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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 34/ मन्त्र 16
    ऋषिः - नीपातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ यदिन्द्र॑श्च॒ दद्व॑हे स॒हस्रं॒ वसु॑रोचिषः । ओजि॑ष्ठ॒मश्व्यं॑ प॒शुम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । यत् । इन्द्रः॑ । च॒ । दद्व॑हे॒ इति॑ । स॒हस्र॑म् । वसु॑ऽरोचिषः । ओजि॑ष्ठम् । अश्व्य॑म् । प॒शुम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ यदिन्द्रश्च दद्वहे सहस्रं वसुरोचिषः । ओजिष्ठमश्व्यं पशुम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । यत् । इन्द्रः । च । दद्वहे इति । सहस्रम् । वसुऽरोचिषः । ओजिष्ठम् । अश्व्यम् । पशुम् ॥ ८.३४.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 34; मन्त्र » 16
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let us all, and Indra too, lovers of peace, wealth, honour, power and excellence, win a thousandfold wealth of brilliant progress and advancement.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    साधक व त्याचा उपदेष्टा असलेल्या शक्तिवान विद्वानाने ज्ञान व कर्मशक्ती वाढविणारे बल ग्रहण करावे. ॥१६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यत्) जब (वसुरोचिषः) वास के साधनभूत ऐश्वर्य की कान्ति के अभिलाषी हम (इन्द्रः च) तथा समर्थ विद्वज्जन (ओजिष्ठम्) पराक्रम के साधनभूत, (अश्व्यम्) कर्मेन्द्रियों के हितकारी व (पशु) दर्शनशक्ति वाले ज्ञानेन्द्रियों के प्रतीक ज्ञानेन्द्रियों के हितकारी बल को (आ दद्वहे) पाएं॥१६॥

    भावार्थ

    साधक और उसे उपदेश देने वाला शक्तिशाली विद्वान वही बल प्राप्त करे कि जो उसके ज्ञान तथा कर्मशक्ति में वृद्धि करे॥१६॥

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    विषय

    राजा के प्रति प्रजा की याचना।

    भावार्थ

    हम लोग और ( इन्द्रः च ) हमारा ऐश्वर्यवान् राजा, नेता, ( वसु-रोचिषः ) धन, प्रजादि की कान्ति से सम्पन्न होकर ( ओजिष्ठं ) अति पराक्रमशील, बलयुक्त, ( अश्व्यं ) अश्व बल से युक्त ( पशुम् ) पशु सम्पदा को ( सहस्रं ) सहस्र संख्या में ( आ दद्वहे ) प्राप्त करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नीपातिथि: काण्वः। १६—१८ सहस्रं वसुरोचिषोऽङ्गिरस ऋषयः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ८, १०, १२, १३, १५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ६, ७, १ अनुष्टुप्। ५, ११, १४ विराडनुष्टुप्। १६, १८ निचृद्गायत्री । १७ विराङ् गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'सहस्रा ओजिष्ठ अश्व्य पशु'

    पदार्थ

    [१] (वसुरोचिषः) = ज्ञान कीदीतिरूप धनवाले हम (इन्द्रः च) = और परमैश्वर्यशाली प्रभु, (यत्) = जो (सहस्रम्) = [स+हस्] आनन्द से युक्त है तथा (ओजिष्ठम्) = ओजस्वितम है उस (पशुम्) = [पश्यति] सब पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करनेवाले (अश्व्यम्) = इन्द्रियाश्व समूह को (आदद्वहे) = सर्वथा प्राप्त करते हैं। [२] (वसुरोचिष्) = उत्तम इन्द्रियाश्व समूह को प्राप्त करते हैं। परन्तु करते प्रभु की सहायता से ही हैं। सो कहते हैं कि 'वसुरोचिष् और इन्द्र'। ये इन्द्रियाँ स्वस्थ होती हुई 'सु+ख' का कारण होती हैं, सो 'सहस्रं' विशेषण है। ज्ञान प्राप्ति का साधन बनती हैं, सो 'पशुं' विशेषण है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम ज्ञानदीप्तिरूप धनवाले बनकर प्रभु की उपासना करते हुए ओजस्वी- आनन्द की कारणभूत ज्ञान को प्राप्त करानेवाली इन्द्रियों को पाते हैं।

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