ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 34/ मन्त्र 2
ऋषिः - नीपातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
आ त्वा॒ ग्रावा॒ वद॑न्नि॒ह सो॒मी घोषे॑ण यच्छतु । दि॒वो अ॒मुष्य॒ शास॑तो॒ दिवं॑ य॒य दि॑वावसो ॥
स्वर सहित पद पाठआ । त्वा॒ । ग्रावा॑ । वद॑न् । इ॒ह । सो॒मी । घोषे॑ण । य॒च्छ॒तु॒ । दि॒वः । अ॒मुष्य॑ । शास॑तः । दिव॑म् । य॒य । दि॒वा॒व॒सो॒ इति॑ दिवाऽवसो ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा ग्रावा वदन्निह सोमी घोषेण यच्छतु । दिवो अमुष्य शासतो दिवं यय दिवावसो ॥
स्वर रहित पद पाठआ । त्वा । ग्रावा । वदन् । इह । सोमी । घोषेण । यच्छतु । दिवः । अमुष्य । शासतः । दिवम् । यय । दिवावसो इति दिवाऽवसो ॥ ८.३४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 34; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
The maker of soma, creator of the joy of a new life, would welcome you here with a loud proclamation and exalt you with the voice of thunder, and from the light and power of the sage’s revelation, O lover of light, go and rise to your own essential heaven of freedom.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रशंसक विद्वानाने केवळ आपल्या वाणीने उपदेश करू नये तर उद्घोषक वादनाच्या साह्याने ही श्रोत्यांच्या मनात आपले कथन योग्य प्रकारे बिंबवावे ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(त्वा) तुझ ऐश्वर्यार्थी को (ग्रावा) पदार्थों का स्तोता या उपदेष्टा (सोमी) स्वयं प्रशस्त पदार्थों को जान उनसे लाभान्वित विद्वान् (आ वदन्) तुझे बताते हुए (घोषेण) शौर्य व उत्साहप्रद चित्र-विचित्र वाद्य ध्वनि द्वारा (यच्छतु) तेरे अन्त:करण में धारण कराएं। (अमुष्य" आदि पूर्ववत्)॥२॥
भावार्थ
विद्वान् स्तोता न केवल स्व वाणी से उपदेश ही करे, अपितु उद्घोषक वादित्रों की मदद से श्रोता के मन में अपना कथन भी भलीभाँति बसा दे॥२॥
विषय
उनके कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे विद्याभिलाषिन् ! (इह) इस आश्रम में (सोमी) ज्ञानवान् शिष्यों का स्वामी (ग्रावा) उत्तम उपदेष्टा विद्वान् (त्वा) तेरे प्रति ( वदन्) व्यक्त वाणी से उपदेश करता हुआ ( घोषेण ) वेद द्वारा ( दिवः ) परम तेजोमय ( शासतः ) परम शासक और शास्ता ( अमुष्य ) उस प्रभु के ( दिवं यच्छतु ) प्रकाशमय तेज को प्रदान करे। हे ( दिवावसो ) विद्या की कामना से गुरु के अधीन बसने हारे विद्यार्थिन् ! तू भी उसके ( दिवं यय ) ज्ञान को प्राप्त कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नीपातिथि: काण्वः। १६—१८ सहस्रं वसुरोचिषोऽङ्गिरस ऋषयः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ८, १०, १२, १३, १५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ६, ७, १ अनुष्टुप्। ५, ११, १४ विराडनुष्टुप्। १६, १८ निचृद्गायत्री । १७ विराङ् गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
आचार्य द्वारा ज्ञानदान
पदार्थ
[१] (इह) = इस ब्रह्मचर्याश्रम में (ग्रावा) = उपदेष्टा गुह (सोमी) = स्वयं सोम का रक्षण करनेवाला होता हुआ (त्वा वदन्) = तुझे पुकारता हुआ [उपास्मान् वाचस्पतिह्वयताम् अथर्व ० १।१।४] (घोषेण) = इन वेद-मन्त्रों के उच्चारण के द्वारा (आयच्छतु) = सब विषयों में [समन्तात्] ज्ञान देनेवाला हो । आचार्य उच्चारण कर उसके बाद तू भी उसी प्रकार उच्चारण करता हुआ ज्ञान को प्राप्त कर । [२] हे (दिवानसो) = ज्ञानधन ! तू (अमुष्य) = उस (शासतः) = शासक प्रभु के (दिवम्) = ज्ञान को (यय) = प्राप्त कर ।
भावार्थ
भावार्थ-आचार्य हमें अपने समीप बुलाये और स्वयं वेद घोष करता हुआ हमारे लिये वेदज्ञान को दे।
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