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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 34/ मन्त्र 15
    ऋषिः - नीपातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    आ न॑: सहस्र॒शो भ॑रा॒युता॑नि श॒तानि॑ च । दि॒वो अ॒मुष्य॒ शास॑तो॒ दिवं॑ य॒य दि॑वावसो ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नः॒ । स॒ह॒स्र॒ऽशः । भ॒र॒ । अ॒युता॑नि । श॒तानि॑ । च॒ । दि॒वः । अ॒मुष्य॑ । शास॑तः । दिव॑म् । य॒य । दि॒वा॒व॒सो॒ इति॑ दिवाऽवसो ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ न: सहस्रशो भरायुतानि शतानि च । दिवो अमुष्य शासतो दिवं यय दिवावसो ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । नः । सहस्रऽशः । भर । अयुतानि । शतानि । च । दिवः । अमुष्य । शासतः । दिवम् । यय । दिवावसो इति दिवाऽवसो ॥ ८.३४.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 34; मन्त्र » 15
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Bring us, give us, riches, powers and excellences in hundreds, thousands and lacs, even more, unbounded all, and from the light and culture of this order of earthly rule, O lover of peace and light of heaven, rise to heavenly light and eternal joy.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    बलवान, उपदेष्टा असलेल्या विद्वानाकडून शिक्षण घेऊन असंख्य प्रकारचे पौष्टिक पदार्थांपासून बल वाढविण्यासाठी योगाभ्यास इत्यादी साधनभूत क्रियांचा अभ्यास करण्याचा संकल्प साधकांनी घ्यावा ॥१५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    [साधक बलशाली विद्वान् से प्रार्थना करता है कि] हे विद्वन्! आप (नः) हमें (सहस्रशः, अयुतानि, शतानि च) सैकड़ों, सहस्रों व लाखों ऐश्वर्यों से (आ भर) परिपूर्ण कर पुष्ट करें। शेष पूर्ववत्॥१५॥

    भावार्थ

    साधक का यह कर्त्तव्य है कि वह बलवान् उपदेशक विद्वान् से शिक्षा लेकर असंख्य प्रकार के पौष्टिक पदार्थों, वृद्धि के योगाभ्यास आदि की साधनभूत क्रियाओं के अभ्यास का संकल्प लें॥१५॥

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    विषय

    राजा के प्रति प्रजा की याचना।

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! हे राजन् ! शूर ! तू ( नः ) हमें ( सहस्रशः अयुतानि शतानि च ) सैकड़ों, हज़ारों और लाखों की संख्या में (आ भर) पुष्ट कर, वा हमें अनेक ऐश्वर्य दे।

    टिप्पणी

    ( दिवः अमुष्य० इत्यादि पूर्ववत् ) इति त्रयोदशो वर्गः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नीपातिथि: काण्वः। १६—१८ सहस्रं वसुरोचिषोऽङ्गिरस ऋषयः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ८, १०, १२, १३, १५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ६, ७, १ अनुष्टुप्। ५, ११, १४ विराडनुष्टुप्। १६, १८ निचृद्गायत्री । १७ विराङ् गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    अयुतानि शतानि च

    पदार्थ

    [१] हे जीव ! तू (नः) = हमारे इन (अयुतानि) = लाखों (च) = और (शतानि) = सैंकड़ों अथवा (अ-युतानि) = आत्मा से पृथक् न होनेवाले (शतानि च) = और सौ के सौ वर्ष तक ठीक से चलनेवाले ज्ञानधनों को (सहस्त्रशः) = हजारों प्रकार से (आभर) = अपने अन्दर धारण कर। [२] हे ज्ञानधन जीव ! तू उस प्रकाशमय शासक के ज्ञानधन को प्राप्त हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम आत्मा से पृथक् न होनेवाले ज्ञानों को शतवर्षपर्यन्त अनेक प्रकार से धारण करनेवाले बनें। ज्ञान को ही धन समझें।

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