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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 34/ मन्त्र 14
    ऋषिः - नीपातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    आ नो॒ गव्या॒न्यश्व्या॑ स॒हस्रा॑ शूर दर्दृहि । दि॒वो अ॒मुष्य॒ शास॑तो॒ दिवं॑ य॒य दि॑वावसो ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नः॒ । गव्या॑नि । अश्व्या॑ । स॒हस्रा॑ । शू॒र॒ । द॒र्दृ॒हि॒ । दि॒वः । अ॒मुष्य॑ । शास॑तः । दिव॑म् । य॒य । दि॒वा॒व॒सो॒ इति॑ दिवाऽवसो ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो गव्यान्यश्व्या सहस्रा शूर दर्दृहि । दिवो अमुष्य शासतो दिवं यय दिवावसो ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । नः । गव्यानि । अश्व्या । सहस्रा । शूर । दर्दृहि । दिवः । अमुष्य । शासतः । दिवम् । यय । दिवावसो इति दिवाऽवसो ॥ ८.३४.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 34; मन्त्र » 14
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Give us a thousand riches of lands and cows, culture and enlightenment, O brave ruler, give us and develop communications and transport, and from the light and rule of this earthly order, O lover of heavenly light, rise to the light of heaven and eternal joy.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    साधकाचे हे कर्तव्य आहे की, त्याने विद्वानांचे अनुसरण करावे. त्यांच्या ज्ञान व कर्मबलानुसार स्वत:चे ज्ञान व कर्मबल वाढविण्याचा प्रयत्न करावा. ॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    साधक (नः) हमारे (सहस्रा) अगणित (गव्यानि) ज्ञानेन्द्रियों के लिये हितकारी एवं (अश्व्या) कर्मेन्द्रियों के हितकारी नाना बलों को (आदर्दृहि) चतुर्दिक् से बढ़ाये। शेष पूर्ववत्॥१४॥

    भावार्थ

    साधक का यह कर्त्तव्य है कि वह विद्वानों का अनुसरण करे; उसे चाहिये कि उनके ज्ञान एवं कर्मबल के अनुसार अपने ज्ञान एवं कर्मबल को बढ़ाने को प्रयत्नशील रहे॥१४॥

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    विषय

    राजा के प्रति प्रजा की याचना।

    भावार्थ

    हे ( शूर ) वीर ! तू ( सहस्रा ) बलवान् वा सहस्रों (गव्यानि अश्व्या) गौओं और अश्वों की (नः आदर्दृहि) हमारे लिये वृद्धि कर। वा हमारे ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय और प्राणों के ( सहस्रा ) अनेक ज्ञानों बलों को बढ़ा ( दिवः अमुष्य० ) इत्यादि पूर्ववत्॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नीपातिथि: काण्वः। १६—१८ सहस्रं वसुरोचिषोऽङ्गिरस ऋषयः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ८, १०, १२, १३, १५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ६, ७, १ अनुष्टुप्। ५, ११, १४ विराडनुष्टुप्। १६, १८ निचृद्गायत्री । १७ विराङ् गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों का ग्रथन

    पदार्थ

    [१] हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले जीव ! तू (नः) = हमारे से दिये हुए (सहस्त्रा) = इन अनेकों (गव्यानि) = ज्ञानेन्द्रिय समूहों को तथा (अश्वा) = कर्मेन्द्रिय समूहों को (आदर्दृहिः) = सर्वथा ग्रथित कर [string to gether] ये मिलकर कार्य करनेवाली हों। परस्पर अविरुद्ध रूप से ये ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ कार्यों को करनेवाली हों। [२] हे ज्ञानधन जीव ! तू उस प्रकाशमय शासक के ज्ञानधन को प्राप्त कर।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु से दी गई इन ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों को एक सूत्र में ग्रथित कर कार्य करनेवाले बनें। वही ज्ञानवृद्धि का मार्ग है। इसी से हम उस प्रभु से दिये जानेवाले ज्ञानधन को प्राप्त करेंगे।

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