ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 34/ मन्त्र 18
ऋषिः - नीपातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
पारा॑वतस्य रा॒तिषु॑ द्र॒वच्च॑क्रेष्वा॒शुषु॑ । तिष्ठं॒ वन॑स्य॒ मध्य॒ आ ॥
स्वर सहित पद पाठपारा॑वतस्य । रा॒तिषु॑ । द्र॒वत्ऽच॑क्रेषु । आ॒शुषु॑ । तिष्ठ॑म् । वन॑स्य । मध्ये॑ । आ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पारावतस्य रातिषु द्रवच्चक्रेष्वाशुषु । तिष्ठं वनस्य मध्य आ ॥
स्वर रहित पद पाठपारावतस्य । रातिषु । द्रवत्ऽचक्रेषु । आशुषु । तिष्ठम् । वनस्य । मध्ये । आ ॥ ८.३४.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 34; मन्त्र » 18
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 8
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 8
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of light and power, let me be established among the generous and profuse gifts of the farthest spaces, moving at the fastest in the dynamics of the whirling wheels of time, ultimately at peace somewhere at the centre of eternal truth, goodness and beauty of divinity.
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा माणसाची इन्द्रिये त्याच्या वशमध्ये असतील व त्याची जीवनयात्रा निर्विघ्नरूपाने पार पडत असेल तर साधक सर्व प्रकारच्या ऐश्वर्याचा अधिष्ठाता होऊन इन्द्ररूप प्राप्त करतो. ॥१८॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
जब (पारावतस्य) परमस्थिति में स्थिर प्रभु की (रातिषु) दानभूत, (आशुषु) शीघ्रगामी अश्वरूप बलवती इन्द्रियाँ (द्रवत् चक्रेषु) शरीररूप रथ के चक्रों को अतिवेग से दौड़ाने की स्थिति पा लें, तब मैं साधक (वनस्य मध्ये) ऐश्वर्य के बीच (आ तिष्ठम् ) आ विराजूं॥१८॥
भावार्थ
जब व्यक्ति की इन्द्रियाँ उसके वश में हों और उसकी जीवन-यात्रा निर्विघ्न व पूर्णवेग से होने लगे तो साधक सर्व प्रकार के ऐश्वर्य का अधिष्ठाता होकर इन्द्ररूप पा लेता है।॥१८॥ अष्टम मण्डल में चौंतीसवां सूक्त व तेरहवाँ वर्ग समाप्त॥
विषय
राजा के प्रति प्रजा की याचना।
भावार्थ
परम स्थान पर विराजमान, परम पालक प्रभु के (रातिषु) दिये ऐश्वर्यों के बीच में और (द्रवत्-चक्रेषु) अति शीघ्रता से चलने वाले, चक्रों से युक्त, (आशुषु) शीघ्रगामी अश्वों, सैन्यों के बीच में सुरक्षित रहकर (वनस्य मध्ये) जल के बीच कमलवत्, तेजों के बीच सूर्यवत् और ऐश्वर्यों के बीच मैं (आ तिष्ठम्) विराजूं। इति त्रयोदशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नीपातिथि: काण्वः। १६—१८ सहस्रं वसुरोचिषोऽङ्गिरस ऋषयः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ८, १०, १२, १३, १५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ६, ७, १ अनुष्टुप्। ५, ११, १४ विराडनुष्टुप्। १६, १८ निचृद्गायत्री । १७ विराङ् गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
पारावत
पदार्थ
[१] प्रभु 'पारावत' हैं, पार हैं, अवत हैं। सब कर्मों को पार लगानेवाले हैं, प्रभु कृपा ही हमें सब कर्मों के अन्त तक ले जाती है। वे प्रभु अवत हैं, रक्षक हैं। इन (पारावतस्य) = पारावत प्रभु के (रातिषु) = दानों में, इस प्रभु से दिये जानेवाले (द्रवच्चक्रेषु) = गतिमय रथचक्रोंवाले (आशुषु) = कर्मों में व्याप्त रहनेवाले इन्द्रियाश्वों के ऊपर (तिष्ठम्) = मैं स्थित हूँ। [२] इसी का परिणाम है कि मैं (वनस्य मध्ये) = प्रकाश की किरणों के बीच में स्थित होता हूँ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु मुझे गतिमय चक्रोंवाले शरीर रथ को देते हैं। इसमें कर्मों में व्याप्त होनेवाले इन्द्रियाश्व जुते हैं। इनके द्वारा मैं सदा ज्ञानरश्मियों में निवास करूँ। गतिशील इन्द्रियाश्वोंवाला 'श्यावाश्व' अगले सूक्त का ऋषि है। वह 'अश्विनौ' का आराधन करता है-
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