Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 44 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 44/ मन्त्र 5
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराडुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    यं व॒र्धय॒न्तीद्गिरः॒ पतिं॑ तु॒रस्य॒ राध॑सः। तमिन्न्व॑स्य॒ रोद॑सी दे॒वी शुष्मं॑ सपर्यतः ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । व॒र्धय॑न्ति । इत् । गिरः॑ । पति॑म् । तु॒रस्य॑ । राध॑सः । तम् । इत् । नु । अ॒स्य॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । दे॒वी इति॑ । शुष्म॑म् । स॒प॒र्य॒तः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं वर्धयन्तीद्गिरः पतिं तुरस्य राधसः। तमिन्न्वस्य रोदसी देवी शुष्मं सपर्यतः ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम्। वर्धयन्ति। इत्। गिरः। पतिम्। तुरस्य। राधसः। तम्। इत्। नु। अस्य। रोदसी इति। देवी इति। शुष्मम्। सपर्यतः ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 44; मन्त्र » 5
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं कर्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यं तुरस्य राधसः पतिमिन्द्रमिद् गिरो वर्धयन्त्यस्य देवी रोदसी शुष्मन्नु सपर्यतस्तमिद्यूयं वर्धयित्वा सेवध्वम् ॥५॥

    पदार्थः

    (यम्) (वर्धयन्ति) (इत्) एव (गिरः) सुशिक्षिता वाचः (पतिम्) स्वामिनम् (तुरस्य) दुःखहिंसकस्य (राधसः) धनस्य (तम्) (इत्) (नु) सद्यः (अस्य) (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (देवी) कमनीये देदीप्यमाने (शुष्मम्) बलम् (सपर्यतः) सेवेते ॥५॥

    भावार्थः

    ये मनुष्याः शुभगुणकर्मस्वभावे वर्धमानं जनं वर्धयन्ति ते पञ्चतत्त्वमयं राज्यं भुञ्जते ॥५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यम्) जिस (तुरस्य) दुःख के नाश करनेवाले (राधसः) धन के (पतिम्) स्वामी, ऐश्वर्य्य से युक्त को (इत्) ही (गिरः) उत्तम प्रकार शिक्षित वाणियाँ (वर्धयन्ति) बढ़ाती हैं और (अस्य) इसके (देवी) सुन्दर प्रकाशमान (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी (शुष्मम्) बल का (नु) शीघ्र (सपर्यतः) सेवन करते हैं (तम्, इत्) उसी की आप लोग वृद्धि करके सेवा करो ॥५॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य श्रेष्ठ गुण, कर्म्म और स्वभावों में वृद्धि को प्राप्त जन की वृद्धि करते हैं, वे पञ्चतत्त्वमय राज्य का भोग करते हैं ॥५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    उसके कर्त्तव्य

    भावार्थ

    ( यं ) जिसके ( तुरस्य ) शत्रुहिंसक सैन्य-बल और ( राधसः ) कार्यसाधक भृत्य वर्ग और ऐश्वर्य के ( पतिम् ) पालक पुरुष को ( गिरः ) स्तुति वाणियां वा उत्तम वाग्मी पुरुष (वर्धयन्ति ) बढ़ाते हैं ( रोदसी ) सूर्य और पृथिवी के समान राजा प्रजा जन, तथा स्त्री और पुरुष वर्ग दोनों ( तत् इत् शुष्मं नु ) उस ही शत्रुपोषक, बलशाली पुरुष की (सपर्यंतः ) सेवा करते हैं और ( अस्य इत् ) उसके ही (नु शुष्मं वर्धयन्ति) बल को नित्य बढ़ाया करते हैं । इति षोडशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः – १, ३, ४ निचृदनुष्टुप् । २, ५ स्वराडुष्णिक् । ६ आसुरी पंक्ति: । ७ भुरिक् पंक्तिः । ८ निचृत्पंक्तिः । ९, १२, १६ पंक्तिः । १०, ११, १३, २२ विराट् त्रिष्टुप् । १४, १५, १७, १८, २०, २४ निचृत्त्रिष्टुप् । १९, २१, २३ त्रिष्टुप् ।। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम् ।।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राधस्+शुष्म

    पदार्थ

    [१] (गिरः) = स्तुति-वाणियाँ तुरस्य शत्रुओं के हिंसक (राधसः) = ऐश्वर्य के (पतिम्) = स्वामी (यम्) = उस प्रभु को (इत्) = ही (वर्धयन्ति) = बढ़ाती हैं। प्रभु से दिया गया ऐश्वर्य हमें काम-क्रोध-लोभ का शिकार नहीं होने देता। [२] (नु) = अब (इत्) = निश्चय से (देवी रोदसी) = ये प्रकाशमय व दिव्यगुणोंवाले द्यावापृथिवी (अस्य) = इस प्रभु के (तं शुष्मम्) = उस शत्रु-शोषक बल का (सपर्यतः) = पूजन करते हैं। द्यावापृथिवी अर्थात् इन में रहनेवाले व्यक्ति आपकी उपासना से शत्रु-शोषक बल को प्राप्त करने के लिये यत्नशील होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु की उपासना से वह धन प्राप्त होता है जो हमें वासनाओं में नहीं फँसाता और यह उपासना हमें शत्रु-शोषक बल प्राप्त कराती है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे श्रेष्ठ गुण, कर्म, स्वभावाच्या माणसांना वर्धित करतात ती पंचतत्त्वमय राज्याचा भोग करतात. ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra whom universal voices of the world exalt and celebrate in adoration, is the ruler and protector of all the effective achievers of the world of nature and humanity. Him, in truth, the brilliant heaven and the green earth both serve under his power and law. To him our homage is always due.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do-is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! well-trained and refined speeches increase or sing the glory of that lord of the wealth that removes all miseries. Both heaven and earth which are charming and desirable serve his might. You should also increase his power and serve him.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons, who support Aman, who is advanced in good virtues, noble deeds and fine temperament, enjoy kingdom composed of five elements in due proportion.

    Foot Notes

    (तुरस्य) दुःखहिंसकस्य । तूरी-गतित्वरणाहिसन्यीः । (दि) अत्र हिन्सार्थक:। = Of the destroyer or remover of miseries. (सपर्यंतः) सेवेते । सपर-पूजायाम् (कण्डवादिः) अत्र-पूजनं सेवा । = Serve.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top