ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 34/ मन्त्र 7
ऋषिः - नीपातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
आ नो॑ याहि महेमते॒ सह॑स्रोते॒ शता॑मघ । दि॒वो अ॒मुष्य॒ शास॑तो॒ दिवं॑ य॒य दि॑वावसो ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । या॒हि॒ । म॒हे॒ऽम॒ते॒ । सह॑स्रऽऊते । शत॑ऽमघ । दि॒वः । अ॒मुष्य॑ । शास॑तः । दिव॑म् । य॒य । दि॒वा॒व॒सो॒ इति॑ दिवाऽवसो ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो याहि महेमते सहस्रोते शतामघ । दिवो अमुष्य शासतो दिवं यय दिवावसो ॥
स्वर रहित पद पाठआ । नः । याहि । महेऽमते । सहस्रऽऊते । शतऽमघ । दिवः । अमुष्य । शासतः । दिवम् । यय । दिवावसो इति दिवाऽवसो ॥ ८.३४.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 34; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Come to us Indra, lord wise and great, commander of a thousand forces of protection and progress, ruler of a hundredfold wealth and power of the world, and from the light of the ruling master of this world of knowledge and wisdom, O lover of the light of heaven, rise to the supreme light of existence.
मराठी (1)
भावार्थ
साधारण लोक श्रोता साधकाची प्रार्थना करतात की, स्वत: ज्ञानी बनून त्याने इतर साधारण लोकांना आपल्या उपदेशवृष्टीने लाभ पोचवावा. ॥७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (महेमते) ज्ञानवान् (सहस्रोते) अनेकानेक ज्ञानधाराओं वाले! (शतामघ) सैकड़ों प्रकार के ज्ञानबल आदि उत्तम धनों के इच्छुक! वीर्यसाधक इन्द्र! (नः) हमारे निकट (आ याहि) आ। शेष पूर्ववत्॥७॥
भावार्थ
सामान्य जन श्रोता साधक से अनुरोध करते हैं कि वह स्वयं ज्ञानी बनकर अन्यों को अपने उपदेश रूपी अमृत की वर्षा से लाभान्वित करे॥७॥
विषय
उनके कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (महे-मते) महामते ! पूजनीय ज्ञानवन् ! हे ( सहस्रोते ) बलवान् रक्षा सामर्थ्य वा सहस्रों रक्षणों से युक्त ! हे ( शतामघ ) सैकड़ों उत्तम धनों के स्वामिन् ! तू ( नः आ याहि ) हमें प्राप्त हो । और हे ( दिवावसो ) ज्ञान दीप्ति से सबको आच्छादित करने वाले ! विद्वन् ! वा ज्ञान कामना से विद्वान् के अधीन ब्रह्मचर्यपूर्वक रहने हारे ब्रह्मचारिन् ! तू ( अमुष्य दिवं शासतः ) उस ज्ञान के अनुशासन करने वाले ( दिवः ) ज्ञान-प्रकाशक गुरु के समीप ( यय ) प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नीपातिथि: काण्वः। १६—१८ सहस्रं वसुरोचिषोऽङ्गिरस ऋषयः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ८, १०, १२, १३, १५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ६, ७, १ अनुष्टुप्। ५, ११, १४ विराडनुष्टुप्। १६, १८ निचृद्गायत्री । १७ विराङ् गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
बुद्धि-रक्षण-धन
पदार्थ
[१] हे (महेमते) = महनीय बुद्धिवाले, (सहस्त्रोते) = हजारों रक्षणोंवाले, शतामघ अनन्त ऐश्वर्यौवाले प्रभो ! (नः आयाहि) = आप हमें प्राप्त होइये। आप ने ही हमें बुद्धि, रक्षण व धन प्राप्त कराना है। [२] हे ज्ञानधन ! तू उस प्रकाशमय शासक प्रभु के ज्ञानधन को प्राप्त कर ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमें बुद्धि देते हैं, रक्षण प्राप्त कराते हैं तथा सब आवश्यक धनों को देते हैं। हम प्रभु के प्रकाश को प्राप्त करें।
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