ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 34/ मन्त्र 9
ऋषिः - नीपातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
आ त्वा॑ मद॒च्युता॒ हरी॑ श्ये॒नं प॒क्षेव॑ वक्षतः । दि॒वो अ॒मुष्य॒ शास॑तो॒ दिवं॑ य॒य दि॑वावसो ॥
स्वर सहित पद पाठआ । त्वा॒ । म॒द॒ऽच्युता॑ । हरी॒ इति॑ । श्ये॒नम् । प॒क्षाऽइ॑व । व॒क्ष॒तः॒ । दि॒वः । अ॒मुष्य॑ । शास॑तः । दिव॑म् । य॒य । दि॒वा॒व॒सो॒ इति॑ दिवाऽवसो ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा मदच्युता हरी श्येनं पक्षेव वक्षतः । दिवो अमुष्य शासतो दिवं यय दिवावसो ॥
स्वर रहित पद पाठआ । त्वा । मदऽच्युता । हरी इति । श्येनम् । पक्षाऽइव । वक्षतः । दिवः । अमुष्य । शासतः । दिवम् । यय । दिवावसो इति दिवाऽवसो ॥ ८.३४.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 34; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
And may the mighty transportive powers stronger than all obstructive forces of pride and arrogance, transport you here to us like the powerful wings of the eagle flying the king of birds to his destination, and may you, from the light and power of this world of rule and order, O lover of light and peace, rise to the light and peace of heaven.
मराठी (1)
भावार्थ
प्राणायामाद्वारे प्राणांवर आधिपत्य असल्यामुळे बलवान साधकाला बल मिळू शकते. ॥९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(त्वा) तू जो बलार्थी साधक है (मदच्युता) बलवान् अथवा शत्रु भावना के दर्प को हरने वाला है (हरी) शरीररूपी रथ के वाहक प्राण एवं अपान, (श्येनं पक्षा इव) अतिवेग से उड़ सकने वाले शक्तिशाली श्येन पक्षी को जैसे उसके पंख सहायता देते हैं वैसे [प्राण और अपान] तुझे बलशाली रखते हैं। शेष पूर्ववत्॥९॥
भावार्थ
प्राणायाम के द्वारा प्राणों पर नियन्त्रण करने से बलार्थी साधक को बल प्राप्त हो सकता है॥९॥
विषय
उनके कर्त्तव्य।
भावार्थ
( श्येनं पक्षा इव ) जिस प्रकार वाज नामक पक्षी को दोनों पांख बल पूर्वक वहन करते हैं और जिस प्रकार ( श्येनं ) श्येन व्यूह से गमन करने वाले वीर योद्धा को (पक्षा इव) आजू बाजू के दोनों सेना दल ( आ वक्षतः ) सब तरफ से धारण करते हैं उसी प्रकार ( त्वा श्येनं ) तुझ उत्तम आचार-चरित्र से सम्पन्न पुरुष को (मद-च्युता) उत्तम आनन्द देने वाले ( हरी ) स्त्री और पुरुष ( पक्षा इव वक्षतः ) ग्रहण, करने वा अपनाने वाले बन्धु जनों के तुल्य ( आवक्षतः ) आदर पूर्वक आगे बढ़ावें और (आवक्षतः) उत्तम वचनोपदेश किया करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नीपातिथि: काण्वः। १६—१८ सहस्रं वसुरोचिषोऽङ्गिरस ऋषयः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ८, १०, १२, १३, १५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ६, ७, १ अनुष्टुप्। ५, ११, १४ विराडनुष्टुप्। १६, १८ निचृद्गायत्री । १७ विराङ् गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
श्येनं पक्षा इव
पदार्थ
[१] हे जीव ! (त्वा) = तुझे (मदच्युता) = अभिमान का सर्वथा त्याग करनेवाले (हरी) = इन्द्रियाश्व इस प्रकार (आवक्षतः) = लक्ष्य-स्थान पर ले जाते हैं, (इव) = जैसे (श्येनम्) = बाज को (पक्षा) = पङ्ख लक्ष्य पर पहुँचाते हैं। हम ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों को ठीक से व्यापृत करते हुए ही प्रभुरूप लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। [११] हे ज्ञानधन ! तू उस शासक प्रकाशमय प्रभु के ज्ञानधन को प्राप्त कर ।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे इन्द्रियाश्व अभिमान से शून्य होते हुए स्वकार्य व्यापृति के द्वारा हमें प्रभु रूप लक्ष्य को प्राप्त करायें।
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