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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 34/ मन्त्र 12
    ऋषिः - नीपातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    सरू॑पै॒रा सु नो॑ गहि॒ सम्भृ॑तै॒: सम्भृ॑ताश्वः । दि॒वो अ॒मुष्य॒ शास॑तो॒ दिवं॑ य॒य दि॑वावसो ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सऽरू॑पैः । आ । सु । नः॒ । ग॒हि॒ । सम्ऽभृ॑तैः । सम्भृ॑तऽअश्वः । दि॒वः । अ॒मुष्य॑ । शास॑तः । दिव॑म् । य॒य । दि॒वा॒व॒सो॒ इति॑ दिवाऽवसो ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सरूपैरा सु नो गहि सम्भृतै: सम्भृताश्वः । दिवो अमुष्य शासतो दिवं यय दिवावसो ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सऽरूपैः । आ । सु । नः । गहि । सम्ऽभृतैः । सम्भृतऽअश्वः । दिवः । अमुष्य । शासतः । दिवम् । यय । दिवावसो इति दिवाऽवसो ॥ ८.३४.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 34; मन्त्र » 12
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Vested with the fullness of a dynamic personality with sensitive perceptions, conceptions and apprehensions, come to us with colleagues and companions of equal calibre and take over the reins of leadership, and from the light and wisdom of the earthly order, O lover of light and heaven, rise to the heavenly light of love and benediction.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    साधकाने एकट्याने नव्हे तर आपल्यासारख्याच सबल इंद्रिययुक्त सहकाऱ्यांसह विद्वानांचा आश्रय घ्यावा. ॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    [बलार्थी साधक के लिये विद्वान् कहते हैं कि] (सम्भृताश्वः) तू सम्पुष्ट इन्द्रियरूप अश्वों वाला (संभृतेः) परिपुष्ट व (सरूपैः) अपने समान रूपवान् साथियों सहित (नः) हमें (सु आ गहि) भली-भाँति ग्रहण कर। शेष पूर्ववत्॥१२॥

    भावार्थ

    साधक अकेले नहीं, अपितु अपने जैसे ही परिपुष्ट, इन्द्रियादि साधनों वाले साथियों सहित आकर विद्वानों का सहयोग ले॥१२॥

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    विषय

    उनके कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! तू ( सम्भृताश्वः ) अश्वोंवत् विषयों को उपभोग करने वाले इन्द्रिय गण को अच्छी प्रकार अपने वश करके ( संभृतैः ) उत्तम रूप से पुष्ट और ( सरूपैः ) समान रूप कान्ति से युक्त अंगों वा सहयोगियों सहित (नः सु गहि) हमें सुख से प्राप्त कर। ( दिवः अमुष्य० ) इत्यादि पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नीपातिथि: काण्वः। १६—१८ सहस्रं वसुरोचिषोऽङ्गिरस ऋषयः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ८, १०, १२, १३, १५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ६, ७, १ अनुष्टुप्। ५, ११, १४ विराडनुष्टुप्। १६, १८ निचृद्गायत्री । १७ विराङ् गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    सम्भृताश्व

    पदार्थ

    [१] प्रभु को हम प्राप्त तभी करेंगे यदि इन्द्रियाश्वों को ठीक रखेंगे। सो प्रभु कहते हैं कि (सम्भृताश्वः) = सम्यक् भृत-भरण किये गये इन्द्रियाश्वोंवाला तू (सम्मृतैः) = इन सम्यक् पोषित (सरूपैः) = रूप युक्त, अर्थात् तेजस्वी इन्द्रियाश्वों से (नः) = हमें (सु) = सम्यक् (आगहि) = प्राप्त हो । इन्द्रियों का (स) = रूप व सम्भृत बनाकर हम यात्रा को पूर्ण करें और प्रभु को प्राप्त हों। [२] हे ज्ञानधन जीव ! तू उस प्रकाशमय शासक के ज्ञानधन को प्राप्त कर ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम सम्भृताश्व बनें। इन्द्रियों का ठीक भरण करके प्रभु को प्राप्त हों। उस प्रकाशमय प्रभु से ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करें।

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