ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 34/ मन्त्र 3
ऋषिः - नीपातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
अत्रा॒ वि ने॒मिरे॑षा॒मुरां॒ न धू॑नुते॒ वृक॑: । दि॒वो अ॒मुष्य॒ शास॑तो॒ दिवं॑ य॒य दि॑वावसो ॥
स्वर सहित पद पाठअत्र॑ । वि । ने॒मिः । ए॒षा॒म् । उरा॑म् । न । धू॒नु॒ते॒ । वृकः॑ । दि॒वः । अ॒मुष्य॑ । शास॑तः । दिव॑म् । य॒य । दि॒वा॒व॒सो॒ इति॑ दिवाऽवसो ॥
स्वर रहित मन्त्र
अत्रा वि नेमिरेषामुरां न धूनुते वृक: । दिवो अमुष्य शासतो दिवं यय दिवावसो ॥
स्वर रहित पद पाठअत्र । वि । नेमिः । एषाम् । उराम् । न । धूनुते । वृकः । दिवः । अमुष्य । शासतः । दिवम् । यय । दिवावसो इति दिवाऽवसो ॥ ८.३४.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 34; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Here the very edge and foundation of these sages of knowledge and wisdom would shake you and reveal you to yourself as thunder shakes the earth and lightning lights it up all over. And then from the light and thunder of these commanders you would rise, liberated, to your own heights of heaven, O lover and ruler of the light of day.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रशंसनीय विद्वानाच्या वाणीत विद्युतच्या गर्जनेप्रमाणे बल असले पाहिजे- इतके बल असावे की श्रोत्या साधकाने ते ऐकले पाहिजे. ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वृकः उरां धूनुते) भेड़िये द्वारा भेड़ बल से खूब झकझोरी जाती है (न) इसी प्रकार (अत्रा) इस जीवनयात्रा में (एषाम्) स्तोताओं की (नेमिः) गर्जनध्वनि श्रोता साधक को (वि धूनुते) विशेष रूप से झकझोरती है। शेष पूर्ववत्॥३॥
भावार्थ
विद्वान् स्तोता की वाणी में विद्युत् गर्जन-सरीखा बल हो अर्थात् वह इतनी बलयुक्त हो कि श्रोता साधक को सुनना ही पड़े॥३॥
विषय
उनके कर्त्तव्य।
भावार्थ
(वृकः उरां न) भेड़िया जिस प्रकार भेड़ को बल से (धूनुते) कंपा देता है। उसी प्रकार (एषां) इन विद्वानों का ( वृकः ) विशेष ज्योति को प्रकाशित करने वाला ( नेमिः ) अनुशासन ( अत्र ) इस लोक में ( उराम् ) अति विस्तृत वाणी को ( विधूनुते ) विशेष रूप से प्रदान करता है। ( दिवः अमुष्य शासतः ) अनुशासन करने वाले उस तेजस्वी ज्ञानी पुरुष के (दिवं) ज्ञानप्रकाश को हे विद्यार्थिन् ! तू (यय) प्राप्त कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नीपातिथि: काण्वः। १६—१८ सहस्रं वसुरोचिषोऽङ्गिरस ऋषयः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ८, १०, १२, १३, १५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ६, ७, १ अनुष्टुप्। ५, ११, १४ विराडनुष्टुप्। १६, १८ निचृद्गायत्री । १७ विराङ् गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
अनुशासन
पदार्थ
[१] (अत्रा) = यहाँ ब्रह्मचर्याश्रम में, गत मन्त्र का सोमी आचार्य (एषाम्) = इन विद्यार्थियों का (विनेमिः) = विशेषरूप से परिधि बनता है। इनको उचित अनुशासन में रखता हुआ इन्हें मार्ग से विचलित नहीं होने देता। अनुशासन में रखनेवाला आचार्य शास्ता है, विद्यार्थी 'शिष्य' है। आचार्य इनकी वासनाओं को इस प्रकार (धूनुते) = कम्पित करके दूर कर देता है (न) = जैसे (वृकः) = भेड़िया (उराम्) = भेड़ को कम्पित करनेवाला होता है। [२] हे ज्ञानधन शिष्य ! तू उस शासक प्रकाशमय प्रभु के ज्ञान को प्राप्त कर ।
भावार्थ
भावार्थ-आचार्य विद्यार्थियों को अनुशासन में रखता हुआ उनको मर्यादा में चलाता है। इनकी वासनाओं को कम्पित करके दूर करता है। ज्ञान धन को प्राप्त कराता है।
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