Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 92 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 3
    ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    इन्द्र॒ इन्नो॑ म॒हानां॑ दा॒ता वाजा॑नां नृ॒तुः । म॒हाँ अ॑भि॒ज्ञ्वा य॑मत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । इत् । नः॒ । म॒हाना॑म् । द॒ता । वाजा॑नाम् । नृ॒तुः । म॒हान् । अ॒भि॒ऽज्ञु । आ । य॒म॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र इन्नो महानां दाता वाजानां नृतुः । महाँ अभिज्ञ्वा यमत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः । इत् । नः । महानाम् । दता । वाजानाम् । नृतुः । महान् । अभिऽज्ञु । आ । यमत् ॥ ८.९२.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra is a happy and joyous leader, giver of a high order of living, energy and life’s victories. May he, with love, courtesy and humility, lead us to life’s greatness and glory.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजा हा राजाच असतो. जो नम्र होऊन प्रजेत ऐश्वर्य वाटतो तोच राजा वास्तविक महान व उदार असतो. ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्रः इत्) पूर्वोक्त लक्षणों से युक्त राजा ही (नः) हमें (महानां वाजानां दाता) आदरणीय बल, विज्ञान, धन इत्यादि ऐश्वर्यों का दाता (नृतुः) विविध रूप में, नट के तुल्य, कर्मकर्ता अथवा सर्व नेता (महान्) महान् ऐश्वर्य (अभिज्ञु) नम्रता पूर्वक (आयमत्) प्रदान करे॥३॥

    भावार्थ

    राजा तो राजा ही है, परन्तु वही राजा वस्तुतः महान् तथा उदार है जो नम्र हो प्रजा में अपना ऐश्वर्य बाँटता है॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    उस के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( इन्द्रः इत् ) वह परम ऐश्वर्यवान् ही ( नः महानां ) बड़े पूज्य गुणों का और ( वाजानां ) ऐश्वर्यों वा, ज्ञानों का ( दाता ) देने वाला और ( महान् नृतुः ) बड़ा भारी नेता, संञ्चालक है वह (अभिज्ञु) उत्तम ज्ञानसम्पन्न होकर ( नः आ यमत् ) हमें सद् व्यवस्था में रक्खे। अथवा वह ( अभिज्ञु ) आगे गोडे किये, विनीत हमें प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्रुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडनुष्टुप् २, ४, ८—१२, २२, २५—२७, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७, ३१, ३३ पादनिचृद् गायत्री। २ आर्ची स्वराड् गायत्री। ६, १३—१५, २८ विराड् गायत्री। १६—२१, २३, २४,२९, ३२ गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    महानां वाजानां दाता

    पदार्थ

    [१] (इन्द्र:) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (नः) = हमारे लिये (इत्) = निश्चय से (महानाम्) = [मघानां ] सब ऐश्वर्यों के (दाता) = देनेवाले हैं। वे प्रभु ही (वाजानाम्) = सब शक्तियों के व गतियों के देनेवाले हैं। इन ऐश्वर्यों व शक्तियों को देकर प्रभु ही (नृतुः) = हमें आगे ले चलनेवाले अथवा इस सम्पूर्ण नृत्य के करानेवाले हैं। यह संसार अभिनय-स्थली है, प्रभु ही सब अभिनय करानेवाले सूत्रधार हैं। जीव ही अभिनेता [Actors] हैं। [२] वे (महान्) = पूजनीय प्रभु (अभिशु) = [ अभिगत जानुकं यथा स्यात् तथा] घुटने टिकवाकर (आयमत्) = हमें नियम में रखते हैं। हमें वे विनीत व संयमी बनाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारे लिये ऐश्वर्यों व शक्तियों को प्राप्त कराते हैं। वे ही इस संसाररूप अभिनय-स्थली के सूत्रधार होते हुए हमें नृत्य कराते हैं, अपने शासन से वे हमें विनीत व संयमी बनाते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top