्र। प्र। तुभ्यम्। वृषऽभिः। सुतानाम्। वृष्णे। भरन्ति। वृषभाय। सोमम् ॥२०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 44; मन्त्र » 20
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे वृषन्निन्द्र ! ये ते वृषणो घृतप्रुष ऊर्मयो न त्वां मदन्तो वृषभिः सुतानां सोमं वृष्णे वृषभाय तुभ्यं प्रभरन्ति द्रोणमास्थुस्तांस्त्वं प्रीणीहि ॥२०॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (ते) तव (वृषन्) बलयुक्त (वृषणः) बलिष्ठ (द्रोणम्) द्रवन्ति येन विमानादियानेन तत् (अस्थुः) आतिष्ठन्ति (घृतप्रुषः) ये घृतमुदकं प्रोषयन्ति पूरयन्ति ते (न) इव (ऊर्मयः) समुद्रादिजलतरङ्गाः (मदन्तः) आनन्दन्तः (इन्द्र) सकलैश्वर्यसम्पन्न (प्र) (तुभ्यम्) (वृषभिः) बलिष्ठैर्वैद्यैः (सुतानाम्) निष्पादितानाम् (वृष्णे) बलाय (भरन्ति) (वृषभाय) बलमिच्छुकाय (सोमम्) महौषधिरसम् ॥२०॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। हे राजन् ! ये सत्यभावेन तव राज्यस्य हितं चिकीर्षन्ति तांस्त्वं सुखिनो रक्षेर्यथा वायुना जलतरङ्गा उल्लसन्ति तथैव सत्सङ्गेन बुद्धयः समुल्लसन्तीति विद्धि ॥२०॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वृषन्) बल से युक्त (इन्द्र) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्यों से सम्पन्न ! जो (ते) आपके (वृषणः) बलिष्ठ (घृतप्रुषः) जल को पूर्ण करनेवाले (ऊर्मयः) समुद्र आदि के जल के तरंग (न) जैसे वैसे आपको (मदन्तः) आनन्द देते हुए (वृषभिः) बलिष्ठ वैद्यों से (सुतानाम्) उत्पन्न किये हुए (सोमम्) बड़ी ओषधियों के रस को (वृष्णे) बल के और (वृषभाय) बल की इच्छा करनेवाले (तुभ्यम्) आपके लिये (प्र, भरन्ति) अच्छे प्रकार धारण करते हैं तथा (द्रोणम्) जाते हैं जिस विमान आदि वाहन से उस पर (आ) सब प्रकार से (अस्थुः) स्थित होते हैं, उनको आप प्रसन्न करिये ॥२०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे राजन् ! जो सत्यभाव से आपके राज्य के हित करने की इच्छा करते हैं, उनको आप सुखी रखिये और जैसे वायु से जल के तरङ्ग हैं, वैसे ही सत्संग से बुद्धियाँ बढ़ती हैं, ऐसा जानो ॥२०॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वीरों के कर्त्तव्य । नायक का वरण ।

    भावार्थ

    हे ( वृषन् ) बलवन् ! (घृतप्रुषः ऊर्मयः न ) जल वर्षाने वाले जल तरंगों के समान ( मदन्तः ) अति हर्षित, उत्साहवान्, (वृषण:) मेघों के समान शस्त्रवर्षी, बलवान् (ते ) तेरे वीर जन ( द्रोणम् ) रथ और राष्ट्र पर ( आ अस्थुः ) विराजें । और वे ( वृषभिः) बलयुक्त सैन्यों से ( सुतानां ) उत्पन्न किये ऐश्वर्यों में से हे ( इन्द्र ) शत्रुहन्तः ! ( तुभ्यं ) तुझ ( वृषभाय ) सर्वश्रेष्ठ (वृष्णे ) सुखों के दाता के लिये ( सोमम् प्र भरन्ति ) उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त करावें । इत्येकोनविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः – १, ३, ४ निचृदनुष्टुप् । २, ५ स्वराडुष्णिक् । ६ आसुरी पंक्ति: । ७ भुरिक् पंक्तिः । ८ निचृत्पंक्तिः । ९, १२, १६ पंक्तिः । १०, ११, १३, २२ विराट् त्रिष्टुप् । १४, १५, १७, १८, २०, २४ निचृत्त्रिष्टुप् । १९, २१, २३ त्रिष्टुप् ।। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम् ।।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    घृतप्रुषो नोर्मयो मदन्तः

    पदार्थ

    [१] हे (वृषन्) = अपने में शक्ति का सेचन करनेवाले उपासक ! (ते वृषण:) = तेरे ये शक्तिशाली इन्द्रियाश्व (घृतप्रुषः ऊर्मयः न) = जल का सेचन करनेवाली समुद्र-तरंगों के समान (मदन्तः) = उल्लासमय होते हुए, कार्यों में नाचते हुए (द्रोणम्) = इस गतिशील शरीर रथ में (आ अस्थुः) = समन्तात् स्थित हों। शरीर रथ में जुते हुए ये इन्द्रियाश्व जीवनयात्रा में तुझे आगे और आगे ले जानेवाले हों। [२] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (वृषभिः) = शक्तिशाली इन्द्रियाश्वों द्वारा (सुतानाम्) = उत्पन्न किये गये सोम कणों के (वृष्णे) = अपने में सेचन करनेवाले (वृषभाय) = शक्तिशाली श्रेष्ठ जीवनवाले (तुभ्यम्) = तेरे लिए सोम को सब देव प्रभरन्ति प्राप्त कराते हैं। इस सोम के रक्षण से ही तेरा जीवन सुन्दर हो पायेगा।

    भावार्थ

    भावार्थ– उल्लासमय इन्द्रियाश्व शरीर रथ में जुते रहें, अर्थात् इन्द्रियाँ निज कार्य में लगी रहें, तो ये इन्द्रियाँ सोम का शरीर में सेचन करती हैं और हमें शक्तिशाली व श्रेष्ठजन बनाती हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे राजा ! जे खरोखर तुझ्या राज्याचे हित करण्याची इच्छा बाळगतात त्यांना तू सुखी कर व जसे वायूमुळे जलात तरंग असतात तशी सत्संगाने बुद्धी वाढते हे जाण. ॥ २० ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of power and glory, delightful showers of soma, exuberant and exhilarating like dancing waves of the sea, come and fill your cup of nectar and sprinkle your altar of yajna with ghrta. Thus do the leading lights of nature and humanity bear and bring the soma of life’s light and joy distilled by brave and generous leaders of the yajnic order for the mighty and magnanimous lord ruler of the world.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top