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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 34/ मन्त्र 11
    ऋषिः - नीपातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    आ नो॑ या॒ह्युप॑श्रुत्यु॒क्थेषु॑ रणया इ॒ह । दि॒वो अ॒मुष्य॒ शास॑तो॒ दिवं॑ य॒य दि॑वावसो ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नः॒ । या॒हि॒ । उप॑ऽश्रुति । उ॒क्थेषु॑ । र॒ण॒य॒ । इ॒ह । दि॒वः । अ॒मुष्य॑ । शास॑तः । दिव॑म् । य॒य । दि॒वा॒व॒सो॒ इति॑ दिवाऽवसो ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो याह्युपश्रुत्युक्थेषु रणया इह । दिवो अमुष्य शासतो दिवं यय दिवावसो ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । नः । याहि । उपऽश्रुति । उक्थेषु । रणय । इह । दिवः । अमुष्य । शासतः । दिवम् । यय । दिवावसो इति दिवाऽवसो ॥ ८.३४.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 34; मन्त्र » 11
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Come close to us, listen to our songs of adoration of divinity, and enjoy the holy celebrations, and from the light and joy of the earthly world of rule and order, O lover of the light of divinity, rise to the light of heavenly peace and freedom.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    बलाची इच्छा करणाऱ्या साधकाने विद्वानांचे योग्य कथन ऐकण्याची संधी शोधली पाहिजे. विद्वान वेदातील सृष्टीच्या पदार्थांच्या गुणावगुणाचे वर्णन (स्तोत्र) ऐकवितात. साधकाने अत्यंत आनंदाने ते ऐकावे. ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    [बलार्थी साधक को मानो विद्वान् कहते हैं कि] हे साधक! तू (नः) हमारे कहने के (उपश्रुति) उपयुक्त श्रवण को (आ याहि) पाए; और (इह) इस श्रवण का अवसर प्राप्त होने पर (उक्थेषु) बनाये जा सकने वाले सब स्तुति वचनों में (रणया) रमण करे। शेष पूर्ववत्॥११॥

    भावार्थ

    बलार्थी साधक ऐसे शुभ अवसर की खोज में रहे कि जब उसे विद्वानों के उपयुक्त कथन सुनने को मिलें। विद्वान् द्वारा वेदों में वर्णित सृष्टि के पदार्थों के गुणावगुण का वर्णन स्तोत्र=होता है; साधक परम आनन्द से उन्हें सुने॥११॥

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    विषय

    उनके कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( दिवावसो ) ज्ञानप्रकाश के हेतु ब्रह्मचर्य वास करने हारे ! तू ( नः ) हम विद्वानों के ( उप-श्रुति ) समीप आकर करने ज्ञान श्रवण करने के निमित्त ( आ याहि ) प्राप्त हो और ( उक्थेषु ) वेद वचनों और उपदेशों के निमित्त ( इह ) इस आश्रम में ( नः रणय ) हमें उपदेश कर। हे (दिवा-वसो) ज्ञानप्रकाश के हेतु उसके अधीन वास करने वाले ! शिष्य ! तू ( अमुष्य दिवं शासतः दिवः ) उस ज्ञान के अनुशासक तेजस्वी गुरु के ज्ञानों को ( यय ) प्राप्त कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नीपातिथि: काण्वः। १६—१८ सहस्रं वसुरोचिषोऽङ्गिरस ऋषयः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ८, १०, १२, १३, १५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ६, ७, १ अनुष्टुप्। ५, ११, १४ विराडनुष्टुप्। १६, १८ निचृद्गायत्री । १७ विराङ् गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    ज्ञान-श्रवण-सम्मिलित स्तवन

    पदार्थ

    [१] हे जीव ! तू (नः) = हमारे (उपश्रुति) = समीप ज्ञान-श्रवण के कार्य में (आयाहि) = आ। हमारे समीप उपस्थित होकर ज्ञान का श्रवण करनेवाला बन । हृदयस्थ प्रभु प्रेरणा देते हैं । उस प्रेरणा के सुनने से ज्ञानवृद्धि होती है। (उक्थेषु) = स्तोत्रों में (सह) = मिलकर (रणयः) = आनन्द का अनुभव कर । घर के सब व्यक्ति मिलकर बैठें और मिलकर स्तोत्रों का श्रवण करें। [२] हे ज्ञानधन जीव ! तू उस प्रकाशमय शासक के ज्ञानधन को प्राप्त कर ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम हृदयस्थ प्रभु से ज्ञान की वाणियों का श्रवण करें। घरों में सब मिलकर प्रभु का गुणगान करें । उस प्रकाशमय प्रभु से ज्ञानधन को प्राप्त करें।

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