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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 34/ मन्त्र 5
    ऋषिः - नीपातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    दधा॑मि ते सु॒तानां॒ वृष्णे॒ न पू॑र्व॒पाय्य॑म् । दि॒वो अ॒मुष्य॒ शास॑तो॒ दिवं॑ य॒य दि॑वावसो ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दधा॑मि । ते॒ । सु॒ताना॑म् । वृष्णे॑ । न । पू॒र्व॒ऽपाय्य॑म् । दि॒वः । अ॒मुष्य॑ । शास॑तः । दिव॑म् । य॒य । दि॒वा॒व॒सो॒ इति॑ दिवाऽवसो ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दधामि ते सुतानां वृष्णे न पूर्वपाय्यम् । दिवो अमुष्य शासतो दिवं यय दिवावसो ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दधामि । ते । सुतानाम् । वृष्णे । न । पूर्वऽपाय्यम् । दिवः । अमुष्य । शासतः । दिवम् । यय । दिवावसो इति दिवाऽवसो ॥ ८.३४.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 34; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    As the sun vests vapours of rain in the cloud of showers, so do I vest in you the first, original and eternal knowledge, protected, protective and enjoyable, of the prime order distilled by sages from experience and vision. Then from the light of this knowledge of the sages of universal law and command, O lover of light, rise to the heaven of light on earth.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रशंसनीय विद्वान साधकाला पात्र समजून प्रथम त्यालाच आपण केलेली ईश्वराची स्तुती ऐकवितो व आशा करतो की, ही स्तुती ऐकून त्याने ती रोखून आपल्याजवळच ठेवू नये. रोधक, वृत्र, मेघ बनू नये, तर वर्षणशील, दुसऱ्यांना ज्ञान देणारा बनावे. ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    [बुद्धिमान स्तोता द्वारा साधक पुरुष से कहा जाता है कि] मैं (सुतानाम्) सुसंस्कृत गुणवर्णन की (पूर्वपाय्यम्) पूर्व मात्रा (वृष्णे न ते) जलवर्षक मेघ तुल्य दानशील तेरे अन्तःकरण में (दधामि) बसाता हूँ। शेष पूर्ववत्॥५॥

    भावार्थ

    विद्वान् स्तोता साधक को सुपात्र समझ पहले उसे ही अपने द्वारा की गई ईश्वरादि की स्तुति सुनाता है। साथ ही वह आशा भी रखता है कि इसे सुनकर वह इस को रोक अपने पास ही न रखे; रोधक, वृत्र, मेघ न बन दूसरों को ज्ञान दे॥५॥

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    विषय

    उनके कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( वृष्णे पूर्व पाय्यम् ) बलवान् पुरुष को जिस प्रकार पूर्व ही पालन करने का उचित आदर-भेंट दिया जाता है उसी प्रकार हे विद्वन् ! ( ते वृष्णे ) बरसते मेघवत् निष्पक्षपात होकर प्रचुर ज्ञान देने वाले तुझे मैं ( सुतानां ) अपने पुत्रों का ( पूर्व-पाय्यं ) पूर्ण पालन वा पूर्व आयु का पालन रक्षण का भार ( दधामि ) प्रदान करता हूं। ( दिवावसो ) सूर्यवत् तेजस्विन् ! वा विद्यार्थिन् ! तू (शासतः) उस शास्ता के ज्ञान को प्राप्त कर। वा हे विद्वन् ! तू उस परम प्रभु का ज्ञान विद्यार्थी को प्राप्त करा। इत्येकादशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नीपातिथि: काण्वः। १६—१८ सहस्रं वसुरोचिषोऽङ्गिरस ऋषयः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ८, १०, १२, १३, १५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ६, ७, १ अनुष्टुप्। ५, ११, १४ विराडनुष्टुप्। १६, १८ निचृद्गायत्री । १७ विराङ् गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    पूर्वपाय्यम्

    पदार्थ

    [१] हे जीव ! (वृष्णे ते) = शक्तिशाली तेरे लिये (पूर्वपाय्यं न) = सर्वमुख्य पेय वस्तु के समान (सुतानां दधामि) = इन उत्पन्न हुए हुए सोमों को धारण करता हूँ। इन सोमों के धारण से ही तू शक्तिशाली जीवनवाला बनता है। [२] हे ज्ञानधन ! तू उस प्रकाशमय शासक के प्रकाशधनको प्राप्त करनेवाला हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम सोम को शरीर में ही सुरक्षित करें। इसे सर्वमुख्य पेय वस्तु समझें, इसे शरीर में ही पीना है [imbibe करना है]।

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