Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 92 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 10
    ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अत॑श्चिदिन्द्र ण॒ उपा या॑हि श॒तवा॑जया । इ॒षा स॒हस्र॑वाजया ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अतः॑ । चि॒त् । इ॒न्द्र॒ । नः॒ । उप॑ । आ । या॒हि॒ । श॒तऽवा॑जया । इ॒षा । स॒हस्र॑ऽवाजया ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अतश्चिदिन्द्र ण उपा याहि शतवाजया । इषा सहस्रवाजया ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अतः । चित् । इन्द्र । नः । उप । आ । याहि । शतऽवाजया । इषा । सहस्रऽवाजया ॥ ८.९२.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 10
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And from here, Indra, come to us, bring us the food of life for a hundredfold and a thousandfold victory of honour and excellence.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाची जी समृद्धी- ज्ञान, बल, धन इत्यादींचे भांडार आहे, त्यामुळे अनेक उपयुक्त काम होऊ शकते. राजा जेव्हा प्रजेमध्ये जातो त्यावेळी त्याचे हे भांडार दानासाठी खुले असावे. ॥१०॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (2)

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्ययुक्त राजपुरुष! (अतः चित्) अपने वर्तमान स्थान से ही, (शतवाजया) सैकड़ों बल वाली, (सहस्रवाजया) हजारों सामर्थ्यवाली (इषा) समृद्धि सहित (णः=नः) हमारे (उप) समीप (आयाहि) चलकर आ॥१०॥

    भावार्थ

    शासक की जो समृद्धि--ज्ञान, बल तथा धन आदि--का भण्डार है, उससे अनेक उपयोगी काम हो सकते हैं। राजा प्रजा के मध्य जब पहुँचे, उस समय उसका भण्डार दानहेतु खुला हो॥१०॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    उस के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( अतः ) इसी कारण ( नः ) हमें तू ( शत-वाजया सहस्र-वाजया) सैकड़ों, सहस्रों बल, ज्ञान, अन्न वेगादि से युक्त ( इषा ) इच्छा शक्ति, प्रेरणा और अन्न, सेनादि के साथ ( उप-आ याहि ) प्राप्त हो। इति षोडशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्रुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडनुष्टुप् २, ४, ८—१२, २२, २५—२७, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७, ३१, ३३ पादनिचृद् गायत्री। २ आर्ची स्वराड् गायत्री। ६, १३—१५, २८ विराड् गायत्री। १६—२१, २३, २४,२९, ३२ गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top