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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 34/ मन्त्र 6
    ऋषिः - नीपातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    स्मत्पु॑रंधिर्न॒ आ ग॑हि वि॒श्वतो॑धीर्न ऊ॒तये॑ । दि॒वो अ॒मुष्य॒ शास॑तो॒ दिवं॑ य॒य दि॑वावसो ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्मत्ऽपु॑रन्धिः । नः॒ । आ । ग॒हि॒ । वि॒श्वतः॑ऽधीः । नः॒ । ऊ॒तये॑ । दि॒वः । अ॒मुष्य॑ । शास॑तः । दिव॑म् । य॒य । दि॒वा॒व॒सो॒ इति॑ दिवाऽवसो ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्मत्पुरंधिर्न आ गहि विश्वतोधीर्न ऊतये । दिवो अमुष्य शासतो दिवं यय दिवावसो ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्मत्ऽपुरन्धिः । नः । आ । गहि । विश्वतःऽधीः । नः । ऊतये । दिवः । अमुष्य । शासतः । दिवम् । यय । दिवावसो इति दिवाऽवसो ॥ ८.३४.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 34; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, enlightened with the thought and wisdom of universal order, equipped with the power and competence of a ruler of cities, come and take over the reins of government for our protection and advancement, and from the light and wisdom of the sages of vision and command, O lover and giver of a rule of peace and enlightenment, rise to the light and heaven of your imagination.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    श्रोता साधक जेव्हा स्वत: वर्षणशील, ज्ञानाची वर्षा करणारा असतो तेव्हा इतर साधारण लोक त्याच्याकडून ही अपेक्षा ठेवतात की, त्याने आपला प्राप्त केलेला संपूर्ण शहाणपणा व कर्मशक्तीचा इतरांना उपदेश द्यावा. ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (विश्वतो धीः) सर्वत्र जाने वाली बुद्धि व सर्वगामी कर्मशक्ति सम्पन्न श्रोता साधक (स्मत् पुरन्धिः) अनेक प्रकार की श्रेष्ठ विद्या से युक्त हो (ऊतये) हमें ज्ञान देने को (नः) हमारा (आ गहि) हाथ पकड़े। शेष पूर्ववत्॥६॥

    भावार्थ

    जब श्रोता साधक ज्ञान की वर्षा करनेवाला है तो अन्य साधारण जन उससे अपेक्षा रखें कि वह अपनी सारी सूझबूझ व कर्मशक्ति का दूसरों को उपदेश दे॥६॥

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    विषय

    उनके कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! हे वीर ! तू ( स्मत्-पुरन्धिः ) सर्वोत्तम बहुत से ज्ञानों को धारण करने और बहुतों का भरण पोषण करने में समर्थ उत्तम शासक, गृहणीवत् उत्तम प्रबन्धक और ( विश्वतः-धीः ) सब तरफ जाने वाली बुद्धि, वा सर्वगामी कर्मसामर्थ्य से सम्पन्न होकर (नः ऊतये ) हमारी रक्षा और हमें ज्ञान प्रदान करने के लिये ( नः आगहि ) हमें प्राप्त हो। हे ( दिवावसो ) ज्ञान, प्रकाश और उत्तम व्यवहार शुभ कामना से रहने वाले तू ( शासतः अमुष्य ) शासन और विद्योपदेश करने वाले उस ( दिवः ) परम ज्ञानी और प्रकाश के ( दिवं ) ज्ञानप्रकाश और उत्तम कामना को ( यय ) प्राप्त कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नीपातिथि: काण्वः। १६—१८ सहस्रं वसुरोचिषोऽङ्गिरस ऋषयः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ८, १०, १२, १३, १५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ६, ७, १ अनुष्टुप्। ५, ११, १४ विराडनुष्टुप्। १६, १८ निचृद्गायत्री । १७ विराङ् गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    स्मत् पुरन्धिः-विश्वतोधी:

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (स्मत् पुरन्धिः) = प्रशस्त पालक बुद्धिवाले आप (नः आगहि) = हमें प्राप्त होइये। (विश्वतः धीः) = सब ओर चलनेवाली बुद्धिवाले आप (नः) = हमारे ऊतये रक्षण के लिये होइये। आप से प्रशस्त पालक बुद्धि को प्राप्त करके तथा सब विषयों में प्रवेशवाली बुद्धि को प्राप्त करके हम अपना रक्षण कर सकें। [२] हे ज्ञानधन जीव ! तू शासक प्रकाशमय प्रभु के ज्ञानधन को प्राप्त कर ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें प्रशस्त पालक बुद्धि को दें। हम सब विषयों में प्रवेशवाली बुद्धि को प्राप्त करके अपना कल्याण सिद्ध कर सकें।

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