ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 32
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
त्वयेदि॑न्द्र यु॒जा व॒यं प्रति॑ ब्रुवीमहि॒ स्पृध॑: । त्वम॒स्माकं॒ तव॑ स्मसि ॥
स्वर सहित पद पाठत्वया॑ । इत् । इ॒न्द्र॒ । यु॒जा । व॒यम् । प्रति॑ । ब्रु॒वी॒म॒हि॒ । स्पृधः॑ । त्वम् । अ॒स्माक॑म् । तव॑ । स्म॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वयेदिन्द्र युजा वयं प्रति ब्रुवीमहि स्पृध: । त्वमस्माकं तव स्मसि ॥
स्वर रहित पद पाठत्वया । इत् । इन्द्र । युजा । वयम् । प्रति । ब्रुवीमहि । स्पृधः । त्वम् । अस्माकम् । तव । स्मसि ॥ ८.९२.३२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 32
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 6
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, O lord omnipotent, O intelligent soul in the state of divine beatitude, O mind in the state of perfect spiritual control, only with you as friend and companion do we counter and win our adversaries in life. You are ours, we are yours.
मराठी (1)
भावार्थ
राजा व प्रजा परस्पर मित्र व सहायक बनून ईर्षा करणाऱ्या सर्वांवर विजय प्राप्त करू शकतात. असेच जर मन व इंद्रिये परस्पर सहायक व मित्र राहिल्यास दुष्ट भावना मानव जीवन नष्ट करू शकत नाहीत. ॥३२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (इन्द्र) राजन्! तथा दिव्य मन! (त्वया युजा इत्) तुझ सहयोगी सहित ही हम (स्पृधः) स्पर्धा करनेवाले शत्रु एवं शत्रुभावनाओं की चुनौती का (प्रति ब्रुवीमहि) प्रत्युत्तर देते हैं। हे (इन्द्र) राजन्! (त्वम् अस्माकम्) तू हमारा रह और हम (तव स्मसि) तेरे॥३२॥
भावार्थ
राजा तथा प्रजा परस्पर मित्र व सहायक रह कर भी ईर्ष्यालुओं पर विजय पा सकते हैं। ऐसे ही यदि मन तथा इन्द्रियाँ परस्पर सहायक एवं सखा रहें तो दुष्ट भावनाएं मानव-जीवन को नष्ट नहीं कर सकतीं॥३२॥
विषय
उस के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( त्वया इत् युजा ) तुझ सहायक से ही ( वयं ) हम ( स्पृधः ) स्पर्धा करने वालों का ( प्रति बुवीमहि ) प्रति वचन वा उत्तर दे सकें। हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! विद्वन् ! ( त्वम् अस्माकम् ) तू हमारा है और हम ( तव स्मसि ) तेरे हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्रुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडनुष्टुप् २, ४, ८—१२, २२, २५—२७, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७, ३१, ३३ पादनिचृद् गायत्री। २ आर्ची स्वराड् गायत्री। ६, १३—१५, २८ विराड् गायत्री। १६—२१, २३, २४,२९, ३२ गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
आप हमारे, हम आपके
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं के संहारक प्रभो ! (त्वया युजा) = आप साथी के साथ (वयम्) = हम (स्पृधः) = स्पर्श करनेवाले शत्रुओं को, काम-क्रोध-लोभ आदि को (इत्) = निश्चय से प्रति (ब्रुवीमहि) = निराकृत कर उसे इनकी ललकार का ठीक उत्तर दे सकें। [२] हे प्रभो ! (त्वं अस्माकम्) = आप हमारे हों। (तव स्मसि) = हम आपके हों। हम आप से मिलकर ही तो शत्रुओं को जीत पायेंगे।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु के साथ मिलकर शत्रुओं को पराजित कर सकें। प्रभु हमारे हों, हम प्रभु के हों। यह ऐक्य ही तो शत्रु-विद्रावक होगा ।
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