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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 34/ मन्त्र 13
    ऋषिः - नीपातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    आ या॑हि॒ पर्व॑तेभ्यः समु॒द्रस्याधि॑ वि॒ष्टप॑: । दि॒वो अ॒मुष्य॒ शास॑तो॒ दिवं॑ य॒य दि॑वावसो ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । या॒हि॒ । पर्व॑तेभ्यः । स॒मु॒द्रस्य । अधि॑ । वि॒ष्टपः॑ । दि॒वः । अ॒मुष्य॑ । शास॑तः । दिव॑म् । य॒य । दि॒वा॒व॒सो॒ इति॑ दिवाऽवसो ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ याहि पर्वतेभ्यः समुद्रस्याधि विष्टप: । दिवो अमुष्य शासतो दिवं यय दिवावसो ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । याहि । पर्वतेभ्यः । समुद्रस्य । अधि । विष्टपः । दिवः । अमुष्य । शासतः । दिवम् । यय । दिवावसो इति दिवाऽवसो ॥ ८.३४.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 34; मन्त्र » 13
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Come from the mountains and the clouds, come over the seas and hasten from the farthest regions of the globe, rule, and from the light of this order of rule, O lover of light and giver of peace and settlement, rise to the light of heaven.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    साधकाने आपल्या मार्गातील सर्व प्रकारच्या विघ्नबाधा, दुर्गमता, प्राबल्य व अत्यंत दूरत्व यांना ओलांडून समर्थ विद्वानांच्या सेवेत पोचले पाहिजे. ॥१३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे साधनारत! तू (पर्वतेभ्यः) पर्वतों के तुल्य दुर्लंघ्य स्थानों पर से, (समुद्रस्य अधि) सागर की गहराइयों से और (विष्टपः) सुदूर व्याप्त अन्तरिक्ष तक से भी (आयाहि) आकर समर्थ विद्वान् की सेवा में पहुँच। शेष पूर्ववत्॥१३॥

    भावार्थ

    साधक के लिये उचित है कि वह अपने मार्ग की सभी विघ्न-बाधाओं को लाँघे और समर्थ विद्वान् की सेवा में पहुँचे॥१३॥

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    विषय

    राजा के प्रति प्रजा की याचना।

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! तू ( पर्वतेभ्यः ) पर्वतों या मेघों से जलों के समान और ( समुद्रस्य ) समुद्र के ( वि-स्तपः ) ताप रहित शीतल स्थान से मेघमाला या पवन के समान ( आ याहि ) हमें प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    ( दिवः अमुष्य० इत्यादि पूर्ववत् )

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नीपातिथि: काण्वः। १६—१८ सहस्रं वसुरोचिषोऽङ्गिरस ऋषयः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ८, १०, १२, १३, १५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ६, ७, १ अनुष्टुप्। ५, ११, १४ विराडनुष्टुप्। १६, १८ निचृद्गायत्री । १७ विराङ् गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    पर्वतों व समुद्रों से प्रभु की ओर

    पदार्थ

    [१] प्रभु जीव से कहते हैं कि तू (पर्वतेभ्यः) = इन पर्वतों से (आयाहि) = हमारे समीप प्राप्त हो । पर्वतों पर प्राकृतिक शोभा को देखता हुआ तू रचयिता का स्मरण करनेवाला बन। इसी प्रकार (समुद्रस्य अधिविष्टप:) = समुद्र के इस लोक से [विष्टप्-लोक] तू हमें प्राप्त हो। समुद्र भी तो प्रभु की महिमा का प्रतिपादन कर रहा है। ये समुद्र और पर्वत तुझे प्रभु के समीप प्राप्त करानेवाले हों 'यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसया सहाहुः । [२] हे ज्ञानधन जीव ! तू उस प्रकाशमय शासक से ज्ञानधन को प्राप्त कर |

    भावार्थ

    भावार्थ- हम पर्वतों व समुद्रों में प्रभु की महिमा का स्मरण करते हुए प्रभु को प्राप्त हों। उस प्रभु से प्रकाश को प्राप्त करें।

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