ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 34/ मन्त्र 10
ऋषिः - नीपातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
आ या॑ह्य॒र्य आ परि॒ स्वाहा॒ सोम॑स्य पी॒तये॑ । दि॒वो अ॒मुष्य॒ शास॑तो॒ दिवं॑ य॒य दि॑वावसो ॥
स्वर सहित पद पाठआ । या॒हि॒ । अ॒र्यः । आ । परि॑ । स्वाहा॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ । दि॒वः । अ॒मुष्य॑ । शास॑तः । दिव॑म् । य॒य । दि॒वा॒व॒सो॒ इति॑ दिवाऽवसो ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ याह्यर्य आ परि स्वाहा सोमस्य पीतये । दिवो अमुष्य शासतो दिवं यय दिवावसो ॥
स्वर रहित पद पाठआ । याहि । अर्यः । आ । परि । स्वाहा । सोमस्य । पीतये । दिवः । अमुष्य । शासतः । दिवम् । यय । दिवावसो इति दिवाऽवसो ॥ ८.३४.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 34; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord ruler of the world, come to us to join the soma celebration of this social order offered with sincerity of thought and word in action, and from the light and joy of this world of rule and order, O lover of light and peace, rise to the light and peace of heaven.
मराठी (1)
भावार्थ
सामर्थ्यवान विद्वानाने पदार्थांबाबत ज्ञान-विज्ञानाचे आदान-प्रदान करून अंत:करणपूर्वक प्रयत्न करावा. त्यामुळे साधक बलार्थी दिव्यतेकडे अग्रेसर होतो. ॥१०॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
[बलार्थी साधक उपदेष्टा से प्रार्थना करे कि] हे (अर्य) प्रगतिशील, विद्वान्! (स्वाहा) सत्य वचन, सत्य क्रिया व सत्य पुरुषार्थ से (परि सोमपीतये) निष्पन्न पदार्थों के सबन्ध में ज्ञान का सब ओर से सम्यक् रूप से आदान-प्रदान करने के व्यवहार हेतु (आ) आइये। शेष पूर्ववत्॥१०॥
भावार्थ
समर्थ विद्वान् पदार्थों के सम्बन्ध में ज्ञानविज्ञान के आदान-प्रदान पर सच्चे हृदय से प्रयास करे। इस प्रकार साधक बलार्थी दिव्यता की दिशा में आगे बढ़ता है॥१०॥
विषय
उनके कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( अर्य ) स्वामिन् ! तू ( सोमस्य पीतये ) ऐश्वर्य को पालन करने के लिये (आयाहि) आ, और ( स्वाहा ) उत्तम वाणी, और उत्तम दान से तू ( सोमस्य परि आयाहि ) सोम, ऐश्वर्य, शासन, राष्ट्र, अन्न और जीवन गण के रक्षार्थ आ। ( २ ) हे विद्वन् तू ( सोमस्य ) शिष्यगण के रक्षार्थ आ। ( ३ ) हे ( अर्य ) इन्द्रियों के स्वामिन् ! तू ( सोमस्य ) वीर्य के रक्षार्थ उत्तम वाणी और क्रिया साधन से आगे बढ़। और (अमुष्य दिवं शासतः दिवः यय) उस ज्ञान के उपदेष्टा ज्ञानी गुरु के ज्ञानों को प्राप्त कर। इति द्वादशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नीपातिथि: काण्वः। १६—१८ सहस्रं वसुरोचिषोऽङ्गिरस ऋषयः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ८, १०, १२, १३, १५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ६, ७, १ अनुष्टुप्। ५, ११, १४ विराडनुष्टुप्। १६, १८ निचृद्गायत्री । १७ विराङ् गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
प्रभु गुणगान व सोमरक्षण
पदार्थ
[१] हे (अर्य) = अपने मन का स्वामित्व करनेवाले जीव ! तू (परि) = चारों ओर से, चारों ओर से चित्तवृत्ति को हटाकर (आयाहि) = प्रभु के समीप प्राप्त होनेवाला हो। (स्वाहा) = तू आत्मत्याग करनेवाला बन [ स्व + हा] अथवा [सु आह] उत्तमता से प्रभु के गुणों का उच्चारण कर। जिससे (सोमस्य पीतये) = तू सोम के रक्षण के लिये समर्थ हो। यह प्रभु गुणगान तुझे विषयों से व्यावृत्त करके सोमरक्षण में समर्थ करेगा। [२] हे ज्ञानधन जीव ! तू उस शासक प्रकाशमय प्रभु के ज्ञानधन को प्राप्त करनेवाला बन।
भावार्थ
भावार्थ- हम जितेन्द्रिय बनकर प्रभु की ओर चलें। प्रभु गुणगान करते हुए सोम का रक्षण करनेवाले बनें। ज्ञानधन को प्राप्त करें।
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